बुद्ध के चार आर्य सत्य

एक साधक की विचार-दिशा

Sri Guru
Bliss of Wisdom
6 min readJun 7, 2019

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आज से ढाई शताब्दी पूर्व, जब भारत में हर ओर वैदिक काल प्रचलित था उसी समय में बौद्ध धर्म का जन्म हुआ, प्रचार हुआ और दूर दूर तक प्रसार हुआ। यह बात हमें विचार करने के लिए प्रेरित करती है कि जिस काल में हिंदू धर्म की जड़ें इतनी पुरानी और गहरी थीं उसी काल में एक नया धर्म अस्तित्व में आया और इतना फैला कि आज भी बौद्ध धर्म को मानने वाला वर्ग अत्यंत विस्तृत है — ऐसा क्यों और कैसे हुआ?

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धर्म का सनातन स्वरूप

जब सम्पूर्ण भारत में वैदिक काल चल रहा था और लोगों में क्रिया काण्ड का अत्यंत महत्व था, उसी काल में बौद्ध धर्म का आरम्भ हुआ। उस काल में समाज का वर्गीकरण जाति के आधार पर हो चुका था जिसका बाह्य रूप अपने निम्न स्तर पर आ चुका था। कम संख्या वाले ब्राह्मण बहु-संख्या वाले शूद्र और वैश्य समाज पर प्राबल्य रखते थे। चूँकि यह वर्गीकरण (classification) जन्म के आधार पर हो रहा था तो स्वाभाविक था कि ब्राह्मण-जाति केवल जन्म से ब्राह्मण थी; ज्ञान और गुणों से नहीं। ऐसे में धर्म के नाम पर इनके द्वारा अंधविश्वास, रूढ़िवाद और जड़ क्रिया-कांडों का समूचा प्रचार चल रहा था। जन समाज का सामूहिक शोषण उन लोगों में रोष को बढ़ा रहा था। परंतु कोई दूसरा विकल्प नहीं होने से परम्परा के ताने-बाने को तोड़ना भी सम्भव नहीं लग रहा था। ऐसे समय में एक विरल चेतना सिद्धार्थ गौतम ने आंतरिक यात्रा के पथ से चलते हुए अपने भीतर बुद्धत्व को प्रकट किया और ‘धर्म’ के उस सनातन स्वरूप को जाना जो समय की गर्त में खो चुका था। उस आत्मज्ञान के अभाव में समूचा पंडित वर्ग स्वयं भ्रमित था और दूसरों के भी भ्रमित कर रहा था। क्रिया कांडों से उसका शुभ आशय खो चूका था और अंधविश्वास के आधार पर यज्ञ, तर्पण आदि क्रियाओं के नाम पर हर किसी को लूटा जा रहा था ऐसे में भगवान बुद्ध ने धर्म के सनातन स्वरूप को पुनः उजागर किया और जन सामान्य को पंडितों के खोखले आश्वासनों से आज़ाद किया।

विचार हीनता से विचार शीलता के युग का आरंभ

पंडितों/ब्राह्मणों के अर्थहीन क्रिया-कांडों ने जब लोगों के भीतर सही विचार के द्वार बंद कर दिए थे तब भगवान बुद्ध ने जन-समाज को अपने मौलिक विचार की शक्ति से अवगत कराया। यहीं से एक नए युग का आरम्भ हुआ। चूँकि हर काल में हर मनुष्य की मूलभूत चाहत होती है ‘दुःख से मुक्ति और सुख की प्राप्ति’ और इसी इच्छा का दुरुपयोग कर के पंडितों द्वारा जन-समाज को गुमराह करके लूटा जा रहा था। ऐसे में भगवान बुद्ध ने चार आर्य सत्य की अत्यंत स्पष्ट व ज़ोरदार प्ररूपणा की। जन-जन के मानस में यह चार आर्य सत्य कुछ इस तरह से जगह बनाते गए कि लोगों में पंडितों के कल्पित क्रिया-कांड के शोषण का भय कम होने लगा और वास्तविकता का परिचय प्रगाढ़ होने लगा। यहीं से एक नए विचार-शील मानव का जन्म हुआ जो कार्य-कारण सिद्धांत के आधार पर विचार करता और उसी अनुरूप आचरण की प्रमुखता रखता था।

बुद्ध का धर्म वैज्ञानिक है

भगवान बुद्ध के साथ एक ऐसे धर्म-युग का आरम्भ हुआ जिसका दृष्टिकोण वैज्ञानिक था। जैसे विज्ञान का समग्र आधार है युक्ति, तर्क और प्रमाण इसी प्रकार भगवान बुद्ध ने भी एक ऐसे धर्म की नींव रखी जिसको मात्र अंध विश्वास से मान लेने की आवश्यकता नहीं थी अपितु युक्ति(reason) और तर्क(logic) से जिसे प्रमाणित किया जा सकता था। जिस प्रकार विज्ञान अपने सिद्धांतों को प्रयोगशाला में प्रमाणित करता है और तब वह सिद्धांत जन-सामान्य को मान्य हो जाते हैं उसी प्रकार भगवान बुद्ध ने स्वयं की आत्म-अनुभूति की प्रयोगशाला में इन सिद्धांतों को जाना-परखा और जन-सामान्य को मान्य हो सके — ऐसी इस भाषा में चार आर्य सत्य की ररूपणा की।

भगवान बुद्ध के धर्म को वैज्ञानिक इसलिए भी कहा जा सकता है क्यूँकि यह किसी भी काल में और किसी भी क्षेत्र के लोगों को मान्य हो सकता है। जैसे विज्ञान के सिद्धांत को किसी भी काल-क्षेत्र की मर्यादा में नहीं बांधा जा सकता उसी प्रकार भगवान बुद्ध द्वारा प्रारूपित चार आर्य सत्य को किसी जाति, काल, क्षेत्र आदि की मर्यादित सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता।

चार आर्य सत्य क्या हैं?

भगवान बुद्ध द्वारा उद्घघाटित ‘सत्य’ को ‘आर्य सत्य’ के नाम से जाना जाता है। यहाँ आर्य का अर्थ ‘श्रेष्ठ’ है। अर्थात् बुद्ध के चार सिद्धांत जीवन के ‘श्रेष्ठ सत्य’ हैं। इसका यह अर्थ भी माना जाता है कि ये ‘सत्य’ आर्य(श्रेष्ठ) पुरुष द्वारा उपदिष्ट हैं। बौद्ध-काल में ‘आर्य’ शब्द किसी जाति का सम्बोधन नहीं करते हुए शालीनता और सभ्यता के प्रतीक धे और इसीलिए भगवान बुद्ध के प्रमुख सूत्रों को ‘चार आर्य सत्य’ के नाम से प्रसिद्धि मिली।

प्रथम आर्य सत्य : दुःख है

भगवान बुद्ध ने अपने जीवन के प्रत्यक्ष बहाव और निज-अनुभव के आधार पर प्रथम आर्य सत्य की उद्घोषणा यह की कि यदि हम जीवन के बाह्य स्वरूप में उलझे हुए हैं तो वहाँ मात्र दुःख ही है। जन्म, ज़रा, मृत्यु, चिंता, संताप, व्यग्रता, कष्ट, प्रिय का वियोग और अप्रिय का संयोग — ये सभी दुःख के प्रकार हैं। चाहे ढाई हज़ार वर्ष पहले का समय हो या अभी, परंतु इन सभी मन:स्थितियों से मनुष्य तब भी जूझ रहा था और आज भी इनसे दूर रहने की हर नाकाम कोशिश कर रहा है। भगवान बुद्ध के बताए मार्ग पर चलने के लिए प्रथम निर्णय अनिवार्य है कि जीवन में दुःख है और हमारी सभी कोशिशें वर्तमान और भविष्य में दुःख से दूर रहने की ही हैं।

दूसरा आर्य सत्य : दुःख का कारण है

यहीं से भगवान बुद्ध के विज्ञान पूर्ण बोध का आरम्भ होता है। यदि जीवन में दुःख का प्रत्यक्ष अनुभव है तो अवश्य ही इस दुःख का कोई कारण भी होना चाहिए। और यहीं से भगवान बुद्ध के दूसरे आर्य सत्य को मानने वाले लोगों का दो प्रमुख बहदों में विभाजन हो जाता है। जो मनुष्य दुःख का कारण स्वयं के बाहर मानते हैं यानि वस्तु, व्यक्ति, स्थिति, कर्म आदि को दुःख का कारण मानते हैं वे सभी मनुष्य अभी संसारी ही हैं परंतु जो इस दुःख का कारण स्वयं के भीतर मानते हैं जैसे कि स्वयं की मान्यता, स्वरूप का अज्ञान, अविद्या आदि — तो वे सभी मनुष्य ‘साधक’ हैं। मनुष्य को वर्षों के सत्संग और सगुरु के बोध के पश्चात् यह निश्चय हो पाता है कि दुःख का कारण बाहर नहीं, स्वयं के भीतर है। जब तक मनुष्य को यह निश्चय नहीं होता तब तक दुःख-निवृत्ति के सभी प्रयास निष्फल ही रहते हैं।

तीसरा आर्य सत्य : दुःख के कारण का निवारण है

दुःख के कारण का यथार्थ निर्णय हो जाने के पश्चात् अब साधक आगे की यात्रा में प्रवेश करता है जहाँ किसी सद्गुरू से मिलने पर उसे दृढ़ निर्णय होता है कि दुःख के आंतरिक कारणों का निवारण किया जा सकता है। यदि यह विश्वास ही न हो तो साधक द्वारा की हुई सभी साधना व्यर्थ है। इसलिए भगवान बुद्ध ने तीसरे आर्य सत्य में ‘श्रद्धा’ को प्रधान स्थान दिया। साधक में जब तक मार्गदर्शक और मार्ग के प्रति सम्पूर्ण निष्ठा नहीं आती तब तक दुःख से निवृत्ति संभाव नहीं है।

चौथा आर्य सत्य : दुःख निवारण का मार्ग है

किसी भी क्षेत्र और काल में जब सम्यक् संबुद्ध चेतना पर श्रद्धा की दृढ़ भूमिका बनती है तो वहीं से मार्ग का शुभारम्भ होता है। भगवान बुद्ध के समय में इसे ‘अष्टांग मार्ग’(Eight Fold Path) के नाम से जाना गया। वैसे इस मार्ग को बुद्ध के ‘त्रिरत्न’ के नाम से भी पहचाना जाता है परंतु प्रज्ञा, शील और ध्यान के इन्हीं त्रिरत्न का विस्तार है अष्टांग मार्ग। यह अष्टांग मार्ग मनुष्य को दोनों प्रकार की अति में नहीं जाने के लिए सावधान करता है इसलिए इसे ‘मध्यम-मार्ग’ भी कहा जाता है।

सामान्यतः मनुष्य या तो अति-भोग में प्रवृत्त रहता है या फिर अति-त्याग में उलझ जाता है। भगवान बुद्ध ने कहा कि मार्ग दोनों ही अतियों में नहीं है परंतु ‘मध्य’ में है। इस ‘मध्य’ का निर्णय साधक ठीक से ले सके उसके लिए बुद्ध ने ‘अष्टांग मार्ग’ का उपदेश दिया। ये अष्टांग मार्ग इस चित्र में आलेखित है -

Buddha’s Dharma Chakra (The Eight-Fold Path)

अष्टांग मार्ग — एक साधक की विचार-दिशा

भगवान बुद्ध द्वारा उपदेशित अष्टांग मार्ग ही आगे चल कर धर्म-चक्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह अष्टांग मार्ग मनुष्य को सही-ग़लत का निर्णय कर के सम्यक् मार्ग का चुनाव करने का उपदेश देता है। बुद्ध के सम्पूर्ण मार्ग में कहीं भी किसी भी क्रिया-कांड का आग्रह नहीं है परंतु सम्यक् विचारणा की ही प्रमुखता है। चूँकि विचारों की सत्ता, शारीरिक कर्म की सत्ता से कई अधिक सूक्ष्म है इसलिए बुद्ध के बताए मार्ग पर चलने से सूक्ष्म स्तर पर फ़ेरफ़ार होता है जो साधक के जीवन को शाश्वत आंतरिक दशा प्रदान करता है।

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Sri Guru
Bliss of Wisdom

Founder of Shrimad Rajchandra Mission, Delhi, She is a mystic, a yogi and a visionary Spiritual Master who is guiding seekers on their Spiritual Journeys…