‘डेमोग्राफिक डिविडेंड’ से ‘एन्थ्रोपोसीन’ तक: न्यू इंडिया का स्याह चेहरा
अभिषेक श्रीवास्तव
दिसंबर में भारत के तीन बड़े राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजे आए। मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनावों को 2019 के आम चुनाव के सेमिफाइनल के रूप में देखा गया और बहुत चर्चाएं हुईं। परिणाम आने के कोई हफ्ते भर बाद तक सियासी चर्चाओं का बाजार गरम रहा। फिर अचानक सोशल मीडिया पर एक वीडियो आया। कहां से आया, किसने बनाया, यह स्पष्ट नहीं है। इस वीडियो में एक पत्रकार महिला माइक लेकर युवाओं से सवाल कर रही है कि मध्यप्रदेश का अगला ‘राष्ट्रपति’ कौन होगा। दिलचस्प जवाब आए जिन्हें सुनकर आपका भरोसा इस देश की शिक्षा पद्धति से उठ जाए। फिर वह दिल्ली और यूपी के राष्ट्रपति के बारे में भी पूछने लगी। कोई दो दर्जन युवाओं ने अलग-अलग जवाब दिए, लेकिन एक से भी ऐसा जवाब सुनने को नहीं मिला कि सवाल गलत है। एंकर ने जवाब सुनकर मेज़ पर सिर पटक लिया और बोला- ‘’क्या हो रहा है इस देश में? कोई एम्बुलेंस बुलाओ।‘’
जिस आयुवर्ग के युवाओं ये सवाल पूछे गए थे, उसके लिए पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान चीख-चीख कर एक शब्द का खूब धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया था- ‘’डेमोग्राफिक डिविडेंड’’। चार साल पहले भाजपा प्रवक्ताओं की जबान पर यह शब्द चढ़ा हुआ था। आज इसकी बातें कम होती हैं। ‘’डेमोग्राफिक डिविडेंड’’ से आशय युवावर्ग की उस आबादी के साथ है जिसकी संख्या इस देश की आबादी का करीब पैंसठ फीसदी है। नरेंद्र मोदी अपनी चुनावी रैलियों में गिनाते नहीं थकते थे कि देश की 65 फीसदी आबादी उन युवाओं की है जिनकी उम्र 18 से 35 साल के बीच है। इसे वह देश के लिए आर्थिक उत्पादकता के संबंध में फायदेमंद बताते थे। यह जनांकिकीय स्थिति बेशक आज भी कायम है और आंकड़ों के मुताबिक भारत का डेमोग्राफिक डिविडेंड 2020 में अपने चरम स्तर पर पहुंच जाएगा जब अधिसंख्य कार्यबल की औसत उम्र 28 वर्ष के कांटे पर आकर ठहर जाएगी।
सवाल है कि 2019 में नरेंद्र मोदी की सरकार रहे या जाए, इस देश का युवा 2020 में क्या कर रहा होगा? ऊपर जिस टीवी इंटरव्यू का जिक्र आया, उसके हिसाब से देखें तो युवाओं की सामान्य अभिरुचि और जानकारी का स्तर बहुत भयावह तस्वीर प्रस्तुत कर रहा है। आखिर वह कौन सा श्रम बाजार होगा जो ऐसे शिक्षित युवाओं को अपने भीतर समाहित कर पाएगा जिन्हें राज्य के मुख्यमंत्री, देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का फर्क नहीं पता? प्रधानमंत्री मोदी ने सत्ता में आने के पहले हर साल दो करोड़ रोजगारों के सृजन की बात कही थी। इसके हिसाब से अब तक आठ करोड़ से ज्यादा रोजगार पैदा हो जाने चाहिए थे। इस बारे में एक सवाल पूछे जाने पर उन्होंने जवाब दिया कि रोजगार सृजन के आंकड़े पता करने की विधि सरकार के पास नहीं है। इस सरकार का कार्यकाल आज जब पूरा हो रहा है, तो उनके वादों की पोल खुलती जा रही है।
चिंता वादों के टूटने की नहीं है। वादे तो टूटने के लिए ही किए जाते हैं और भारतीय राजनीति में चुनावी वादों को वैसे भी कोई गंभीरता से नहीं लेता। चिंता इस बात की ज्यादा है जो युवा आबादी शैक्षणिक परिसरों से निकल कर बाहर आ रही है, उसमें रोजगार पाने का सामर्थ्य कितना है। जिस तरीके से उच्च शिक्षा के संस्थानों को चुन-चुन कर इस सरकार में निशाना बनाया गया है, गरीब पिछड़े छात्रों के वजीफे रोके गए हैं, प्रवेश में धांधली हुई है, आरक्षण पर मार पड़ी है और परिसरों का माहौल असुरक्षित व अस्वस्थ बनाया गया है, कौन मां-बाप अपने बच्चों को मरने के लिए इन परिसरों में भेजना पसंद करेगा। इसका सीधा परिणाम हमें सड़कों पर देखने को मिल रहा है जहां युवा आबादी किसी न किसी रंग का झंडा लगाकर मोटरसाइकिलों पर धड़ल्ले से नारे लगाते घूम रही है। रोजगार नहीं है तो क्या फिक्र, जब तक यह सरकार है तब तक उसका दिया रोजगार है- किसी भी असहमत को मारना, पीटना, जिंदा जला देना, दंगा करवा देना, इत्यादि। बुलंदशहर सहित कुछ के हालिया दंगों में हम दंगाइयों के चेहरे देख चुके हैं। वे सब इस देश का डेमोग्राफिक डिविडेंड हैं।
हाल के दिनों में दिल्ली की एक एजेंसी एस्पायरिंग माइंड्स ने डेढ़ लाख इंजीनियर स्नातकों के बीच एक सर्वेक्षण किया तो पाया कि महज 7 फीसदी ही रोजगार पाने के लायक हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि 2018 में भारत में बेरोजगारी एक करोड़ 86 लाख तक पहुंच जाएगी जो कि 2017 के स्तर एक करोड़ 83 लाख से तीन लाख ज्यादा है। विश्व बैंक ने खुद अपनी एक रिपोर्ट में भारत को चेताया है कि रोजगार दर मौजूदा स्तर पर कायम रखने के लिए उसे हर साल 81 लाख रोजगार पैदा करने होंगे। इधर दूसरी ओर श्रम बाजार की सूरत यह है कि 2019 तक आइटी क्षेत्र में तकनीकी विशेषज्ञों की नौकरियों में पांच फीसदी की गिरावट आ जाएगी। 2021 तक 40 फीसदी आइटी स्टाफ एक से ज्यादा भूमिकाओं में होगा, जिसमें ज्यादातर भूमिका कारोबार संबंधी होंगी, प्रौद्योगिकी संबंधी नहीं।
रोजगार के अलग-अलग क्षेत्रों में घट रही नौकरियों और बढ़ते आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के अलावा जो सबसे बड़ी समस्या बेरोजगारी के पीछे है, वह प्रतिभाओं की घोर कमी है। प्रतिभाओं की बात भी छोड़ दें, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री जैसे सामान्य सवालों में फेल हो जाने वाले युवाओं से किस किस्म के काम की उम्मीद की जा सकती है, यह गंभीर सवाल है। यही वजह है कि हर साल भारत में स्नातक कर के निकलने वाले पचास लाख छात्रों में से केवल 20 फीसदी को ही रोजगार मिल पाता है। यह आंकड़ा पिछले साल प्रकाशित एसोचैम की रिपोर्ट का है।
इस भयावह स्थिति में एक और आयाम जुड़ गया है जिस पर अभी बात नहीं हो रही। जन स्वास्थ्य की यशस्वी अंतरराष्ट्रीय पत्रिका लान्सेट ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसमें कहा गया है कि 2017 में दुनिया भर में गर्मी बढ़ने से 153 अरब काम के घंटों का नुकसान हुआ है। इसमें अस्सी फीसदी वक्त कृषि क्षेत्र का है। चौंकाने वाली बात यह है कि इसका आधा नुकसान अकेले भारत को उठाना पड़ा है जो यहां की कुल कामगार आबादी के 7 फीसदी के बराबर बैठता है। जलवायु परिवर्तन के इस आयाम को व्यापक बेरोजगारी के मंज़र के साथ जोड़ दिया जाए तो डेमोग्राफिक डिविडेंड पर किए गए तमाम अर्थशास्त्रीय दावों की हवा निकल जाती है।
एजा़ज़ ग़नी विश्व बैंक में लीड इकनॉमिस्ट हैं। वे लिखते हैं कि 2020 में भारत में अधिसंख्य आबादी की औसत आयु 28 वर्ष होगी। इसमें अब एक साल बाकी है। समझिए कि इस वक्त देश की कोई पैंसठ फीसदी आबादी 27 साल की हो चुकी है। यह उम्र कॉलेज और विश्वविद्यालय की पढ़ाई पूरी करने के बाद की है। इनमें कुछ ही होंगे जो परिसरों में अब भी शोधछात्र होंगे। कुछ ऐसे होंगे जो रोजगार बाजार का हिस्सा होंगे। ज्यादातर सड़कों पर होंगे। एक अंदाज से देखिए तो इन युवाओं की पिछले पांच साल के दौरान जो पढाई हुई होगी, वह सांप्रदायिकता की चपेट में आ चुके उच्च शिक्षण संस्थानों से प्रभावित रही होगी। यदि ऐसा न भी हो, यह मानते हुए कि ज्यादातर युवा निजी संस्थानों से पढ़कर निकले हैं, तो यह वही आबादी है जिसने 2014 में पहली बार मताधिकार का प्रयोग किया था यानी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया था और यही वर्ग उन्हें बीते पांच साल से फॉलो कर रहा है।
आसानी से समझा जा सकता है कि एक राष्ट्र के बतौर भारत, इसके समाज, इसके तानेबाने, इसके विचार और संस्कृति को लेकर इन युवाओं का सामूहिक सोच किस खाद पानी से सिंचित हो रहा होगा। जाहिर तौर से इनके सोच में कांग्रेस विरोध पूर्वग्रह जड़ जमाए हुए होगा। ये या तो भाजपा-संघ की सांप्रदायिक राजनीति से संचालित होंगे या फिर नए दौर के स्वयं स्फूर्त व अराजक आंदोलनों से अनुप्राणित होंगे और ऐसे आंदोलनों के पीछे चले जाने के कारण एक स्तर पर मोहभंग की अवस्था में भी पहुंच चुके होंगे। क्या इस आबादी से कोई सार्थक उम्मीद की जानी चाहिए? क्या यह आबादी धीरे-धीरे सभी लोकतांत्रिक संस्थानों को निगल जाने पर आमादा दक्षिणपंथी सरकारों को दोबारा मौका देकर कुल्हाड़ी पर अपने पांव मारेगी या फिर कांग्रेस विरोध के पालने में पोषित होने के चलते अगली बार मतदान से तौबा करेगी और नोटा दबाएगी? इस डेमोग्राफिक डिविडेंड द्वारा 2019 में लिया गया राजनीतिक निर्णय ही इस बात को मोटे तौर पर तय करेगा कि आने वाले भारत की तस्वीर कैसी होगी।
नई कहानी, पुराने किरदार
हर कोई न्यू इंडिया की बात कर रहा है। नए भारत का सपना हमें रोज़-ब-रोज दिखाया जा रहा है। कोई पूछे राहुल गांधी से या अखिलेश यादव से या मायावती से या विपक्ष के किसी भी नेता से कि उनका नए भारत का सपना क्या है और किस पर टिका है। भाजपा को लेकर तो कम से कम इस बात की स्पष्टता है कि उसके पास अपने मातृ संगठन आरएसएस का दिया एक प्रोजेक्ट है हिंदू राष्ट्र का, जिसके लिए संघ बिना रुके और बिना थके नब्बे साल से कवायद में जुटा है। जाहिर है संघ को जब सौ साल 2025 में पूरे होंगे, तो उसके मन में भी उम्मीद होगी होगी कि लगे हाथ प्रोजेक्ट को अंतिम रूप दे दिया जाए। इसके लिए भाजपा का केंद्र की सत्ता में बने रहना अनिवार्य और अपरिहार्य है। यहां थोड़ा ठहर कर 2013 मे कोलकाता में संघ द्वारा बुलाए गए पत्रकारों और संपादकों के एक सम्मेलन के समापन पर मोहन भागवत के कहे को याद किया जाना चाहिए। उन्होंने चलते-चलते कोई ढाई सौ पत्रकारों और संपादकों से कहा था, ‘’अभी नहीं तो कभी नहीं। इस बार हम नहीं जीते तो समझिए पचास साल पीछे चले जाएंगे।‘’ मीडिया ने तदनुसार उनकी जीत तय करने में अपनी जान झोंक दी।
अब, जबकि संघ और भाजपा अपने सपने को साकार करने के इतने करीब आ गए है तो क्या आपको लगता है कि वे इतनी आसानी से सामने रखी थाली को यूं ही फिसल जाने देंगे। ऐसा कतई नहीं होगा। संघ येन केन प्रकारेण चाहेगा कि 2019 में भाजपा की सरकार ही बने। बाकी विपक्ष ऐसा नहीं होने देना चाहेगा। एक बार को मान लें कि विपक्ष किसी तरह मिलजुल कर भाजपा को केंद्र की सत्ता से बेदखल कर भी देता है, तो उसके पास इस देश की समस्याओं से निपटने का क्या खाका होगा? कांग्रेस सहित पूरे विपक्ष के पास इस देश को लेकर कौन सा प्रोजेक्ट है? आज की तारीख में कह सकते हैं कि यह प्रोजेक्ट भाजपा को हटाने का है, लेकिन उसके बाद? भाजपा ने अपने पांच साल के राज में डेमोग्राफिक डिविडेंड के साथ जैसा खिलवाड़ किया है, उसे उलटने का कोई नैरेटिव विपक्ष के पास है? फिलहाल दूर दूर तक ऐसा कुछ नहीं दिखता।
इस बात को लेकर मन में कोई संदेह नहीं रहना चाहिए कि कल का भारत चाहे जैसा हो, उसकी तस्वीर पैंसठ फीसदी युवा ही तय करेगा। ध्यान रहे ये वह युवा है जो बाबरी विध्वंस और नवउदारवाद की पैदाइश है। इसके पास सामूहिकता और सहकारिता के मूल्य नहीं हैं। इसने सांप्रदायिक राजनीति के उभार में आंखें खोली हैं। इसने सेकुलर को सीखने से पहले सूडो-सेकुलर को आत्मसात कर लिया है। इस युवा की पीठ पर नैतिकता की कोई गठरी नहीं लदी है, न ही विचारों का कोई इतिहास है। इसके नुकसान तो कई हैं लेकिन दो अहम फायदे भी हैं। एक तो यह युवा किसी भी नई चीज़ के प्रति खुला है। दूसरे, यह काफी महत्वाकांक्षी है। ध्यान रहे कि नरेंद्र मोदी ने इसी महत्वाकांक्षा को हवा 2014 के चुनाव प्रचार में हवा दी थी और युवा आबादी ने उन्हें सिर पर बैठा लिया था। संयोग नहीं कि यही वह युवा है जिसने 2014 के चुनाव से पहले अन्ना के आंदोलन में अपनी ऊर्जा का निवेश किया था और पूरे देश में इसने अरविंद केजरीवाल को भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का पोस्टर ब्वाय बना दिया था। इस वर्ग की ऊर्जा अशेष है, दिक्कत यह है कि इसे सब कुछ एक झटके में चाहिए। यदि इच्छित उसे नहीं मिला तो यह पलट सकता है। खुद को भी और सत्ताओं को भी। और ऐसा करने के लिए न तो सामान्य ज्ञान की जरूरत है, न ही किसी रोजगार की। इसके हाथ में स्मार्टफोन और डेढ़ जीबी प्रतिदिन का फ्री डेटा वह नया औजार है जिससे यह मुल्क को किसी भी दिशा में ले जा सकता है।
भाजपा और संघ इस ताकत का इस्तेमाल अपने हिंदू राष्ट्र के प्रोजेक्ट में कर सकते हैं। इसके लिए उनके पास बरगलाने के कई साधन व तरीके हैं। गैर-भाजपा गठबंधन के पास इन्हें भेडो की तरह सांप्रदायिकता में ठेलने का कोई प्रोजेक्ट नहीं है, यह बेहतर बात हो सकती है लेकिन कोई सकारात्मक दिशा भी नहीं है जो इसे दी जा सके। कुल मिलाकर जो तस्वीर सामने दिखती है वह बडे पैमाने पर व्यवस्थागत अराजकता का पता देती है। यह अराजकता अतीत के अराजकतावादी आंदोलनों से बिलकुल अलहदा हो सकता है। अराजकतावाद एक राजनीतिक विचारधारा के बतौर हमेशा से वाम के पक्ष में झुका रहा है। नए दौर का अराजकतावाद इसके ठीक उलट दक्षिणमुखी होगा। इसे अराजकतावाद कहना भी ठीक नहीं है क्योकि यह कोई सुविचारित सुपरिभाषित सैद्धांतिकी से नहीं निकल रहा और इसका कोई लक्षित ध्येय भी नहीं है। व्यापक मोहभंग और लोकतांत्रिक संस्थाओं के क्षरण की सूरत में यह अराजकता संगठित रूप नहीं ले पाएगी बल्कि छिटपुट उभारों और हिंसात्मक कार्रवाइयों खुद को अभिव्यक्त करेगी। इस अराजकता का निशाना कोई भी हो सकता है, लेकिन बहुत संभव है कि व्यवस्था के स्तर पर दक्षिणपंथी प्रवृत्तियों के वर्चस्व के दौर में इसके शिकार की निशानदेही वे अस्मितावादी आंदोलन करें जो धर्म, जाति, क्षेत्र, नस्ल, भाषा और लिंग के आधार पर अपनी राजनीति चमकाते हैं।
इसके दो हालिया उदाहरण देना मौजूं होगा। कुछ दिनों पहले गुजरात से उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को मार-मार कर भगाए जाने की खबरें आई थीं। यह आंदोलन चलाने वालों का मानना था कि बाहरी लोग उनके अवसरों और रोजगारों को हड़प रहे हैं। जब मध्यप्रदेश में दिसंबर में कमलनाथ ने शपथ ली, तो उन्होंने भी शुरुआती बयान कुछ ऐसा दिया जिससे यह अहसास पैदा हुआ कि उन्हें अपने सूबे में उत्तर प्रदेश के प्रवासियों के रोजगार से दिक्कत है। इस पर थोडा विवाद भी हुआ। ध्यान देने वाली बात है कि पहली घटना और दूसरा बयान दो विपक्षी दलों के राज वाली सरकारों से निकल रहे हैं। इससे एक बात यह समझ में आती है कि पहचान या अस्मिता की राजनीति राज करने वाले दल का मुंह नहीं देखती। सत्ता में कांग्रेस हो या बीजेपी या कोई और, पहचान की राजनीति हमेशा सत्ता के अनुकूल होती है क्योंकि सत्ता का मूल चरित्र फासिस्ट होता है। ऐसे में हम यह मानकर चलते हैं कि संघ ने पांच साल में देश भर में जो ज़हर बोया है, उसकी फसल तो कटनी ही है। संघ/बीजेपी का राज रहा तो फसल हिंदू राष्ट्र की होगी। कांग्रेस आदि का राज रहा तो फसल अराजकता की होगी।
दूसरा उदाहरण लें मीटू नाम के एक लैंगिक आंदोलन का, जिसे बडे पैमाने पर विदेशी फंडिंग प्राप्त है और जिसकी दूसरी लहर में बड़े-बड़े सूरमा बह गए। यहां तक कि एमजे अकबर जैसे संपादक और केंद्र सरकार के मंत्री को आरोपों में घिरकर इस्तीफा देना पडा। जिन शख्सियतों पर लैंगिक उत्पीड़न के आरोप लगे, ध्यान दें उनमें वाम और दक्षिण दोनों ही खेमों के लोग थे। यह कोई वैचारिक खांचे में बंटा आंदोलन नहीं था बल्कि बेहतर कहें तो यह एक लिंग विशष की ओर से विचारधारा निरपेक्ष संगठित हमला था जहां मुकदमा, सुनवाई और फैसले से पहले ही आरोप के आधार पर फतवा जारी कर देने को स्वीकार्य कर दिया गया और इस तरह बड़ी आसानी से न्यायपालिका नाम की संस्था को अप्रासंगिक बना दिया गया। कुछ आरोपियों ने मौके की नजाकत समझ कर माफी मांग ली। कुछ ने शिकायत पर मुकदमा करवा दिया। कुछ और चुप होकर बैठ गए। नोएडा में एक कॉरपोरेट कंपनी के वाइस प्रेसिडेंट स्वरूप राज ने फांसी से लटक कर जान दे दी क्योंकि उसका मानना था कि अगर वह निर्दोष साबित होता भी है तो समाज उसे अपराधी की निगाह से ही देखेगा।
गुजरात वाले उदाहरण में हम देखते हैं जनता के हक हुकूक की रक्षा करने में विधायिका और कार्यपालिका अप्रासंगिक हो जाते हैं। मीटू में हम समानांतर न्याय प्रणाली को बनता देखते हैं। यह अराजकता नहीं तो और क्या है? जब व्यवस्था के स्थापित अंग अपना काम करने में विफल रहें और उनके समानांतर एक नई व्यवस्था खड़ी हो जाए, तो यह अराजकता की मूल पहचान होती है। जिस नए भारत का वादा हमसे किया गया है, उसकी कहानी बेशक बिलकुल नई होगी- ऐसी जिसे आज तक देखा-सुना नहीं गया- लेकिन उसके किरदार पुराने ही होंगे। वही डेमोग्राफिक डिविडेंड जो भारत को विश्व गुरु बना सकता था, इस देश की नींव को खोदने के काम आने वाला है।
एक और न्यू नॉर्मल
भारत की स्थिति अपने आप में कोई विशिष्ट नहीं है। दुनिया भर की राजनीति आपस में जुड़ चुकी है। तीन साल पहले विदेशी पत्रिका दि इकनॉमिस्ट ने दुनिया भर में दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी सत्ताओं के उभार पर एक कवर स्टोरी की थी। बाद में कई अंकों में सिलसिलेवार इस पत्रिका ने प्रवासी समस्या और ब्रेग्जिट के मायम से यह बताने की कोशिश की कैसे योरप में दक्षिणपंथ और अतिदक्षिणपंथ के बीच ही राजनीतिक चुनाव बचा रह गया है। यह वाकई संयोग नहीं हो सकता कि ट्रम्प, मोदी, एर्दोगन, शिंजो आबे, मेरी ली पेन जैसे तमाम दक्षिणपंथी नेता एक साथ एक ही समय में सियासत के क्षितिज पर उभर आए हैं। यहां तक कि फ्रांस में जिस मैक्रां का स्वागत उदारवादी वेहरा मानकर किया गया था, वह दक्षिणपंथियों से भी ज्यादा दाहिने लेट गया।
यह एक चक्र है। 2008 की आर्थिक मंदी के बाद लोकरंजक दक्षिणपंथी सत्ताओं का उभार होना शुरू हुआ। अभी इस प्रक्रिया को महज एक दशक हो रहे हैं। यह इतनी जल्दी थमने वाली नहीं है। बहुत संभव है कि आगे भारत में या अन्यत्र सत्ता में सीधे कोई कंजर्वेटिव या रूयढि़पंथी दल न हो लेकिन उदारपंथ का मुखौटा लगाया मध्यमार्गी दल क्लासिकल दक्षिणपंथ से कहीं दक्षिणपंथी साबित होने की कुव्वत रखेगा। ऐसा इसलिए क्योंकि रोजगारों के अकाल के दौर में बडी युवा आबादी को बहलाए फुसलाए रखने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी निभाने का और कोई रास्ता नहीं है, जबकि सत्ताओं के पास रोजगार संकट का कोई व्यावहारिक समाधान भी न हो। इसी तरह कृषि से जुड़ी बड़ी आबादी के संकट का सत्ताओं के पास कोई हल नहीं है। गांवों से शहरों की ओर हो रहे पलायन और बड़ी मात्रा में बन रही झुग्गियों व पैदा हो रहे मजदूरों को खपाने का कोई मंत्र किसी के पास नहीं है। ये सारे संकट एक साथ इसलिए पैदा हुए हैं क्योंकि पूंजीवाद पले से कहीं ज्यादा संघन संकट में घिर गया है। आज से दस साल पहले जो आर्थिक संकट आया था वह केवल कागजों और बहीखातों तक सीमित था। बहीखाते को दुरुस्त करने के चक्कर में पूंजीपतियो ने जिस तरह जल, जंगल और जमीन जैसे कुदरती संसाधनों की खरीद-फरोख्त शुरू की, उसने पारिस्थितिकी का मूल संतुलन ही बिगाड़ दिया। दस साल में इस दुनिया में मानवता ने जो नुकसान झेला है, वह अप्रतिम है लेकिन अब भी हमें स्थितियां यदि सामान्य दिख रही हैं तो यही न्यू नॉर्मल है। इस न्यू नॉर्मल के आगे का न्यू नॉर्मल कहां आएगा, हम नहीं जानते।
सन 2000 में नोबेल पुरस्कार विजेता रसायनशास्त्री ने एक शब्द का ईजाद किया था- एन्थ्रोपोसीन। इस शब्द का अर्थ धरती पर वह हालिया अवधि है जो इंसान के हस्तक्षेप से संभव हुई है, जहां इस बात के पर्याप्त साक्ष्य मिल चुके हैं कि मनुष्य ने धरती की पारिस्थितिकीय सतहों के साथ छेड़छाड़ की है, दोहन किया है और उन्हे बरबादी के कगार पर ला छोड़ा है। माना जा रहा है कि एन्थ्रोपोसीन की यह अवधि अब समाप्त होने वाली है। इसका अर्थ यह है कि मनुष्य ने इस धरती के साथ और अपने साथ जो कुछ भी गड़बड़ की है, उसने हमें वजूद की मुंडेर पर ला खड़ा किया है। यहां से आगे का रास्ता आत्महत्या है। सामूहिक आत्महत्या।
कुछ लोग आत्महत्या की इस थियरी से मुतमईन नहीं हैं। वे मानते हैं कि धरती के पास असीमित संसाधन हैं। इसके पास हमें देने के लिए अथाह है। इसके ठीक उलट कुछ विचारकों का मानना है कि ऐसा बेशक था लेकिन हमने उस असीम और अथाह को सीमित कर डाला है। इसलिए हमने दरअसल सभ्यता और विकास के नाम पर लगातार अपनी कब्र खोदने के अलावा और कोई सार्थक काम नहीं किया। इसी का नतीजा है कि अब लगातार बाढ़ आती है, जंगलों में आग लगती है, खूब गर्मी पड़ती है और कड़ाके की ठंड पड़ती है। इसी के चलते लगातार भूकंप आते हैं। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा क पिछले साल के एक महीने अक्टूबर से नवंबर के बीच गुजरात के कच्छ में कोई 45 बार बड़े-छोटे भूकंप आए।
जब समूची मानवता ही विनाश के कगार पर खड़ी हो तो अकेले भारत के भविष्य की बात करना बेमानी से ज्यादा कुछ नहीं है। यह एक और न्यू नॉर्मल की स्थिति है जहां हम सब अपनी-अपनी कब्र पर खड़े होकर ज़हरीली हवा में अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं की पतंग ताने दूसरे की कन्नी काटने में भिड़े हुए हैं। ऐसे में रोजगार, न्यू इंडिया या ऐसे ही किसी विषय पर कोई बात करना खुद को छलावा देने से ज्यादा भला और क्या हो सकता है?
संदर्भ सूची
https://www.livemint.com/Opinion/Eo1PgYgUyKl9xgWLrLPwJP/Demographic-dividend-growth-and-jobs.html
(यह लेख युवा संवाद के जनवरी 2019 अंक से साभार प्रकाशित है)