कलम आज उनकी जय बोल
(स्वतंत्रता दिवस की सत्तरवीं वर्षगाँठ पर एक बाल-रूपक प्रस्तुत है. इस रूपक में देशभक्तिपूर्ण गीतों, नज़्मों के माध्यम से गुरु जी अपने विद्यार्थियों को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की कहानी सुनाते हैं. रूपक के विस्तृत होने के कारण इसको तीन भागों में विभाजित किया गया है.)
कलम आज उनकी जय बोल
लेखक: गोपेश मोहन जैसवाल
पात्र:
गुरूजी,
भारती,
स्वतंत्र,
स्वदेश
(प्रथम भाग)
गुरूजी: भारती, स्वतंत्र और स्वदेश ! तुम सबको स्वतंत्रता दिवस की बधाई. आओ आज का शुभ दिन हम मातृ-वंदना से प्रारंभ करें.
(सब मिलकर गाते हैं)
‘वन्दे मातरम्,
सुजलां सुफलां मलयज शीतलाम्
शस्यशामलां मातरम्
शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकितयामिनीं
फुल्ल कुसुमित द्रुमदल शोभिनीं,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीं
सुखदां वरदां मातरम्,
वन्दे मातरम्.’
भारती: गुरूजी ! आज हम ईश्वर वंदना से पहले मातृभूमि की वंदना क्यों गा रहे हैं?
गुरूजी: भारती, ईश-वंदना और मातृभूमि की वंदना कोई अंतर नहीं होता. हमारी मातृभूमि की महत्ता हमारे लिए ईश्वर से कम नहीं है. और आज तो हमारा स्वतंत्रता दिवस है. यह हमारा सौभाग्य है कि हम स्वतंत्र होकर खुली हवा में सांस ले रहे हैं. मातृभूमि की वंदना में हम उन शहीदों के बलिदान को याद करते हुए उन्हें भी अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं जिन्होंने हमको गुलामी की जंजीरों से आज़ाद करने के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों की आहुति दे दी थी.
स्वतंत्र: गुरूजी ! हमारे देश को स्वतंत्र हुए तो सत्तर साल बीत गए हैं फिर अब भी हम अपना स्वतंत्रता दिवस इतने हर्षोल्लास के साथ क्यों मनाते हैं?
गुरु जी: तुम बच्चे सौभाग्यशाली हो कि तुम सब स्वतंत्र भारत में पैदा हुए हो. लेकिन आज़ादी का मोल तो तुम भी भली-भांति समझ सकते हो. तुमने क्या पिंजड़े में क़ैद किसी चिड़िया को नहीं देखा है? पिंजड़े से बाहर निकलने के लिए वो कैसे छटपटाती है? बस, कल्पना करो कि हम अंग्रेजों की गुलामी की ज़ंजीरों से जकड़े हुए थे, न हम अपनी मर्ज़ी से कहीं आ-जा सकते थे, न खुलकर बोल सकते थे, न निर्भय होकर कुछ लिख सकते थे, हमारी मेहनत की लहलहाती फ़सल कोई और काटकर ले जाता था. हमारी सभ्यता और संस्कृति का नित्य अपमान किया जाता था और हम में से अनेक गुलामी के शिकंजे में फंसे-फंसे भूखे ही मर जाते थे.
स्वदेश: गुरु जी, ऐसी तो कल्पना करने में भी मुझको घबराहट हो रही है. क्या अंग्रेज़ इतने बुरे शासक थे? फिर हम आज़ाद कैसे हुए? क्या अंग्रेजों ने हम पर दया करके हमको आज़ाद कर दिया था?
गुरु जी: भीख में मिली आज़ादी भी कोई आज़ादी होती है? हमारे हजारों-लाखों पुरखों ने जेल की काल-कोठरी में यातनाएं सहकर, पुलिस की लाठियां और गोलियां खाकर और ज़ालिम अंग्रेज़ सरकार से 190 साल तक लड़ कर वो आज़ादी हासिल की थी जिसका कि आज हम और तुम सुख भोग रहे हैं.
स्वतंत्र: गुरु जी ! हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन में कुल कितने देशभक्तों ने क़ुरबानी दी थी?
गुरु जी: क्या तुम आकाश में चमकते हुए तारों की सही-सही गिनती कर सकते हो? स्वतंत्रता-प्राप्ति के लिए बलिदान होने वालों में बादशाह, राजा-महाराजा, ज़मींदार साधू-फ़कीर, किसान, मजदूर और सैनिक, व्यापारी, शिक्षक, वक़ील. साहित्यकार, पत्रकार आदि ही नहीं बल्कि स्त्रियाँ और बच्चे भी शामिल थे.
भारती: हमारा स्वतंत्रता आन्दोलन कब प्रारंभ हुआ था?
गुरु जी: मैसूर के टीपू सुल्तान और फिर कित्तूर की रानी चेनम्मा के नेतृत्व में अंग्रेजों के विरुद्ध पहले भी युद्ध हुए थे किन्तु आमतौर हमारे स्वतंत्रता संग्राम की शुरूआत 1857 के विद्रोह से मानी जाती है.
सन् 1857 के विद्रोह की पृष्ठभूमि तैयार करने में उर्दू पत्र ‘पयामे आज़ादी’ ने महत्वपूर्ण निभाई थी. इस पत्र में ही बाग़ी सैनिकों का क़ौमी गीत प्रकाशित हुआ था -
‘हम हैं इसके मालिक, हिन्दुस्तान हमारा,
पाक ( पवित्र ) वतन है क़ौम का, जन्नत से भी प्यारा.
ये है हमारी मिल्कियत ( सम्पत्ति ), हिन्दुस्तान हमारा.
आया फिरंगी दूर से, ऐसा मन्तर मारा,
लूटा दोनों हाथ से, प्यारा वतन हमारा.
आज शहीदों ने है तुमको, अहले-वतन ( देशवासी ) ललकारा,
तोड़ो गुलामी की ज़न्जीरें, बरसाओ अंगारा.
हिन्दु-मुसल्मां, सिक्ख हमारा, भाई प्यारा-प्यारा,
यह है आज़ादी का झण्डा, इसे सलाम हमारा.’
भारती: गुरु जी, झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई भी तो इस विद्रोह की अमर सेनानी थीं. मुझे श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान की उन पर लिखी कविता याद है –
‘सिंहासन हिल उठे, राज-वंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई, फिर से नई जवानी थी,
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुख, हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो, झाँसी वाली रानी थी.’
स्वदेश: गुरु जी, हम स्वतंत्रता सेनानियों में कवियों और शायरों को क्यों शामिल करते हैं? क्या इन्होने भी अंग्रेजों के खिलाफ़ तलवार उठाई थी?
गुरु जी: आज़ादी की लड़ाई सिर्फ़ हथियारों से ही नहीं लड़ी गयी. इसे कलम से भी लड़ा गया और चरखे से भी. हमारे कवियों और शायरों ने अपनी देशभक्ति पूर्ण रचनाओं से हम भारतवासियों की सोयी हुई आत्मा को जगा दिया. तुम लोग यह तो जानते ही होगे कि बंकिमचन्द्र चटर्जी ने ‘आनंदमठ’ उपन्यास में हमको ‘वन्दे मातरम्’ गीत दिया था और गुरुदेव टैगोर ने बंगाल विभाजन के विरोध में ‘आमार सोनार बांग्लादेश’ लिखा था.
भारती: यह गीत तो बांग्लादेश का राष्ट्रगान है.
स्वतंत्र: गुरु जी, ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूँगा’ यह किसने कहा था?
गुरु जी: लोकमान्य तिलक की यह हुंकार हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के लिए उनके जीवन का लक्ष्य बन गयी थी -
‘निकल पड़ो अब बनकर सैनिक, भंग करो फ़रमानों का,
बिन स्वराज के नहीं उठेंगे, कौल रहे मर्दानों का.
अंधी होकर पुलिस चलावे, डंडे कुछ परवाह नहीं,
घर का माल लूट ले जावें, निकले मुहँ से आह नहीं.
धनी वैश, रिपु-दास, नपुंसक, लखें दृश्य बलिदानों का,
बिन स्वराज के नहीं उठेंगे, कौल रहे मर्दानों का.’
स्वदेश: गुरु जी, सुना है कि हमारे आन्दोलनकारी चौराहों पर विदेशी कपड़ों की होली जलाते थे. इस से तो अच्छा था कि वो विदेशी कपड़े और अन्य विदेशी सामान गरीबों में बाँट देते.
गुरु जी: तुम्हारा कहना एक हद तक सही है पर विदेशी वस्तुओं को सार्वजनिक स्थानों पर जलाकर जो आत्मनिर्भर होने का सन्देश देशवासियों तक पहुँचता था, वह फिर उन तक नहीं जा पाता. इसीलिए गाँधी जी ने चरखे का उपयोग भगवान श्री कृष्ण के सुदर्शन चक्र की तरह किया था — ‘धर्म संस्थापनार्थाय, विनाशाय च दुष्कृताम.’
पंडित सोहनलाल द्विवेदी के इस गीत में तुम्हें चरखे और खादी की महत्ता के विषय में पता चलेगा -
‘खादी के धागे-धागे में, अपनेपन का अभिमान भरा,
माता का इसमें मान भरा, अन्यायी का अपमान भरा.
खादी ही भर-भर देशप्रेम का, प्याला मधुर पिलाएगी,
खादी ही दे दे संजीवन, मुर्दों को पुनः जिलाएगी.’
भारती: गुरु जी, क्या स्वतंत्रता आन्दोलन में महिलाओं ने भी भाग लिया था?
गुरु जी: गाँव-गाँव, क़स्बे-क़स्बे और शहर-शहर, क्या पढी-लिखी और क्या अशिक्षिता, हज़ारों-लाखों महिलाओं ने एक ओर स्वयं स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लिया था और दूसरी ओर अपने घर के पुरुषों को इसमें भाग लेने के लिए प्रेरित किया था. श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान ने नारी-शक्ति को नमन करते हुए यह आशा की थी कि देश की समस्त पन्द्रह करोड़ नारियां गांधीजी की असहयोगनियां बनेंगी और भारत के सौभाग्य को लौटाने तथा रावण के शासन जैसे अत्याचारी ब्रिटिश शासन के विनाश का कारण बनेंगी -
‘पन्द्रह करोड़ असहयोगिनियां,
दहला दें ब्रह्माण्ड सखी !
भारत लक्ष्मी लौटने को,
रच दें लंका काण्ड सखी !’
स्वतंत्र: गुरु जी, गांधीजी और क्रांतिकारियों के आज़ादी हासिल करने के रास्ते तो अलग-अलग थे फिर हम दोनों को ही देशभक्त क्यों मानते हैं?
गुरु जी: इनके रास्ते ज़रूर अलग-अलग थे लेकिन इनकी मंज़िल तो एक ही थी. शायर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल स्वयं गाँधी जी के ‘स्वदेशी’ और ‘असहयोग’ के मन्त्र के उपासक थे. वो कहते हैं -
‘सुदर्शन चक्र चर्खे को, अगर सब हाथ में ले लें,
भयानक तोप गोरों की, यहाँ बेकार हो जाए.
न बेचें जो रुई अपनी कभी हम ग़ैर के हाथों,
बनाना वस्त्र का उनको, बहुत दुश्वार हो जाए.’
भारती: गुरु जी, क्रांतिकारियों को ‘सरफ़रोशी की तमन्ना’ नज़्म बहुत प्रिय थी. यह नज़्म किसने लिखी थी?
गुरु जी; इस नज़्म को बिस्मिल अज़ीमाबादी ने लिखा था. पंडित रामप्रसाद बिस्मिल और उनके साथियों ने इसे अपना क़ौमी तराना बना लिया था -
‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है.
ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत, मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है
वक़्त आने पर बता देंगे तुझे, ए आसमां,
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है.
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.’
स्वतंत्र: गुरु जी, क्या हमारे कवि और शायर जेल भी गए थे?
गुरु जी: शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, शहीद अशफाक़उल्ला, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौहान, बालकृष्ण शर्मा नवीन जैसे शायर-कवि जेल भी गए थे और इनमें से बिस्मिल और अशफाक़उल्ला तो फांसी पर भी चढ़े थे. तुमने माखनलाल चतुर्वेदी जी की कविता ‘फूल की अभिलाषा ज़रूर पढ़ी होगी. भारती, उसे गाकर सुनाओ.
भारती: (गाती है)
‘चाह नहीं, मैं सुरबाला के
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध,
प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं, सम्राटों के शव पर,
हे हरि, डाला जाऊँ,
चाह नहीं, देवों के सिर पर,
चढूँ, भाग्य पर इठलाऊँ,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना, तुम फेंक !
मातृ-भूमि पर, शीश- चढ़ाने,
जिस पथ जावें, वीर अनेक !’
स्वदेश: गुरु जी, मैंने पढ़ा है कि राष्ट्रीय आन्दोलन के समय प्रभात फेरियां निकला करती थीं. इनमें क्या देशभक्ति के गीत भी गाए जाते थे?
गुरु जी: प्रभात फेरियों में अल्लामा इक़बाल का ‘सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा’ का गान तो नियम सा बन गया था –
‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा,
हम बुलबुलें हैं इसकी ये गुलिस्तां हमारा.
गोदी में खेलती हैं, इसके हज़ारों नदियाँ,
गुलशन है जिसके दम से, रश्के-जिना हमारा.
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा.
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा — -‘
भारती: गुरु जी, प्रभात फेरियों में श्यामलाल पार्षद जी का गीत ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ भी तो गाया जाता था.
गुरु जी: बहुत सही कहा तुमने भारती ! उस ज़माने में यह गीत तो बच्चे-बच्चे की जुबान पर था -
‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा.
सदा शक्ति बरसाने वाला, वीरों को हरषाने वाला.
प्रेम सुधा बरसाने वाला, मातृभूमि पर तन मन सारा.
झंडा ऊँचा रहे हमारा !
इस झंडे के नीचे निर्भय, लें स्वराज्य हम अविचल, निश्चय.
बोलो भारत माता की जय, स्वतन्त्रता है ध्येय हमारा.
झंडा ऊँचा रहे हमारा !
आओ प्यारे वीरो आओ, देश धर्म पर बलि बलि जाओ.
एक साथ सब मिलकर गाओ, प्यारा भारत देश हमारा.
झंडा ऊँचा रहे हमारा !’
स्वदेश: गुरु जी, आज़ाद हिन्द फ़ौज का भी तो अपना एक मार्चिंग सॉंग था?
गुरु जी: इसको प्रयाण-गीत कहते हैं. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के सैनिक इसे बहुत उत्साह से गाते थे -
‘कदम-कदम बढ़ाये जा, खुशी के गीत गाये जा,
ये जिन्दगी है क़ौम की, तू क़ौम पे लुटाये जा.
तू शेर-ए-हिन्द आगे बढ़, मरने से तू, कभी न डर,
उड़ा के दुश्मनों का सर, जोश-ए-वतन बढ़ाये जा.
कदम-कदम बढ़ाये जा…’
स्वतंत्र: गुरु जी, हम सब में देशभक्ति की भावना होना क्या ज़रुरी है?
गुरु जी: ‘जो भरा नहीं है भावों से,
बहती जिसमें रसधार नहीं,
वह ह्रदय नहीं, वह पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं.’
भारती: गुरु जी, देशभक्ति-पूर्ण गीतों के माध्यम से आज़ादी की लड़ाई की कहानी सुनना तो हमको बहुत ही अच्छा लग रहा है. हमारे शायर, हमारे कवि देशभक्ति की इतनी सुन्दर कविताएँ लिख कैसे लेते थे?
गुरु जी: इन कवियों को, इन शायरों को, हमारे देशभक्तों की कुर्बानियां देशभक्तिपूर्ण गीत, नज़्म आदि की रचना करने के लिए प्रेरित करती थीं. महाकवि दिनकर की कलम तो इन देशभक्त वीरों के बलिदान की जय बोलने के लिए विवश हो गयी थी -
‘जला अस्थियाँ बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल !
जो अगणित लघु दीप हमारे,
तूफानों में एक किनारे.
जल-जलाकर, बुझ गए. किसी दिन,
माँगा नहीं स्नेह, मुँह खोल.
कलम, आज उनकी जय बोल !’
भारती, स्वदेश और स्वतंत्र (समवेत स्वरों में): गुरु जी, हम भी अपने देश के लिए कुछ ऐसा करेंगे कि शायरों और कवियों की कलम हमारी भी जय बोलने पर मजबूर हो जाएगी.
गुरु जी: जिस देश के बच्चे ऐसा सोचेंगे, ऐसा करेंगे तो उस देश को फिर से सोने की चिड़िया और जगदगुरु होने से कौन रोक सकता है?
भारती, स्वदेश और स्वतंत्र (समवेत स्वरों में): गुरु जी, आपको स्वतंत्रता दिवस की बधाई !
गुरु जी: स्वतंत्रता दिवस की तुम सबको बधाई ! वन्दे मातरम् !