वो ज़ालिम चौराहा।
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हर रोज की तरह उस दिन भी लौट रहा था सूरज अपने घर को।
इस कदर वो संध्या भी डूबी जा रही थी गाड़ियों की उड़ती धुल में।
ना जाने ठंडी हवाएँ भी थी क्यों खुश इतनी उस दिन?
कोई उत्तर की ओर, तो कोई दक्षिण, कोई पूरव तो कोई पश्चिम।
कोई थी किसी की माँ तो कोई अर्धांगनी।
था कोई किसी का भाई तो थी कोई किसी की बहन।
सोहर भी थे वहां और पिता भी।
याद है खुदा तुझे, थे ना मासूम बच्चे भी वहां?
कोई था कोख में तो था कोई माँ की गोद में।
लौट तो रहे थे घर को वो सब भी जैसे सूरज संध्या।
फिर क्यूँ उन, आशाओं, सपनों, खुशियों, रिश्तों, जिंदगियों, परिवारों,
को चंद पलों में लिया बुला तूने पास अपने?
क्यूँ उन सबको दबा दिया तूने उस चौराहे वाले ब्रिज के पथरों में?
क्यूँ नहीं पूछा तूने उन सबसे भी धर्म, जात-पात, ऊंच-नीच, अमीरी-गरीबी के बारे में?
फिर क्यूँ वो इंसान इन सबको लेकर दर-ब-दर जिन्दगीं भर भटकता रहता हैं?
वो ज़ालिम चौराहा…..!