चाबी
‘कहानी का कोना’ में आज पढ़िए लेखक ‘डॉ.रूपा सिंह’ की लिखी कहानी
‘चाबी’..। डॉ.रुपा की कई आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इनकी लिखी कविताएं, कहानियां और विशेषकर आलोचनाएं विभिन्न पत्र — पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। प्रतिष्ठित ‘डॉ.सीताराम दीन स्मृति आलोचना सम्मान’ समेत इन्हें राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया हैं।
ढोलक पर पड़ती थापों की आवाज दूर से ही कानों को उकसा रही थी। मंगल गीतों की आवाज ने हमें उत्साह से भर दिया। सजे धजे शामियाने, खाते-पीते मेहमान, बच्चों के कलरव, आम के पल्लव और गेंदा फूल की लड़ियों से सजा आंगन द्वार दिखने लगा था। जैसे ही हम अंदर पहुंचे, सजी धजी गोल गदराई बहन झटके से उठकर हमसे लिपटने को हुई कि सबने उसे थाम लिया- “अरे, अरे संभलकर ऐसी हालत में ऐसे झटके नहीं खाते।
अब सब्र से उठा बैठा कर बन्नो।” मैं दौड़कर अपनी बहन से लिपट गई। बहन का यह सातवां महीना चल रहा था। उसकी गोदभराई के उत्सव में शामिल होने अलवर से आगरा आये थे हम। बेबे, भाई, भरजाई, नन्हा बिल्लू और मैं। कल सब लौट जाएंगे। लेकिन बेबे ने मुझसे कहा- अभी दो तीन महीने मैं बहन के पास ठहर लूं। जीजा मेरा भरतपुर नौकरी करता है, और घर में उसकी बूढ़ी सास अकेली हैं।
मैं खुशी-खुशी तैयार थी। जैसे मेरे भाई भरजाई के घर नन्हा बिल्लू आया था और मेरा सुन्न-सन्नाटा घर किलकारियाँ मार हंस पड़ा था, अब बहन के घर वैसी ही खुशियाँ उतरने वाली थीं। कितने मनमोहक होते हैं जिंद-जहान के ये व्यापार! बड़े चाव से मैं ऊन की लच्छियाँ, सलाई के कांटे, झबलों के लिये कटपीस, कैंची, सूई, धागों के साथ अपनी किताब, कॉपियाँ समेट लाई थी। सत्तर के दशक में ग्यारहवी ही मैट्रिक थी और मेरी परीक्षा में चार पाँच महीने अभी रहते थे।
आठवीं की परीक्षा के समय भरजाई की जचगी और बिल्लू का होना मुझे खूब याद है। पूरा घर नन्हेें जुराबों, स्वेटरों, तेल-जायफल की सोंधी महक और दूध की कच्ची मुस्कान से विहंसता रहता और वह घुंघराले काले बालों वाला चांद का टुकड़ा अपनी सफेद नीली आँखों से मुझे तकता रहता।
कई बार उसके हाथ-पैर हिलाकर देखती यह प्लास्टिक का गुड्डा है या सचमुच का जीता जागता जीव, तो चुनमुना के खिल उठता वह। मेरे तो जिगर का टोटा हो गया था मेरा बिल्लू। दिन रात मैं उसके आगे पीछे फुदकती। जब बेेबे जायफल सिंके तेल से उसकी सू-सू करने वाली छुन्नी को हौले दबा कर मालिश करती, वह पाजी अजीब-अजीब मुँह बनाता। खूब आनंदित होता। लेकिन जब उसके नन्हें हाथ पैरो को लपेट ऊपर उठा पीठ पर धौल जमाती तो चिंघाडे़ मार कर रोता।
मेरी जान निकल जाती। बेबे छोड़ दे उसे। मर जायेगा वो। मैं फर्श पर लोट पोट हो रोती। सब हंसते। बेबे कहती, मालिश करने से बच्चों की हड्डियां मजबूत होती हैं। फिर बिल्लू बाबू नहा धोकर खुशबूदार पाउडर से गम-गम गमकते भरजाई की गोद में जब तक चुस्स-चुस्स दूध पीते हुए गहरी नींद सो न जातेे, मैं वहीं मंडराती रहती।
अब मेरी बहन के अंगने में वैसा ही चांद उतरने वाला था और मैं बहुत खुश लंबी परांदी लटकाये, गोल्डेन झुमके झुलाती, नवा फिराजी सूट, फिरोजी चूड़ियों से हाथ भरे अपनी बेबे, भाइर्, भरजाई और नन्हें बिल्लू के साथ बहन के घर उसकी गोद- भराई मेें आयी थी। हमारे पहुँचते ही पूरे घर में खुशी की चमकार मच गई- ‘नूं के पेके वाले आ गयेेण। अलवर वाले आ गयेण।’
और, बहन जैसे ही झटके से गले मिलने उठी कि उसे वही रोक दिया गया- “ना, ना बन्नो! सब्र कर! ऐसे झटकों से अभी न उठ बैठ। बेबे और भाई साथ लाये फल, मिठाइयाँ, मेवों के टोकड़े उतरवाने में लगे। इघर स्त्रियोें ने स्वागत में गीत गाने शुरू कर दिये-
“अलवर वाले पेके जीवेण, जीवेण पियू ते भ्ररां
खट्टन वाला पियू जीवे, भागां वाला भ्ररां”
बेबे ने हालांकि खूब हाथ, पैर जोड़े कि हम रोटी-पानी खा पी के चले हैं। अलवर से आगरा है ही कितनी दूर? फिर बेटी के घर पानी पीना- ना, ना! लेकिन बहन की सास ने बात मानी ना ही उनके सिदकों वाले तंदरूस्त जोरावर पुत्तर ने। रज्ज-रज्ज कर स्वागत किया। ना-ना करते भी खूब खिला पिला दिया।
खा-पीकर बेबे और सलोनी भरजाई आंगन में बिछी दरी पर गाती स्त्रियों के पास आ बैठीं। मैं बहन के दुपट्टे को उगलियों से मरोड़ देती उसके पास सट कर बैठी। सलोनी भरजाई ने अपना लाल घुंघटा तनिक सरकाया, वहां बैठी स्त्रियों को आँखों से अदब दिया। सरकते पल्लू को कानों के पीछे सख्ती से ऐेसे ओट दिया कि कान में पहने झुमके तमतमा आये।
झट से ढोलकी दबा ली जांघों तले और पुरानी दिल्ली के मशहूर घंटाघर की हलवाइयों की इस बेटी ने जो रौनक मचाई जैसे प्रतियोेगिता की आग लहकाती हो-
“आओ सामने आओ सामने, कोलो दी रुस के न लंघ माहिया……”
ग् ग् ग्
“अज्ज मथुरा दे विच अवतार हो गया वे श्याम निक्का जीयां………..”
न केवल चेहरे से, न जिस्म से, न हरकतों से बल्कि गले से भी रसमलाई और जबान से शकरपारे की मिठास घोलती भरजाई ने जब वहां अपने गीतों की छेड़ी बहारें, एक के बाद एक शुरू हुए उनकी पछाड़े। लोग देखते रह गये। एक गीत पूरा हो नहीं कि दूसरा शुरू हो जाये-
“खेल तू कित्ते न्यारे-न्यारेे तां तैनू काला कैहंदे ने
काली कोठड़ी विच जमिया, काली कंबली विच तू फड़िया
काले जमुना दे विच तरिया, तां तैनू काला कैंहदे ने….।”
मैं बहन के आंचल में दबी छुपी उनके हाथों में मेंहदी की खुश्बू और चेहरे के ताजे खिले गुलाबों के साथ, साथ बैठी स्त्रियों को भी निरख रही थी। हंसी ठहाके, ठिठोली और बधाइयों के शोर में मैंने देखा तमाम स्त्रियों के बीच 18–19 वर्ष का एक युवक भी वहां बैठा है।
दिखने में खूब गोरा, पतला जबड़ा चेेहरा, तरूणाई की चमक ताजी घनी दाढ़ी मूंछों के बीच ललछौंही मुस्कुराहट, काली चमकीली पलकों वाली बरौनी और उससे झांकते कंचों जैसी आँखों की नुकीली ताब। लंबे चौड़े आंगन में स्त्रियों के बेशर्मी वाले टहोके, रतजगे के दुलार, मनुहार, सताना, फसाना- सब ध्यान से सुनता कभी वह किलकारी मारकर हंसता तो कभी दोनों हाथ हवा में लहराकर चुटकियां बजाता।
बहन की सास, जिन्हें सब प्यार से ‘चाईजी’ कहते महल्ले की अपनी गूढ़ी सहेली ‘ भग्गी मासी’ के साथ बड़े पीतल के थाल में शगुन केे लड्डू और शकरपारों से भरे लिफाफे बांटती जा रही थीं।
सारा समां मानो नवजात की मीठी कल्पनाओं से मह-मह मह महा रहा था। मेरी सलोनी भरजाई पर तो सब मोेहित हो रहे थे लेकिन अब स्त्रियां प्रतियोगी भाव से भरकर एक दूसरे को कोहनियों से टहोका लगाने लगीं- ‘मायके वालों ने तो महफिल लूट ली।’
स्त्रियों में कुछ खुसर-पुसर चली और………….
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