Teena Sharma "Madhavi"
5 min readDec 19, 2022

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पढ़िए वरिष्ठ लेखक व साहित्यकार प्रबोध कुमार गोविल की लिखी कहानी पॉप म्यूज़िक…। रसोई में जाकर सभी डिब्बे एक बार पलट कर देखे और फ़िर लहसुन का एक पापड़ निकाल कर माइक्रोवेव में लगा दिया। पलक झपकते ही पापड़ भुन गया। वे उसे प्लेट में लेकर ड्राइंग रूम में आ गईं। उन्होंने टीवी और एसी एकसाथ ऑन कर लिए।

कहानी पॉप म्यूज़िक

थोड़ी देर बाद वे सोफे पर बैठी रो रही थीं। केवल आंसू बहाकर नहीं, हिचकियों- सिसकियों से लगातार। पापड़ प्लेट में वैसे का वैसा ही पड़ा था। एक ओर से छोटा सा टुकड़ा तोड़ा ज़रूर गया था पर वो वैसे ही पड़ा था, उसे खाया नहीं गया था।

आभा जी की उम्र सत्तर वर्ष से अधिक ही थी, पर वे इतनी उम्रदराज लगती नहीं थीं। शायद इसका कारण यह था कि वह घर में बिल्कुल अकेली रहती थीं, इससे उन्हें सभी अपने छोटे- मोटे काम खुद ही करने पड़ते थे। ऐसे में इंसान को जीने का समय कहां मिल पाता है। और जिए नहीं तो उम्र खर्च काहे में हो? शरीर तो ज़िंदगी से ही झरता है।

आभा जी के रोने का कारण पता नहीं चला। कैसे चलता? कौन पूछता उनसे? आख़िर क्या कारण हो सकता है… क्या टीवी पर जो कार्यक्रम आ रहा था उसकी संवेदना उन्हें रुला रही थी? नहीं — नहीं, ऐसे कार्यक्रम आजकल आते ही कहां हैं जिन्हें देख कर आंसू आएं।

आजकल तो इस बात पर भले ही रोना आ सकता है कि टीवी के सामने बैठे ही क्यों! फिर क्या बात हुई, क्या पापड़ अच्छा नहीं है? पर लहसुन का पापड़ तो उन्हें पसंद रहा है।

आभा जी इस घर में हमेशा से अकेली नहीं रहीं। कोई हमेशा अकेला होता भी कहां है? दुनिया का मेला किसी को भी हमेशा अकेला नहीं छोड़ता। आज से तीस- चालीस वर्ष पहले आभा जी का भी भरा- पूरा घर था। यही घर।

प्रबोध कुमार गोविल

यहां जब वे नई बहू बन कर आई थीं तब घर में सास ससुर थे। देवर ननद थे। और उनके पति थे। चार — छह साल गुजरे तो देवर — ननद अपने अपने ठीहे — ठिकाने चले गए। पर उनकी जगह लेने आ गई आभा जी की दो प्यारी- प्यारी छोटी सी बेटियां।
उनकी सास घरेलू पर दबंग महिला थीं। घर बाहर सब जगह दबदबा रखने वाली।

शुरू के कुछ साल तो उनके इस लिहाज़ में बीते कि बहू कीनिया से आई है और उसके पीहर वाले बड़े मालदार व्यापारी लोग हैं। लेकिन धीरे- धीरे सौ बातों की जगह एक बात ने ले ली कि वो सास हैं और आभा जी बहू।

बहू को अपने सब रंग- ढंग वैसे ही बदलने पड़े जैसे सास ने चाहे। सास को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि बहू विदेश में पढ़ कर आई है, वह अपने माता पिता की इकलौती संतान है, अब उसके पिता ने भी भारत में लौट कर अपना लंबा — चौड़ा कारोबार जमा लिया है… उन्हें तो केवल एक बात मालूम थी कि वह शादी कर के हमारे घर आ गई है तो अब हमारी बहू है, और वैसे ही रहेगी जैसे हम चाहेंगे।

वैसे आभा जी को कभी किसी बात की कमी रही भी नहीं, क्योंकि दिल्ली के बेहद संभ्रांत इलाके में इस लंबे चौड़े घर में किसी बात की कोई कमी थी भी नहीं। आभा जी ने कभी नौकरी नहीं की।

पति और ससुर दोनों ही अच्छा कमाते थे। बेटियां भी अच्छे स्कूल में पढ़ रही थीं। देवर और ननद भी अपना अपना करियर बनाने में व्यस्त थे।

आभा जी की सास पापड़ की बड़ी शौकीन थीं। उन्हें उस ज़माने में भी बीसियों तरह के पापड़ सहेज कर रखने का शौक़ था। वह ख़ुद घर में तरह- तरह के पापड़ बनवाती थीं।

जब बाज़ार जाती थीं तो शहर के किसी भी कोने के किसी भी पंसारी से पापड़ों के बाबत पूछना न भूलती थीं और उन्हें जो भी नए — नए पापड़ मिलते उन्हें खरीदती थीं।

आलू प्याज़ मूंग उड़द मोठ से लेकर अदरक और लहसुन तक के पापड़ हमेशा उनकी रसोई में उपलब्ध रहते। इतना ही नहीं, वे स्वयं नए- नए प्रयोग करके सब्जियों और मसालों के पापड़ तैयार करने में लगी रहती थीं।

वे पापड़ खाने की जितनी शौकीन थीं उससे कहीं ज़्यादा उन्हें खिलाने का शौक़ था। उनके यहां खाना खाने के लिए आमंत्रित अतिथियों को अपनी खाने की पसंद बताते समय पापड़ की भी पसंद बताना अनिवार्य था।

और जब खाना परोसा जाता, तब सभी तरह के पापड़ परोसे जाते। खाने वाले को अपनी पसंद का पापड़ विभिन्न किस्मों और स्वाद के पापड़ों में से चुनना पड़ता था।

पूरी कॉलोनी की उनकी परिचित महिलाओं का साल में लगभग दो- तीन बार पापड़- कार्निवाल आयोजित होता था, जिसमें महिलाएं इकट्ठी होकर तरह- तरह के पापड़ बनातीं।

सर्दी हो तो उनकी कोठी की छत पर, गर्मी हो तो भीतरी बरामदे में महिलाओं का हुजूम जमा होता और फिर किसी त्यौहार की सी चहल- पहल के बीच पापड़ बनाए जाते।

वे न जाने कहां- कहां से पापड़ बनाने की तकनीकें सीख कर आतीं, फिर तमाम औरतों का जमावड़ा उन तकनीकों को फलीभूत करने के लिए कमर कसकर जुट जाता। सासों और बहुओं की एक साथ शिरकत होती।

तब आभा जी और घर की दोनों महरियां उन महिलाओं के लिए दोपहर की चाय के साथ परोसे जाने वाले व्यंजन बनाने में जुटी रहतीं।

डाइनिंग टेबल पर बैठे आभा जी के पति और ससुर इस बात को लेकर परिहास करते कि मूंग के पापड़ बनाने वालों के लिए मूंग की दाल का हलवा बनाया जा रहा है।

रसोई में तरह- तरह की क्रॉकरी में सजकर नाश्ता और चाय उन महिलाओं के लिए जाता रहता जो पूरी दोपहर पापड़ बेलने में लगी रहती थीं। दिन भर घर ही नहीं बल्कि पूरा मोहल्ला गुलज़ार रहता इस चहल- पहल से।

ये पापड़ जिस धूमधाम से बनाए जाते उतनी ही शानो- शौकत से खाए भी जाते। पहले तो सुंदर सी पैकिंग में इन्हें थोड़ा- थोड़ा उन सभी घरों में भिजवाया जाता जिनकी गृहलक्ष्मियां पापड़ बनवाने के लिए यहां एकत्रित होती थीं। फिर इन्हें सुंदर — सुंदर नाम लिखे डिब्बों में सहेज कर रखा जाता। कई महीनों तक ये खाए जाते।

पूरी कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें —

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Teena Sharma "Madhavi"

मैं मूल रुप से एक ‘पत्रकार’ और ‘कहानीकार’ हूं। ‘कहानी का कोना’ नाम से मेरा ब्लॉग चलता हैं..। https://kahanikakona.com/