वैदेही माध्यमिक विद्यालय
उनकी मौत के दो साल बाद आखिरकार विद्यालय शुरू करवाने में सफलता मिल ही गयी, आज मन में बडा सुकून है जब विद्यालय के गेट पर वैदेही माध्यमिक विद्यालय लिखा जा रहा है।
निश्छल हंसी और मासूम आँखें ही जेहन में रहें तो अच्छा लेकिन उन पनीली उदास डूबती अन्दर तक बेधती नजरों का क्या करूं जो दिल में कहीं गहरे धंस गईं हैं और निकाले नहीं निकलती । नहीं नहीं उनका अंत दुखद नहीं हो सकता , उनके अंत को दुखद नहीं होने दुंगा।
एक घंटे की उस आखिरी मुलाकात ने पिछले बीस बरस की यादों को धुंध की तरह ढ़क दिया था मगर यादें होती ही हैं एसी कि धुंध के बीच से भी जब तब धूप की किरणों की तरह झिलमिला उठती हैं ।
बचपन की वो लुकाछिपी ,किस्से कहानियां खिलौने, खिलौने तो थे ही कहाँ उस मासूम के बचपन में खेत खलिहान चूल्हा-चौका ,मवेशी यही सब उसके साथी भी थे और खेल के साधन भी ।
तभी तो मेरी किताबें उसे नई चीज लगतीं किताबें देख कैसी चमक उठती थीं उसकी आँखें ,वह पढ़ना तो नहीं जानती थी मगर उन्हें छू कर देखती पन्ने पलट कर चित्र देखते हुए ढ़ेरों प्रश्न जगमगा उठते थे उसकी आँखों में पूछती क्या लिखा है ?
पढ़ कर बता न संतोस । मैं शेखी में आ जाता कहता — गंदे हाथ मत लगाओ मैं पढ़ कर सुनाता हूँ । वो कहती — ‘मैं भी पढ़वो चाहूं पर क्या करूं गाँव में स्कूलई नायं , तू ही मुझे पढ़ा दे’।
मैं कहता बुआ मैं तो कुछ दिनों में शहर लौट जाऊंगा फिर? तुमको कैसे पढ़ाऊंगा ? पहले खूब सताता फिर अपनी समझ से कुछ पढ़ा भी देता ।
हम साथ-साथ चलते कच्ची पगडंडियों पर दौडते खेतों तक जाते । वो बाल्टी में रस्सी बाँध कुएं से पानी खींचती और भर भर बाल्टी मेरे उपर ऊंडेलती । गर्मियों में कुएं का ठंडा पानी बेहद भाता था । वही मेरे कपड़े धोती और पास की झाडियों पर सूखने फैला देती फिर पनघट से सटी मवेशियों की नांद में पानी भरती ।
इतनी देर मैं इधर उधर घूमता रहता , वो कहती रहती ‘ घाम में मत घूमे रे छोरे लू खा जाएगो , कीकर की छांव में बैठ जा’ पर मैं कहां सुनता था। अपने साथ आए भूरिया पर पानी की भरी बाल्टी उंडेल देता और जब वह अपने पूरे शरीर को फडफडा कर पानी झिडकता मुझे बहुत मजा आता था। भूरिया बुआ का लाडला पिल्ला था वो जहाँ जहाँ जाती उसके पीछे-पीछे जाता । मेरे जाने के बाद वही तो उसका साथी था ।
आधे सूखे कपडे समेट कर बुआ मुझे दे देती जो घर पहुंचने तक पूरे सूख जाते , मैं उन्हें अपने सिर पर छतरी की तरह तान कर शान से चलता साथ में वो खुद पानी के भरे दो मटके सिर पर रख कर कहती ‘चत रे संतोस घर कूं चलें सबेरे ते कछु ना खायो भूख लगियाई होगी’।
जब पूछता — दो दो मटके लेकर इतने आराम से वो कैसे चल लेती है तो हंस कर कहती- कल से एक तू लैके चलियो । मैं फिर पूछता तू नहीं नहाएगी ,वो कहती — तेरे उठबे से पहले तारन की छांव में निपटा निपटी न्हावा धोई सब कर लेत हूं ,लडकिन उजीते में नहीं नहावें हैं ।
मैं सोचता ही रह जाता ये सोती कब है आधी रात तक तो मुझे छत पर कहानियां सुनाती है, तो क्या तू दोबारा आई है पानी लेने ? हम्बै सांझ कूं फिर आवेगें । सांझ तक मेरे पांव दुखने लगते फिर भी कुंए के ठंडे पानी से नहाने के लालच में उसके साथ चला आता और भूरिया दुम हिलाता हमारे पीछे पीछे ।
भरी दोपहर जब घर के सब बडे अपने अपने कामों में व्यस्त होते हम दोनों बैठक के उपर वाले छप्पर में सबसे छिप कर किस्से कहानियां कर रहे होते — एकथा ढ़ोलकिया एक उसकी ढ़ोलकिन — — तब भूरिया भी वहीं हमारे पास पडा ऊंघ रहा होता । बुआ के पास बैठ न गर्मी सताती न भिनभिनाती मक्खियां परेशान करतीं ।
बुआ हंसती भी तो मुंह दबा कर जैसे खुल कर हंसी तो न जाने कोई पहाड टूट पडेगा ।उसकी एक कहानी खत्म होती और वो कहती — अब तेरी बट लाला इ से इमली के आगे लिखना सिखा । मेरी हर फरमाइश के बदले वो मुझसे एक नया अक्षर सीखती।इसी तरह वो धीरे धीरे पढ़ना लिखना सीख गई ।
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