डे 63: भाषा के प्रति भेदभाव

Zubin Sharma
4 min readSep 4, 2016

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आज मैं एक दोस्त से बात कर रहा था जो नौकरी की तलाश में है. अगर मैं दिल से कहूँ, तो मैं बता सकता हूँ कि यह दोस्त बहुत ज़्यादा समझदार है। जो बाकि लोगों को अदृश्य रह जाता है, उनको दिखता है । जो वास्तव में हो रहा है, वो पकड़ पाते हैं । और मैं काफी अच्छी तरह से जानता हूँ क्योंकि उनके साथ दो साल से रहकर काम कर रहा हूँ.

तो आज मैंने पूछा उनसे कि कैसा चल रहा है? क्या जवाब आ रहा है? वो किसी संस्था में काम करना चाहते हैं क्योंकि वो चाहते हैं कि उनके काम से औरों का भला हों. उन्होंने बताया:

“एक दिल की बात बताता हूँ ज़ुबिन दा, आजकल मैं मेरे दिमाग में यह बातें ज़्यादा चलती हैं कि जितना भी मेरा अनुभव रहा है, चीजों को लेकर, वो सारा का सारा फीका पड़ जाता है अंग्रेजी को लेकर. यह बातें तब आती हैं मन में जब अंग्रेजी को लेकर चुनौती आती हैं. मैं जाग्रति यात्रा के लिए गया तो मेरे हर एक बात और सवाल उनका ही विशेष और महत्वपूर्ण था जितना कि अंग्रेजी बोलने वाले का नहीं। यह मेरा ऑब्जरवेशन नहीं था, बल्कि मेरे प्रति वहां के लोगों का रिएक्शन था. और मुझे खुद पर घमंड नहीं, बल्कि भरोसा है कि मैं हर बिंदु पर अपना योगदान से सकता हूँ. बस अंग्रेजी को लेकर, मुझे जितना खारिज़ कर सकता है.”

सुन कर, आँखों में आसूं आने लगे. ऐसा क्या हुआ कि उत्तरी भारत में रहने के बावजूद भी जहाँ हिंदी विशेष है , नौकरी नहीं पकड़ पाते हैं. जहाँ उन्होंने अप्लाई किया था, वो काम ग्रामीण उत्तर प्रदेश में होगा जहाँ कम लोग इंग्लिश में वार्तालाप करते हैं. वहां पर अंग्रेजी जानने की क्या ज़रूरत है?

उनका जवाब, “पता नहीं — शायद दफ्तर के अंदर, लोग अंग्रेजी में बात करते हैं.”

अगर यही कारन है तो यह बहुत दुख की बात है । मैं उस संस्था के लोगों को जानता हूँ अच्छी तरह से क्योंकि हम उनके साथ भी काम करते थे, और सब लोग हिंदीवासी ही हैं. और कारन हो सकते हैं जो मैं नहीं जानता हूँ, तो उस संस्था पर आलोचना नहीं करना चाहता हूँ |

लेकिन सोशल सेक्टर में, यह अक्सर होता है — एक तरफ से एम्पावरमेंट, यानि सशक्तिकरण की बात करते हैं, और दूसरे तरफ से, उनकी सोच और व्यवहार में बहुत ज़्यादा ऊंच-नीच है. बहुत सारे कांफ्रेंस में गया हूँ, जहाँ अंग्रेजी में सशक्तिकरण की बात होती हैं जबकि दर्शक हिंदी ही जानता है, और फिर उन्हें समझ में नहीं आता है. बहुत डाक्यूमेंट्री बनते हैं और लेख लिखे जाते हैं जो आजे के उपनिवेशवाद के बारे में हैं…लेकिन वो भी अंग्रेजी में हैं. बहुत प्रशिक्षण भी होती हैं, लेकिन वो भी अंग्रेजी में ज़्यादातर होती हैं.

मनुष्य चीजों को बहुत जल्दी पकड़ता है, तो बार-बार जब आपको आमंत्रण नहीं है, जब आपको अलग किया जाता है, तो फिर बहुत लोग इस बात को मान जाते हैं कि वो कमज़ोर ही होंगे. कि उन में कोई न कोई कमी होगी. कि अंग्रेजी नहीं जानने के कारण उनकी बाकी ज्ञान बेकार है. यानि, एम्पावरमेंट का उल्टा हो जाता है.

दूसरों का जवाब होता है कि अंग्रेजी सीखने के लिए पागल हो जाते हैं. वो सोचते हैं कि अगर अंग्रेजी सीखेंगे, तो फिर, उनका प्रतिष्ठा अच्छा हो जाएगा. फिर जैसे ही वो अंग्रेजी सीखते हैं, वैसे ही वो बाकि लोगों पर हँसते हैं जो अंग्रेजी नहीं जानते हैं. वो अपने खुद के पुराने दर्द को भूल जाते हैं और वो दूसरों पर अत्याचार करने लगते हैं.

Photo by Awais Hussain

लेकिन बहुत लोग हैं, जैसे मेरा दोस्त, जो अंग्रेजी से कोई मतलब नहीं रखते हैं. केवल एक भाषा है. वो थक गए इस अंग्रेजी बोलने और जानने के पागलपन को लेकर. थक गए कि अनुभव को कोई मायने नहीं रखा जाता है. काम का कोई मायने नहीं रखा जाता है, केवल नाम का.

बहुत लोग कहते हैं — “समाधान बहुत आसान है भाई — जल्दी अंग्रेजी सीख लो.” लेकिन उन्हें क्यों सीखनी चाहिए? भाषा केवल एक संचार करने का माध्यम नहीं है — पूरी संस्कृति उस में शामिल है. बहुत सारी बातें हैं जो हिंदी में ही बोली जा सकती हैं, जिसका कोई मतलब नहीं बनेगा अंग्रेजी में.

बाकि देश जहाँ में घूम चूका हूँ, वहां पर, सब लोग अपनी मातृ भाषा में बात करते हैं. मैं जानता हूँ कि इंडिया का ऐतिहास कुछ और रहा, लेकिन यह और बड़ा कारन है कि लोग इधर की भाषाओँ में बात करें. कि वो यहाँ की भाषाओँ को मरने न दें.

और अंतिम बात है — कि अगर हम एक आदर्श समाज की बात करें, तो उस में बहुत विविधता होगी। लेकिन अगर सब को अंग्रेजी में बात करनी ही पड़ेगी, तो फिर विविधता का क्या होगी?

मेरा विचार बिलकुल यह नहीं है कि हिंदी राष्ट्रीय भाषा होनी चाहिए — क्योंकि राष्ट्रीय भाषा है ही नहीं. बहुत सारी भाषाएं हैं — और सब ज़रूरी हैं. अगर हम एक तरफ से बोलते हैं कि हम पर अंग्रेजी न थोपें, तो दूसरी तरफ से, हमें औरों पर हिंदी नहीं थोपनी चाहिए. लेकिन यह मैं ज़रूर कह रहा हूँ कि किसी भी भाषा को छोटी नहीं माननी चाहिए, और आर्थिक व्यवस्था में, हमें काबिलयत और काम देखना चाहिए, न सिर्फ नाम.

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