आख़िरी आदमी

Ankur Pandey
anantim
Published in
2 min readFeb 26, 2024

[अक्टूबर 2012]

[ये कविता श्री कृष्ण कलम्ब को समर्पित है, जो वर्हाडी (मराठी की एक उपभाषा) में कविता करते थे. उनका बेहतर परिचय ये है कि वो विदर्भ के उस सर्वहारा वर्ग से थे जो बरसों से अत्यंत दारुण परिस्थितियों में गुज़र करने को अभिशप्त है- ये कवितायेँ नहीं उनका आर्तनाद है. उनकी तीन छोटी कवितायें आप यहाँ, यहाँ, और यहाँ सुन सकते हैं.
जिस समाज में ऐसा गहरा इंसान अपना जीवन समाप्त करने को विवश हो जाए, उस समाज की नंगाई अपनी तमाम वीभत्सता के साथ आँखों के सामने नाचने लगती है!]

आख़िरी आदमी नंगे पत्थरों पर लेटता है,
पसीना बिखेरता है, राख को समेटता है,
आदिम हँसी हँसता है, कंकड़ों से खेलता है.
हमारी मतलबी और बेमतलब बातों की कड़ी,
टूटती कमर और तोड़ती लातों की कड़ी-
के आख़िर में आख़िरी आदमी है!

आख़िरी आदमी झूठ नहीं बोलता- बस बोलता नहीं,
वो सहता है, सुनता है, तुलता है, पर तौलता नहीं,
कड़ियों में जा जुड़ता है, कुछ जोड़ता नहीं.
हमारे सारे फ़लसफ़ों और वाद की कड़ी,
अधपकी तमन्नाओं की फ़रियाद की कड़ी-
के आख़िर में आख़िरी आदमी है!

आख़िरी आदमी का हाड़-माँस भी वही है,
लहू भी वही है और सांस भी वही है,
फांसें कुछ अलग हैं- पर प्यास भी वही है.
हम आख़िर से पहले वालों की कड़ी,
हमारे नपुंसक इन दुनियावी सवालों की कड़ी-
के आख़िर में आख़िरी आदमी है..

पर इस आख़िरी आदमी का महज़ होना-
ये आख़िर तक फैली आदमीयत है?
या आदमी की आख़िरीयत है?

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