तार्रुफ़- ए- ग़ज़ल

gaurav singh
Arz Kia Hai Guru
Published in
4 min readJun 2, 2018

ग़ज़ल को उर्दू साहित्य में कविता का सबसे मुश्किल प्रारूप माना गया है। यही कारण है कि ग़ज़ल लिखना जितना ही मुश्किल है, उसे सही ढ़ंग से समझ पाना भी उतना ही कठिन है। कई लोग तो किसी भी अश’आर को ग़ज़ल समझने की भूल करते हैं तो मैं कई ऐसे लोगों से भी मिला हूँ जो इसे कविता का स्वरुप समझने के बजाय संगीत का स्वरुप समझते हैं। इसलिए ये भी ज़रूरी है की हम ग़ज़ल लिखने या ग़ज़ल सुनने से पहले ये जाने की ग़ज़ल आखिर है क्या।

ग़ज़ल को मुख्यतः चार नज़रियों से देखते हुए समझाया जा सकता है।

१- ग़ज़ल का ढाँचा (structure)

२- ग़ज़ल के मुख्य अंग (elements)

३- ग़ज़ल की बहर (flow/ rhythm)

४- ग़ज़ल में आने वाले मुद्दे (theme)

इससे पहले कि ग़ज़ल के ढांचे की बात करें, हमें शे ‘र को भी समझना होगा । शेर किसी भी दो मिसरों (पंक्तियों) से बानी हुई छोटी कविता को कहते हैं जो की किसी विषय पर लिखी गयी हो। शे’र में पहले मिसरे को मिसरा-ए-ऊला और दूसरे को मिसरा-ए-सानी कहते हैं। अक्सर देखा गया है कि पहले मिसरे में किसी विषय को उठाया जाता है र दूसरा मिसरा पहले मिसरे में कही गई बात को सत्यापित करने का काम करता है। मिसाल के तौर पर मोहम्मद इक़बाल का ये शे’र देखें :

“भरे बज़्म में राज़ की बात कह दी,
बड़ा बेअदब हूँ सज़ा चाहता हूँ। “

यहाँ भरे बज़्म में राज़ की बात कहने का मुद्दा उठाया गया है और दुसरे मिसरे में सत्यापित किया जा रहा है की ऐसा करने वाला गुनहगार है और इसलिए सज़ा का हक़दार। हलांकि हर बार ऐसा ही हो ये ज़रूरी नहीं। जैसे की मोहम्मद अल्वी का ये शे’र इसके बिलकुल ही विपरीत ढाँचे का है :

“अँधेरा है कैसे तेरा खत पढ़ूँ
लिफ़ाफ़े में कुछ रोशनी भेज दे”

अब ऐसे ही शे’र मिलकर के ग़ज़ल बनाते हैं। ग़ज़ल कैसे बनाते हैं ये हम जानेंगे जब हम ग़ज़ल के मुख्य अंगों के बारे में जानेंगे।

ग़ज़ल के प्रमुख अंग होते हैं मतला, काफ़िया, रदीफ़ और मकता

सबसे पहले बात करते हैं काफ़िया की जोकि ग़ज़ल का rhyme scheme भी कहा जा सकता है। मिसाल के तौर पर मोहम्मद इक़बाल की वही ग़ज़ल देखेंगे जिसका की शे’र मैंने शुरुआत में पेश किया था।

तेरे इश्क़ की इन्तेहा चाहता हूँ,
मेरी सादगी देख क्या चाहता हूँ।

सितम हो के हो वादा -ए-बेहिजाबी,
कोई बात सब्र आज़मा चाहता हूँ।

ये जन्नत मुबारक रहे जाहिदों को,
के मैं आपका सामना चाहता हूँ।

भरी बज़्म में राज़ की बात कह दी,
बड़ा बेअदब हूँ सज़ा चाहता हूँ।

कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले-महफ़िल,
चराग़-ए -सहर हूँ बुझा चाहता हूँ।

अब यहाँ जो इन्तेहा , क्या , आज़मा, सामना, सज़ा और बुझा अल्फ़ाज़ हैं, ये सभी ‘आ ‘ की ध्वनि से ख़त्म होते हैं और ग़ज़ल की तुकबंदी (rhyme) बनाते हैं। इसे कहते हैं काफ़िया।

आपने इन शब्दों के ठीक बाद ‘चाहता हूँ ‘ का उपयोग होते हुए देखा होगा। इसे कहते हैं रदीफ़। रदीफ़ हर शेर के अंत में उपयोग होता है और ये भी एक प्रकार से तुकबंदी ही बनता है।

अब अगर आपने ग़ज़ल को गौर से पढ़ा होगा तो ये ख्याल आपके ज़हन में ज़रूर कौंध रहा होगा कि पहले शे’र के दोनों ही मिसरों में काफ़िया और रदीफ़ है और बाकि के शे’र सिर्फ मिसरा-ए-सानी में ही इन्हे समाए हैं। अपने अगर ये देखा है तो आप बहुत पारखी नज़र रखते हैं। मगर ऐसा गलती से नहीं हुआ है।

दरअसल ग़ज़ल का पहला शे’र मतला कहलाता है। मतले की खासियत ये है कि उसके दोनों मिसरों में काफिया और रदीफ़ होता है।

अब बचता है मकता। मकता वो शे’र होता है जहाँ पर शायर अपना नाम या तख़ल्लुस इस्तेमाल करता है। ये अक्सर ग़ज़ल का आखिर शे’र होता है। वैसे कुछ अपवाद भी मिलते हैं। फ़िलहाल हमने जो ग़ज़ल पढ़ी, उसमे मकता नहीं है।

अब हम आते हैं तीसरी सबसे खूबसूरत बात पर। ग़ज़ल की बहर।

बहर का मतलब बहाव यानि की flow होता है। ग़ज़ल में रवानगी बहर से ही आती है। रवानगी लाने के लिए हर मिसरे में गिनती से बराबर ध्वनियों का और हलकी तथा वज़नी ध्वनियों का एक ही क्रम में इस्तेमाल होता है। मिसाल के तौर पर कुछ अलग अलग ग़ज़लों से लिए गए शे’र पेश करता हूँ जो की एक ही बहर में हैं।

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।

— मिर्ज़ा ग़ालिब

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो,
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए।

- बशीर बद्र

अंत में बात करते हैं ग़ज़ल में आने वाले मुद्दों की। जैसा की मैंने शुरुआत में ही कहा था कि हर शे’र अपने आप में एक कविता होती है। तो ऐसे में हर एक शे’र एक अलग विषय पर हो सकता है। या फिर ऐसा भी मुमकिन है कि सरे शे’र एक ही मुद्दे पर हों।

जहाँ शे’र अलग- अलग मुद्दों पर हों उस ग़ज़ल को गैर-मुसलसल ग़ज़ल कहते हैं। वहीँ जिसमे सारे शे’र एक ही मुद्दे पर हों उस ग़ज़ल को मुसलसल ग़ज़ल कहते हैं।

उम्मीद है कि आपको अब ग़ज़ल को समझने में कुछ मदद ज़रूर हासिल होगी।

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