रस की अनुभूति — उर्मिला देवी “उर्मी”, साहित्य विशेषज्ञ ( अर्ज़ किआ है रायपुर )

Utkarsh Garg
Arz Kia Hai Guru
Published in
4 min readOct 23, 2018
A brief about our literature expert. www.arzkiahai.com

“अर्ज़ किआ है रायपुर” के अध्याय आलम-ए रायपुर में हिंदी साहित्य की महत्वता और रसों की आवश्कता को बताने के लिए हमारे साथ उर्मिला देवी जी उपस्थित थी जो की एक समाज सेविका, लेखिका और हिंदी साहित्य की ज्ञाता हैं। उर्मी देवी जी से हमने “रस” विषय पर चर्चा की। उर्मी जी एक स्वच्छंद लेखिका है जो उभरते लेखकों के साथ हमेशा खड़े रहतीं हैं और हिंदी साहित्य का सागर इनके हृदय में समाया है।

तो उर्मिला जी से हमारा पहला सवाल यह था कि “रसों की उत्पत्ति कैसे होती है?”

उर्मी जी का जवाब रस की साहित्यिक परिभाषा से शुरू हुआ :-

विभाव, अनुभाव, संचारी संयोगात रस निष्पते

अर्थात जब हृदय में स्तिथ भावनाओं का संयोग अनुभाव और संचारी भाव से होता है तो रस की उत्पत्ति होती है। सरल शब्दों में कहा जाए तो कोई भी कविता, कहानी, नाटक या ग़ज़ल को देखने, सुनने या पढ़ने पर जो दिलो-दिमाग पर असर पड़ता है या जो भावनाऐं दिल में आती है उसी भावना को रस कहते है, रस का हिंदी साहित्य में स्थान देखा जाए तो यह बात बिल्कुल भी गलत नहीं होगी कि, “काव्य की आत्मा ही रस है”

जिस तरह बिना आत्मा के शरीर का महत्व नहीं है उसी तरह बिना रस के काव्य अधूरा है। इस बात को आगे बढ़ाते हुए उर्मी जी ने रस के प्रकारों को उनके स्थायी भावों के साथ साझा किया:-

  1. श्रृंगार रस (प्रेम)
  2. हास्य रस (हास)
  3. करुण रस (शोक)
  4. रौद्र रस (क्रोध)
  5. वीर रस (उत्साह)
  6. भयानक रस (भय)
  7. वीभत्स रस (जुगुप्सा)
  8. अद्भुत रस (विस्मय)
  9. शांत रस (निर्वेद)
  10. वात्सल्य रस (वत्सल)
Arz Kia Hai Alam-a-Raipur Interative Session. Clicked by: karsh

“अगला प्रश्न यह था कि लेखन के बाद वाचन में श्रोताओं को रस की अनुभूति किस प्रकार करवाई जा सकती है?”

इस प्रश्न पर उर्मी जी का जवाब यह था कि, हर व्यक्ति के हृदय में एक स्थायी भाव पहले से स्तिथ होता है जब कोई व्यक्ति किसी काव्य को पढ़ता या सुनता है तो उसके हृदय में स्तिथ भावो का संयोग पढ़ने, सुनने या देखने पर आने वाले भावों के साथ होता है। उस वक्त दोनों भावो से मिलकर जिस रस की उत्पत्ति होती है वही श्रोताओं के हृदय में रस की अनुभति कराती है।अनुकूल परिस्थियों के अनुसार रस स्वयं उत्पन्न हो जाता है रस को उत्पन्न करने के लिए कोई कोशिश करने की आवश्यकता ही नहीं।कोई दृश्य देखकर आप हंसते है कुछ पढ़कर, कुछ सुनकर आप रोते है और निरंतर देखते और सुनते जाते है क्योंकि उसमें रस है।

“तीसरा प्रश्न यह था कि अगर किसी कविता या कहानी में एक रस से दूसरे रस में उतरना हो या दो रसो को एकसाथ मिलाकर रचना करनी हो तो वह कैसे करें?”

उर्मि जी ने कहा जब दो रस किसी एक रचना में उपस्थित हो तो रसों का चमत्कार बढ़ जाता है, रचना उत्कृष्ट हो जाती है। जिस प्रकार हास्य और व्यंग्य को एक साथ मिलाकर एक बेहतरीन निशाना साधा जा सकता है उसी प्रकार रचना के अनुकूल हम रसों का संविलयन कर सकते है जो रचना को चमत्कृत कर देगा।जब हम दो रसों को एकसाथ लाने का प्रयास करते है तो यह ध्यान देना आवश्यक है कि आप अपनी रचना के माध्यम से कौन सी भावनायें सामने प्रस्तुत कर रहे है।

“प्रश्नों की इस कड़ी में अगला सवाल यह था कि रसों का शब्दावली पर क्या असर पड़ता है?”

उर्मि जी ने बड़ी शालीनता से जवाब दिया कि शब्द रस का निर्धारण करते है रस शब्दों का नहीं। अर्थात प्रेम शब्द में पहले से ही रस निहित है श्रृंगार का उसी प्रकार मृत्यु शब्द में भयानक रस निहित है अतः हमें रचना करने से पहले उपयुक्त शब्दावली का चुनाव करना चाहिए ताकि रचना में वह रस स्वच्छंद प्रवाहित हो।

“अगला प्रश्न यह था कि भाषाओं में जो बदलाव आ रहे है हिंदी के साथ अन्य भाषाएं भी सम्मिलित हो गई है तब उस परिस्थिति में अपनी लेखनी में रसों को कैसे बरकरार किया जा सकता है?”

उर्मि जी ने बेहद खूबसूरत जवाब दिया कि रस का भाषा से कोई संबंध ही नहीं है आप किसी भी भाषा में रचनाये, काव्य या नाटक देखे, सुनें या पढ़ें तो आपको उसमें निहित रस अवश्य प्राप्त होगा अगर आप उस भाषा के ज्ञाता या उस भाषा या बोली को जानते है तो।

“रस सर्वत्र समाहित है और रस हमारे हृदय में हमेशा स्थायी भाव के रूप में स्थित होता है। रस के बिना जीवन और किसी भी काव्य या ग्रंथ का कोई महत्व नहीं।”
~ उर्मिला देवी

Written by: Prachi Sahu

--

--

Utkarsh Garg
Arz Kia Hai Guru

Blossoming at the junction of content, community and capital