आजाद कबूतर
कभी सिर्फ सुना था,
पर आज देख भी लिया,
कबूतर कभी फर्क नहीं करते,
सब को एक निगाह से देखते हैं,
जहां जी चाहे दाना झुकते हैं,
जहां भी मिल जाए पानी पी लेते हैं
कभी फुरर से उड़ जाते हैं
कभी देर तक ठहर कर,
लंबी गुफ्तगू करते हैं,
ना तो लगता उनका, सरहदों पर वीजा,
ना ही रोक पाती नफरतों की खोकली दीवार,
कभी चूमते हैं पत्थरों को ख़ुदा समझ कर,
और कभी उन्हीं पर बीट करा करते हैं,
फिर वह चाहे जो भी हो,
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा चर्च
अमीरों के बंगले, गरीबों की झोपड़ी,
या फिर इमारत-ए-सुप्रीम कोर्ट
क्योंकि कबूतर कभी फर्क नहीं करते,
सबको एक निगाह से देखते हैं,
काश इंसान, इंसान ना होता
एक आजाद कबूतर ही होता,
ना तो कोई धर्म होता,
ना ही कोई बंधन होता,
ना तो कोई भी जाति होती,
ना ही कोई वतन होता,
हर किसी को आजादी होती,
संसार एक गुलशन होता,
चारों दिशाओं में होती शांति,
तो सचमुच कितना सुंदर होता,
काश इंसान, इंसान ना होता है,
एक आजाद कबूतर ही होता
लेकिन ऐसा क्यों हो,
क्योंकि कबूतर कभी फर्क नहीं करते,
सबको एक निगाह सकते हैं।।