एहसास की मौत
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1 min readFeb 18, 2018
बहुत ठंड
भड़कती है,
इस जलते शहर के,
इंसानी बाशिंदों में
.
काश, कोई तो होता,
जो मुहब्बत की,
दहकती,
भड़कतीं,
शीतल अंगीठी,
जला के बैठा करता
.
सुना है,
पिछली सर्दी,
सारें एहसास,
कुडकुडाते,
बडबडाते,
सिकुड़कर,
ठिठुरकर,
लम्बे गुजर गए
.
अरे क्या हुआ,
छोडो भी,
जानें भी दो यार,
एहसास ही तो थे,
ना तो उनकी कोई,
कीमत होती है,
ना ही उनके कोई,
मकान होते है
.
जो आजाद,
आवारा आशिक़ परवाने होते है,
खुदा-कसम, यूँ हीं, मरते है,
खुदा-कसम, यूँ हीं, रोते है।।