अंतरयुध का सैन्यबल

महाभारत के संग्राम में पांडवों और कौरवों के महारथी

SRM Delhi
Bliss of Wisdom
11 min readDec 29, 2016

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साधक आत्मानुभूति के लिए जब अंतरंग युद्ध में उतरता है तो साधक सैन्यबल व अवरोधक सैन्यबल उपस्थित ही होते हैं। साधक को इस बल की समझपूर्वक अंतर संग्राम में सजग होना होगा।

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भगवद् गीता का मर्म भगवद् गीता में ही व्यक्त है। भगवद् गीता के वक्ता भगवान श्री कृष्ण हैं। निःसंदेह भगवान शब्द निश्चित रूप से श्री कृष्ण को एक महान पुरुष के रूप में सूचित करता है। भगवान श्री कृष्ण पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान हैं। वे अर्जुन से भी कहते हैं — मैं तुम्हें यह परम रहस्य इसीलिए प्रदान कर रहा हूँ क्योंकि तुम मेरे भक्त तथा मित्र हो।

श्री बेन प्रभु ने भगवद् गीता का अद्भुत, विस्मयपूर्ण और विश्वासयुक्त चित्रण किया है — वे कहते हैं — मोह से दूर करने का मार्ग ही गीता है, समस्याओं का समाधान ही गीता है। तुम यदि अध्यात्म में जाना चाहते हो या जीवन के उद्देश्यों को पाना चाहते हो तो गीता तुम्हारे लिये ही है। जीवन में जो भी परिस्थितियाँ आती हैं गीता हमें उनका सामना करना सिखाती है। कहा जा सकता है गीता हमारे जीवन की दिशा का मार्गदर्शन करती है।

आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अनुसार भगवद् गीता की पृष्ठभूमि में कौरवों व पाण्ड़वों का युद्ध है जो हमारे भीतर चल रही बुराई और अच्छाई का प्रतीक है। कहने का तात्पर्य यही है कि यह युद्ध हमारे ही भीतर चल रहा है। यह युद्ध है परमतत्त्व की अनुभूति के लिए परमानंद की खोज में निकले साधक का। अध्यात्म मार्ग में चलने वाले साधक को योद्धा बनना होता है। अपने भीतर चल रहे युद्ध को जीतने के लिए, जहाँ उसी के गुण-दोष महारथी बनकर उसके पक्ष-विपक्ष में डटे हैं। जहाँ एक ओर उसके सद्गुण मित्र बनकर साथ दे रहे हैं वहीं उसकी बुराइयाँ शत्रु बनकर अवरोध उत्पन्न कर रही हैं। ऐसे मित्र और शत्रु रूपी महारथियों का वर्णन श्री बेन प्रभु ने प्रतीकों के माध्यम से बहुत ही अद्भुत परंतु सरल शैली में किया है — जिसमें 18 महारथी पाण्डवों की ओर से युद्ध कर रहे हैं अर्थात् अच्छाई के 18 गुण — जो जन्मोंजन्म के इस अंतर्युद्ध को जीतने के लिए आवश्यक हैं।

श्री बेन प्रभु कहते हैं आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अनुसार पहला गुण श्रद्धा है यदि यह गुण व्यक्ति के जीवन में आ जाए तो बाकी के 17 गुण स्वतः ही आ जाते हैं। ये महारथी इस प्रकार अपने गुणों को प्रतीक के रूप में दर्शाते हैं –

पांडव सेना के महारथी

1. युयुधान (सात्यिकी)

सात्यिकी अर्जुन के समान श्रेष्ठ योद्धा है। विचार शील अर्जुन के समान यदि कोई है, तो वह श्रद्धा है। युयुधान श्रद्धा का प्रतीक है। श्रद्धा द्वारा अपने भीतर चल रहे युद्ध को जीता जा सकता है। जिस प्रकार सात्यिकी ने युद्ध के 13वें दिन द्रोणाचार्य के धनुष को तोड़ा तो यह ताकत सिर्फ श्रद्धा में है कि वह द्रोणाचार्य रूपी संस्कारो को 101 बार तोड़ सकती है। और एक सद्गुरु के मिलने से श्रद्धा का गुण हमें मिलता है।

2. दृष्टधुम्न

यह द्रुपद का पुत्र व द्रौपदी का भाई है। यह पैदा होता है द्रुपद में से यानि यह आत्मिक अनुभव की तीव्र प्यास का प्रतीक है, जो कि द्रुपद यानि तीव्र वैराग्य से उत्पन्न होती है। दृष्टधुम्न अपनी बहन द्रौपदी की रक्षा करता है अर्थात् आत्मिक अनुभव की तीव्र प्यास, द्रौपदी यानि मेरुदण्ड की शक्ति की रक्षा करती है।

3. राजा विराट

पाण्डव वनवास के 13वें वर्ष में राजा विराट के पास रहे। मनुष्य जब अपने अज्ञात स्वरूप में वास करता है तो उसे स्वरूप का संवेदन होता है, आत्मा की थोड़ी थोड़ी अनुभूति होती है। यह अनुभूति विराट (आत्मा) के साथ रिश्ता जोड़ देती है और क्षुद्र के साथ रिश्ता तोड़ देती है। राजा विराट स्वरूप संवेदन के प्रतीक हैं।

4. द्रुपद

द्रुपद और द्रोणाचार्य मित्र थे। किसी कारण से दोनों में वैर और द्वेष उत्पन्न हो गया। वैसे तो तीव्र वैराग्य और संस्कार मित्र होते हैं लेकिन जब संस्कार बुराई के पक्ष में आ जाये तब वैराग्य में जो जोश व बल होता है वह भी बुराई के सामने युद्ध के लिये तत्पर हो जाता है। द्रुपद तीव्र वैराग्य के प्रतीक हैं।

5. चेकितान

जब पूरी नारायणी सेना बुराई के पक्ष में युद्ध कर रही थी, ऐसे में चेकिस्तान अकेले ही थे उस गोत्र के, जो अच्छाई के पक्ष में युद्ध कर रहे थे।

चेकितान आध्यात्मिक स्मृतियों का प्रतीक है। जिसे आत्मा से संबंधित बातों का ही स्मरण रहता है। आत्मिक स्मृतियाँ सांसारिक भ्रम में उलझने नहीं देतीं।

6. काशी राजा

अंबा, अंबालिका के पिता काशी राजा जो कि इस युद्ध भूमि में अत्यंत प्रौढ़ व्यक्ति हैं वह साधक की प्रौढ़ मति के प्रतीक हैं। प्रौढ़ मति छोटी उम्र में ही संसार की अनित्यता का, व्यर्थता के बोध का, अंतर्दृष्टि का व धर्म की रुचि का बोध कराती है।

7. धृष्टकेतु

धृष्टकेतु शिशुपाल का पुत्र है। शिशुपाल बुराई का प्रतीक है और धृष्टकेतु अच्छाई का जो बुराई के पक्ष में नहीं जाना चाहता। धृष्टकेतु संस्कारों की प्रतिरोधक शक्ति का प्रतीक है। यानि धृष्टकेतु पतंजलि योग के अनुसार यम का प्रतीक है। हम सबमें कुसंस्कार रूपी बुराई तो है ही, उससे लड़ने की शक्ति यम में होती है। यम कहता है भले ही मैं हिंसा में से जन्म लूँ पर अब अहिंसा के पक्ष में रहना चाहता हूँ। जब उसमें कुसंस्कारों की प्रतिरोधक शक्ति आ जाती है — तब यम अर्थात् अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह रूपी आजीवन नियम जीवन जीने की शैली बन जाते हैं।

8. शैव्य

शैव्य युधिष्ठिर के ससुर हैं, युधिष्ठिर की पत्नी देविका के पिता। देविका दिव्यता की प्रतीक है तो युधिष्ठिर निष्काम कर्म के प्रतीक हैं। जब निष्काम कर्म का गठबंधन दिव्यता से होता है, तब आध्यात्मिक नियम स्वयं प्रकट होते हैं। साधक के जीवन में आध्यात्मिक नियम होते हैं — शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान।

1. शौच — अंतर्शुद्धि — भीतर राग व द्वेष को कम करते जाना।

2. संतोष — जो जहाँ है, जितना है उसमें संतोष, तृप्ति का अनुभव होना।

3. तप — अपनी अंतर्शुद्धि के लिए विविध प्रयास से बाह्य व अंतरंग तप में उतरना।

4. स्वाध्याय — स्व के परिणामों का अध्ययन करना।

5. ईश्वर-प्रणिधान — ईश्वर के प्रति अनन्य समर्पण भाव होना।

शैव्य आध्यात्मिक अनुशासन (नियम) के प्रतीक हैं।

9. कुंती भोज

कुंती भोज कुंती के पालक पिता हैं। कुंती भोज आसान यानि शारीरिक व मानसिक स्थिरता के प्रतीक हैं। कुंती का पालन कुंती भोज करते हैं यानि प्रज्ञा का पालन आसन यानि शारीरिक व मानसिक स्थिरता से होता है।

10. पुरुजीत

पुरुजीत कुंती का भाई है और यह प्रत्याहार का प्रतीक है। प्रत्याहार यानि इन्द्रिय व मन की अंर्तमुखता। कुंती प्रज्ञा का प्रतीक है। एक बार प्रज्ञा खिलने पर अब उस प्रज्ञा की सुरक्षा प्रत्याहार यानि इन्द्रिय व मन की अंतर्मुखता करते हैं वैसे ही पुरुजीत (भाई) कुंती (बहन) की रक्षा करता है।

11. युद्धामन्यु

युद्धामन्यु पांचाल नरेश के पुत्र हैं यानि द्रौपदी के भाई। युद्धामन्यु प्राणशक्ति (प्राणायम) के प्रतीक हैं। प्राणशक्ति जो बाहर जा रही थी अब अंतर्मुखता के कारण वापस लौट रही है। अर्थात् प्राणायाम के माध्यम से प्राणशक्ति जब शरीर के स्तर पर आती है — तभी मेरुदण्ड़ की शक्ति सुरक्षित होने लगती है। साधक जब स्वयं पर लौटने के लिये श्वासोश्वास का आधार लेता है तो यह आधार साधक को भूतकाल और भविष्यकाल में जाने से रोकता है। साधक पूरा वर्तमान काल में आ जाता है जो आत्मसंवेदन का द्वार बनती है।

12. उत्तमौजा

उत्तमौजा भी द्रौपदी का भाई है। यह अर्जुन के रथ को पीछे से संभालते हैं। उत्तमौजा उत्तम औज यानि तेज का प्रतीक है। मेरुदण्ड की शक्ति जो संभोग की अति में मूलाधार के माध्यम से खर्च हो जाती है — ब्रह्मचर्य इस शक्ति की रक्षा करता है। यह औज (ओजस) बनता किस प्रकार से है? तो, हम जो भी खाते हैं उसमें सात धातु बनती है–

रस (Plasma), रक्त (Blood), माँस (Muscles), अस्थि (Bones), मज्जा (Bone marrow), मेदा (Fat), शुक्र (Sperm/ovary)

यदि इस शुक्र धातु का व्यय न हो यानि संभोग आदि की क्रिया न हो तो आठवीं धातु प्रकटती है इसे औज, ओजस कहते हैं। यदि शुक्र धातु का व्यय न हो तो पहले की छः धातु भी सुरक्षित रहती है।

13. सौभद्रो (अभिमन्यु)

अभिमन्यु सुभद्रा और अर्जुन के पुत्र हैं। सुभद्रा आचरण का प्रतीक है, अर्जुन विचारशीलता के प्रतीक हैं। विचारशीलता जब सुभद्र आचरण से मिलती है तो धारणा (अभिमन्यु) का जन्म होता है। अभिमन्यु धारणा के प्रतीक है यानि बात को धारण करने वाला विचार (ज्ञान) और आचरण (चरित्र) से धारणा का जन्म होता है अर्थात् सत्य को धारण करने की शक्ति पैदा होती है। अभिमन्यु यानि धारणा कितने समय के लिये है यह निर्णय करता है कि समाधि कितने समय के लिये धारण की गई है क्योंकि कम समय के लिए की गई समाधि में आत्मसंवेदन कम होगा और अधिक देर के लिये धारण करने पर ब्रह्मज्ञान होगा। अधिक देर तक समाधि धारण करने पर हम ही ब्रह्म हो जाते हैं। शर्त यही है कि आचरण (सुभद्रा) नहीं सोना चाहिए, अन्यथा आत्मसंवेदन ब्रह्मज्ञान तक नहीं पहुँच सकता। साधक समाधि में जाने वाले भावों को सतत धारण किये रहता है लेकिन धारणा ब्रह्मज्ञान के बिना अधूरी रहती है क्योंकि जितनी प्रगाढ़ धारणा होगी उतना ही प्रगाढ़ ध्यान होगा और तब उतनी ही प्रगाढ़ समाधि होगी।

पाँचों पाँडव पाँच चक्रों के प्रतीक हैं। ये पाण्डव जब द्रौपदी यानि मेरुदण्ड की शक्ति से मिलते हैं तो एक एक पुत्र पैदा होता है अर्थात् हर चक्र का एक मुख्य गुण प्रकट होता है। यानि एक-एक चक्र सक्रिय होता जाता है व उसका मुख्य गुण प्रकटता जाता है। यह पाँच गुण यानि पाँच महारथी इस प्रकार हैं-

14. प्रतिविंध्य (युधिष्ठिर का पुत्र)

भाषा का संयम आ जाता है फालतू नहीं बोलता (विशुद्ध चक्र)।

15. सुतसोम (भीम का पुत्र)

कर्म सत्ता साधक पक्ष में आ जाती है (अनाहत चक्र)।

16. श्रुतकर्मा (अर्जुन का पुत्र)

आहार की मर्यादा प्रकटती है (मणिपुर चक्र)।

17. शतानीक (नकुल का पुत्र)

परिग्रह का संयम आता है (स्वाधिष्ठान चक्र)।

18. श्रुतसोम (सहदेव का पुत्र)

मैथुन का रस टूटता है व भय जाता है (मूलाधार चक्र)।

18 महारथियों का निरीक्षण करने के बाद दुर्योधन का भय बढ़ गया कि कहीं भीष्म पितामह यह न कह दें कि पाण्डवों की सेना कितनी संगठित व मजबूत है। कहीं उनसे मैत्री के लिए न कह दें, तब दुर्योधन ने भी अपनी ओर से लड़ने वाले महारथियों का निरीक्षण किया।

दुर्योधन भौतिक कामनाओं का प्रतीक है। जैसे ही मनुष्य कर्मक्षेत्र से धर्मक्षेत्र में प्रवेश करता है, भौतिक कामनाएँ विरोध उत्पन्न करती हैं। दुर्योधन को बुराई का प्रतीक भी कहा जा सकता है जो कि सदा अच्छाई से भयभीत होती है। बुराई के पास कोई उद्देश्य नहीं होता है और इस बुराई पर विजय पानी है तो श्री कृष्ण अर्थात् चेतना को समर्पण करना होगा। कौरव सेना यानि बुराई के भी 7 महारथी हैं जिनका वर्णन श्री बेन प्रभु ने अत्यंत विस्मयकारी ढंग से कुछ इस प्रकार किया है।

कौरव सेना के सात महारथी:-

1. द्रोणाचार्य

जो कृत्य हम कर रहे हैं वो पिघल कर संस्कार बन जाता है ये संस्कार ही द्रोणाचार्य है। यह आदतें ही द्रोणाचार्य है और वो रहती हैं कौरवों (बुराई) के पक्ष में। हमारे जीवन में जो प्रवृत्ति अधिक व्याप्त है वो उसी ओर चले जाते हैं। संस्कारों के प्रतीक द्रोणाचार्य को मारना अर्थात् संस्कारों को मार गिराना सबसे बड़ी चुनौती है। संस्कारों को हटाने के लिए निष्काम कर्म की सहायता लेनी पड़ती है क्योंकि हम जैसा सोचेगें, करेगें, बोलेगें वो ही हमारा संस्कार बनेगा। अच्छा सोचेगें, बोलेगें, करेगें तो अच्छा संस्कार, नहीं तो बुरा संस्कार। ये धारा निरंतर चलती रहती है। इस धारा को तोड़ने के लिए निष्काम कर्म की सहायता लेनी होती है। संस्कार रुपी द्रोणाचार्य को मारने के लिए युधिष्ठिर रुपी निष्काम कर्म को माध्यम बनाया गया। बुराई को हटाने के लिए श्री कृष्ण का साथ भी अनिवार्य था जिसके बिना बुरे संस्कारों को नहीं मारा जा सकता और जहाँ ये संस्कार गिरे तब ये अच्छाई-बुराई का युद्ध लंबा नहीं चलता और जल्दी ही जन्मों जन्म का ये संग्राम खत्म हो जाता है।

2. भीष्म पितामह

भीष्म पितामह अहंकार का प्रतीक है। भीष्म पितामह ने विवाह नहीं किया। ये इस बात का प्रतीक है कि अहंकार का किसी से भी गठबंधन नहीं होता।

अहंकार का स्वरूप- ये चेतना जिस शरीर में आई है इसे मैं मानना अहंकार है इस शरीर का जिन-जिन वस्तुओं व लौकिक जगत में जिस से भी संबंध है उसे मेरा मानना अहंकार है। यह अहंकार शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक स्तर पर विद्यमान होता है।

श्री बेन प्रभु समझाते हैं कि:

शारीरिक अहंकार — अनित्यता के बोध से जाता है।

मानसिक अहंकार — प्रतिक्रिया की व्यर्थता से जायेगा और

बौद्धिक अहंकार — बौद्धिक-अहंकार में– कुबुद्धि जायेगी विचारशीलता से, हृदय का अहंकार अकर्त्ता भाव से जायेगा और संस्कार जायेगें समर्पण भाव से।

भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान था यानि अहंकार अपनी इच्छा से जायेगा। इतने बाणों के लगने के बाद भी अहंकार नहीं मरता वह मरेगा तो स्वयं की इच्छा अर्थात् समर्पण के भाव से कि श्री कृष्ण अब तू संभाल!

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3. कर्ण

कर्ण दुर्योधन का मित्र है और कुंती का पहला पुत्र भी। कर्ण राग का प्रतीक है ऐसी मान्यता कि सुख बाहर से मिल सकता है, बाहरी व्यक्ति से मिलता है इसलिये आतुरता पूर्वक उन की तरफ भागना ‘राग’ कहलाता है। चूंकि कर्ण का जन्म कुंती से हुआ है, कुंती प्रतीक है प्रज्ञा की। प्र + ज्ञा यानि जो सदा प्रकट है उसका ज्ञान होना प्रज्ञा कहलाता है। आत्मा सदा प्रकट है। आत्मा का ज्ञान हो जाना प्रज्ञा है। अभी हमारे भीतर यह प्रकट नहीं हुई फिर भी भीतर ये अप्रकट रूप से निरंतर है। यही अप्रकट प्रज्ञा पांडु अर्थात् विवेक के साथ सम्बन्ध बनाती है तो पांडव पैदा हुए। और बिना सोचे-समझे, बिना विवेक के धर्म साधन करती है तो राग अर्थात् कर्ण पैदा होता है। (कुंती ने बिना सोचे-समझे जप किया जिसके परिणामस्वरूप कर्ण का जन्म हुआ।)

4. विकर्ण

विकर्ण दुर्योधन का भाई है और द्वेष का प्रतीक है। ऐसी मान्यता है दुख भी बाहरी परिस्थितियों से आता है इसलिये आकुलता पूर्वक उनसे पीछे हटना ‘द्वेष’ कहलाता है। विकर्ण धृतराष्ट्र और गांधारी का पुत्र है। धृतराष्ट्र अज्ञान का प्रतीक है और गांधारी कुबुद्धि का प्रतीक है। अज्ञान और कुबुद्धि का मिलना द्वेष उत्पन्न करता है। विकर्ण सदा दुर्योधन के साथ रहता है। दुर्योधन भौतिक कामनाओं का प्रतीक है अर्थात् राग व द्वेष सदा भौतिक कामनाओं के साथ रहते हैं।

5. कृपाचार्य

कृपाचार्य अविद्या के प्रतीक हैं। जगत पर माया की परत चढ़ी है। जो इस माया को सच मानता है उसे अविद्या कहा जाता है।

कृपाचार्य (अविद्या) ने प्रथम प्रशिक्षण कौरवों और पांडवों (बुराई व अच्छाई) को दिया।

कृपाचार्य को चिंरजीवी कहा गया है यानि जो सतयुग के आरंभ से कलयुग के अंत तक रहतें हैं। कहा जा सकता है अविद्या कभी भी मरती नहीं है। अविद्या रूपी शक्ति है जो हमेशा जगत में रहेगी। अविद्या चिरंजीवी है इसीलिये वो कौरवों के साथ है। अविद्या द्वैत के जगत में शाश्वत विद्यमान होती है। परंतु हम इसे अपने जीवन से हटा सकते है।

6. अश्वत्थामा

अश्वत्थामा द्रोणाचार्य का पुत्र है। अश्वत्थामा की माता का नाम कृपि है जो कृपाचार्य की बहन है दोनो ही अविद्या के प्रतीक हैं यानि हम माया को सच मानते हैं। अविद्या हमेशा द्वैत में होती है जहाँ द्वैत गिरा, अद्वैत आया, वहाँ तो माया होती ही नहीं। कृपि अविद्या की प्रतीक है और द्रोणाचार्य संस्कारो के प्रतीक। इन दोनों के गठबंधन से पैदा होता है अश्वत्थामा यानि अप्रकट संस्कार + अविद्या दोनों के मिलन से पैदा होती है — वासना। अश्वत्थामा अप्रकट वासना का प्रतीक है। अप्रकट वासना निरंतर हमारे भीतर पैदा होती रहती है। इस जगत के खेल में अश्वत्थामा भी चिरंजीवी है यानि जगत में से वासनाएँ नहीं हटती पर हम उन्हें अपने जीवन से विदा कर सकते हैं।

7. भूरिश्रवा

सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा है। सोमदत्त व भीष्म चचेरे भाई हैं। भीष्म अहंकार के प्रतीक हैं तो सोमदत्त भी अहंकार के प्रतीक हैं। अहंकार का पुत्र भूरिश्रवा, प्रतीक है सांसारिक कर्मों का। संसार में कुछ पा लंू ऐसे जो मनुष्य के सांसारिक कर्म होते हैं, वे ही अहंकार को सुरक्षित रखते हैं। इसका जन्म भी अहंकार से होता है। निष्काम कर्म हमारे भीतर के अहंकार को तोड़ते हैं व समर्पण को पैदा करते हैं।

साधक आत्मानुभूति के लिए जब अंतरंग युद्ध में उतरता है तो साधक सैन्यबल व अवरोधक सैन्यबल उपस्थित ही होते हैं। साधक को इस बल की समझपूर्वक अंतर संग्राम में सजग होना होगा।

अनंत काल से इस संसार की माया का नियम है कि द्वैत में इस अच्छाई व बुराई का मानसिक युद्ध चला आ रहा है। हमारे भीतर बुराई को हटाने के लिए अच्छाई के पास महारथी ज़्यादा हैं लेकिन फिर भी हम बुराई से अधिक भयभीत होते हैं और जीवन भर संघर्ष करते रहते हैं। यही हमारा नकारात्मक दृष्टिकोण है। श्री बेन प्रभु कहते हैं कि अध्यात्म का नियम है कि अंधेरे को मिटाने के लिए प्रकाश को लाया जाता है। अंधेरा स्वयं चला जाता है। अच्छाई के साथ श्री कृष्ण यानि ईश्वर होने के कारण प्रकाश है। तुम बुराई को हटाने की चेष्टा मत करो, अच्छाई को विकसित करो। बुराई अपने आप चली जाएगी और तुम्हारे भीतर इस युद्ध का अंत होगा और तुम्हें शाश्वत सत्-चित्-आनंद में स्थिर होने का सौभाग्य प्राप्त होगा…

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