कृष्ण जीवन — समग्र शिक्षण की कथा
कृष्ण अनुपम हैं, कृष्ण अवर्णीय हैं, कृष्ण अनंत हैं… फिर भी अवतार कृष्ण की कथाओं का आकर्षण उनके विषय में मुझे बार-बार लिखने की अंतः प्रेरणा देता रहता है।
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भारतीय संस्कृति अवतार की लीलाओं की संस्कृति है। जीवन की मूलभूत शिक्षा, नीति, नियम आदि को इस संस्कृति ने अवतार-कथाओं के माध्यम से खूब गाया, सबको सुनाया और हर युग के मनुष्यों को जीवन जीने का ढंग सीखाया है। समय के इस बहते प्रवाह में गीत तो बहुत रह गए परंतु बोध खो गए, कहानियाँ तो बहुत मिलती रही परंतु शिक्षाएँ ओजल हो गयी। और इसलिए समय-समय पर कोई सद्ग़ुरु की चेतना अवतरित हो कर इन कथाओं में रहे रहस्य को पुनः उजागर करती है और तभी कृष्ण की प्रतिमाओं में प्राण-प्रतिष्ठा होती है।
कृष्ण की इस व्यापक परम्परा में विविध प्रकार की कथाएँ हैं जो हर उम्र के व्यक्ति को आकर्षित करती है। आज इस आलेख में हम कृष्ण के जीवन के तीन प्रमुख आयामों को समझेंगें जो कृष्ण के प्रति हमारा भक्ति-भाव बढ़ाए और साथ ही साथ हमारे जीवन को भी ऐसी समग्रता में विकसित होने का लक्ष्य कराए।
बाल कृष्ण — प्रेम का पूर्ण स्वरूप
भगवान कृष्ण के बाल स्वरूप को अनेक रूपों में विस्तार दिया है और सम्पूर्ण ‘भागवद पुराण’ बाल-कृष्ण की लीला के वर्णन से भरा हुआ है। कहानियाँ इतनी सारी है कि एक बालक का बचपन उन्हें सुनते सुनते ही बीत जाए। आधुनिक युग में रचनात्मक स्वतंत्रता का उपयोग करके इन कहानियों को इस ढंग से भी प्रस्तुत किया जा रहा है कि कृष्ण की एक अलौकिक छवि लोगों के हृदय में स्थापित हो सके। परंतु कितनी ही बार ऐसा होता है कि विस्तार इतना व्यापक हो जाता है कि उसमें से सार ग्रहण करने की क्षमता ही खो जाती है। कृष्ण-कथाओं के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। भागवद के विस्तार में कृष्ण का सार खो सा गया और इसलिए हम कृष्ण को केवल भगवान के रूप में पूजते रहे पर कृष्ण होने का साहस नहीं कर पाए।
मेरे लिए बाल-कृष्ण यानि प्रेम का पूर्ण स्वरूप हैं जिन्हें लोगों से प्रेम लेना भी आता है और उन्हें प्रेम लौटाना भी आता है। प्रेम — उसी अनमोल क्षण का नाम है जहाँ प्रेम-पात्र से ना तो कुछ लेने में झिझक होती है और ना ही कुछ देने में हिसाब रखा जाता है। बाल-लीलाओं में कृष्ण का यही स्वरूप मैंने सदा से देखा और समझा है और ऐसे ही स्वयं के जीवन को भी जीया है। चाहे गोकुल हो या वृंदावन बाल-कृष्ण सभी के चहेते थे और सभी उनके प्रति प्रेम-भाव से आकर्षित थे तो इसी परस्पर प्रेम को बाल-कृष्ण ने भी सजीवन करके रखा और समय समय पर होते दैत्यों और प्रकृति के आक्रमण से सभी की रक्षा करी।
प्रेम — उस सम्पूर्ण अहसास का नाम है जहाँ सभी पात्र अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार किसी भी कामना से आज़ाद हो कर बस देना-ही-देना जानते हैं। अवतार कृष्ण की बाल-लीला के इतने विस्तृत वर्णन का यही सार है कि जीवन के इस आरम्भ-काल से ही प्रेम-सभर बन कर जीवन की आधारशिला रखो।
युवा कृष्ण — योद्धा की क्रांति
जन्म से दस वर्षों तक अपनी बाल-लीला के माध्यम से प्रेम का पैगाम देने के बाद कृष्ण के जीवन का दूसरा आयाम आरम्भ होता है जब वह मथुरा आ कर कंस का वध करते हैं। प्रेम में इतनी शक्ति है कि वह जीवन के किसी भी संग्राम में, भय और मोह से आज़ाद हो कर, उतर सकता है और जीत सकता है। मामा कंस वैसे तो अत्यंत बलशाली था, युद्ध क्षेत्र में अनुभवी था परंतु जब अधर्म का नाश करने का समय आया तब कृष्ण ने संबंधों को नहीं देखा — यही उनकी मोह-रहित दशा थी, और कंस के बल व अनुभव से अवगत होने के बावजूद भी अति-निर्भयता से कंस-वध किया — यही कृष्ण की भय-रहित दशा थी।
कंस-वध के पश्चात् कृष्ण-बलराम संदीपनी ऋषि के पास शिक्षा अर्जन करने गए। कथा के इस भाग ने मुझे सदा ही ‘गुरु’ की महिमा से भरा-भरा रखा और यही समझाया कि जीवन में गुणों का आविर्भाव होने के पश्चात् भी गुरु-समागम ही हमारे जीवन की आध्यात्मिक नींव को दृढ़ कर सकता है। कृष्ण-लीला में भी प्रेम, निर्मोहपना और निर्भयता के गुणों से सम्पन्न होने के बावजूद भी कृष्ण ने गुरु से शिक्षा प्राप्त करना अत्यंत महत्वपूर्ण माना। अन्यथा स्वयं अवतार पुरुष कृष्ण को किसी ऋषि से शिक्षा अर्जन करने की क्या आवश्यकता? परंतु यह संदेश हर युग के लिए है कि इस जीवन में अध्यात्म-ज्ञान की प्राप्ति तो गुरु से ही सम्भव है।
शिक्षा पूर्ण करके जब कृष्ण लौटते हैं तब जरासंध (कंस के ससुर) कंस-वध का बदला लेने के लिए पूरी तैयारी के साथ मथुरा पर आक्रमण करते हैं। सत्रह बार के आक्रमण में जरासंध पराजित होता है परंतु अठारहवीं बार वह कालयवन को लेकर आता है जो अनेक मथुरावासियों को मारने में सक्षम है। तब कृष्ण मथुरावासियों से कहते हैं कि यह क्षेत्र छोड़ने का समय आ गया है और सभी लोगों को द्वारका जाने को कहते हैं जहाँ अपनी योग-शक्ति से पूरी नगरी का निर्माण करते हैं। युद्ध नहीं करके रण का मैदान छोड़ कर भाग जाने के कारण इतिहास में कृष्ण का नाम ‘रणछोड़दास’ भी पड़ गया परंतु अपने लोगों की सुरक्षा के लिए कृष्ण ने अपने व्यक्तित्व के दामन पर इस दाग का भी हंसते हुए स्वीकार किया।
इस सम्पूर्ण घटना ने मेरे जीवन को समय-समय पर मार्गदर्शन दिया है — योद्धा का धर्म है अपने लोगों को किसी भी प्रकार से बचाना जो कृष्ण ने सर्वोचित ढंग से कर के दिखाया। कभी कभी ऐसा ही होता है कि जीवन-संग्राम में काल का यवन (वेग) ऐसा होता है कि शक्ति और सामर्थ्य होने के बावजूद भी हम स्वयं को बचा नहीं पाते हैं। तब मेरे कृष्ण मुझे यही कहते हैं कि उस क्षेत्र से दूर हो जाना ही उचित है। जीवन की इस लीला में योद्धा का धर्म-कर्तव्य है कि स्वयं के संसाधनों (जान और माल) को नष्ट होने से बचाए और यदि यह बचना-बचाना रण-भूमि से भाग कर होता है तो अवतार कृष्ण की संवेदनशीलता उन्हें यही करने का विवेक देती हैं। यदि अवतार कृष्ण के जीवन की इस शिक्षा को हर व्यक्ति अपने जीवन में स्थान दे तो कितनी ही शक्ति और समय का विनाश करने से हम बच सकते हैं।
गृहस्थ कृष्ण — राजनीतिज्ञ जिसने समय की धारा को बदला
अवतार कृष्ण के जीवन का यह आयाम उनके राजनैतिक पहलू को उघाड़ता है। अनुपम है कृष्ण का जीवन और अद्भुत होंगी वह चेतना जिन्होंने कृष्ण के जीवन के इतने विविध आयामों को जाना-देखा-समझा और फिर कथाओं में गुँथा !
द्वारकाधीश होने के पश्चात् अब कृष्ण अवतार के प्रमुख कार्य — ‘धर्म संस्थापना’ का समय आरम्भ होता है। अनेक छोटे बड़े दैत्यों से युद्ध करने के बाद यहीं से महाभारत के युद्ध की तैयारी आरम्भ हो गयी थी। समाज के गिरते हुए नैतिक मूल्य और अनाचार व अत्याचार से भरे राज्यों को अब एक भीषण युद्ध में प्रवेश करना था जिसमें सम्पूर्ण भारतवर्ष सम्मिलित होता है। इस महायुद्ध के बाद ही अधर्म का नाश और उस काल के धर्म (क़ानून और व्यवस्था) की स्थापना सम्भव थी।
कृष्ण के जीवन का यह युद्ध भी उनके अपनों के साथ ही था इसलिए कृष्ण ने उन्हें अलग-अलग ढंग से शांति प्रस्ताव दे कर समझाने के अनेक प्रयास किए परंतु जब युद्ध अनिवार्य हो गया तो स्वयं सारथी (साक्षी) बन कर उस युद्ध में उपस्थित भी रहे। प्रेम, निर्मोहिता, निर्भयता, संवेदनशीलता, साहस, विवेक और विराट दृष्टिकोण के धारक होने के पश्चात् यहीं कृष्ण के जीवन से एक और महत-शिक्षा मिलती है कि जब भी ऐसे संग्राम में उतरना पड़े तब स्वयं को सारथी (साक्षी) के रूप में रहना होगा। पहले तो अपने लोगों (या मन) को समझा कर युद्ध को टालने की ही चेष्ठा होनी चाहिए परंतु यदि संग्राम अपरिहार्य है तो साक्षी हो कर उसका सामना करना ही कृष्ण-प्रेरणा है।
इस युग में भी अवतार कृष्ण का जीवन हर एक व्यक्ति के आंतरिक विकास की बोध-कथा है। आवश्यकता है एक ऐसे दृष्टिकोण को उघाड़ने की जो कृष्ण की सर्व-आयामता को स्पष्ट रूप से देख सके और स्वयं के जीवन में धर्म की संस्थापना कर सके।