द्रौपदी वस्त्रहरण एक और अदृश्य शक्ति
द्रौपदी वस्त्रहरण की ऐतिहासिक घटना ब्रह्मसंचालन के अंतर्गत कर्म सिद्धांत का अद्भुत प्रतीक है। कर्म व्यवस्था में कर्म तो होता है परंतु तत्क्षण उसका परिणाम दृष्टिगोचर नहीं होता क्योंकि एक अदृश्य शक्ति इन दोनों के बीच सतत कार्यशील है।
श्रीमद्भगवद् गीता एक महावाक्य, एक महाश्लोक, एक महाकाव्य है। यह किसी जाति या संप्रदाय का ग्रंथ नहीं है, यह भगवान श्री कृष्ण द्वारा कही गई शाश्वत वाणी है। अध्यात्म के जितने आयाम हो सकते हैं, वे सभी इसमें समाए हुए हैं। एक संन्यासी भी इसमें रस ले सकता है तो एक गृहस्थ भी इसमें डूब सकता है। जैसे अमृतमयी अनूठे वचन भगवान कृष्ण ने इसमें बोले हैं तो ऐसा लगता है मानो ब्रह्माण्ड का समस्त अस्तित्व बोल रहा है। युगों से बहुत लोगों ने भगवद् गीता की व्याख्या एक विद्वान और एक टीकाकार की तरह की है। लेकिन कृष्ण चेतना के अनुभव के आधार पर और अर्जुन की जगह खड़े होकर इसको किसी ने उजागर नहीं किया। लेकिन हमारे प्रत्यक्ष सद्गुरुदेव श्री बेन प्रभु अपने प्रगाढ़ ज्ञान और अनुभव के आधार पर श्रीमद् भगवद् गीता के धारावाहिक सत्संगों में इसके अत्यंत महत्वपूर्ण आध्यात्मिक रहस्यों को उद्घाटित कर रहे हैं। भगवद् गीता की यह महान ऐतिहासिक घटना किसी न किसी आध्यात्मिक प्रतीक की ओर संकेत देती है। जिसकी व्याख्या श्री बेन प्रभु ने इतनी स्पष्टता और सहजता से की है कि एक सामान्य व्यक्ति भी इसे आसानी से समझकर ग्रहण कर सकता है और जीवन जीने की कला सीख सकता है। श्रीमद् भगवद् गीता में मुख्य रूप से तीन योग- कर्मयोग, भक्तियोग व ज्ञानयोग हैं। कर्मयोग इनमें सबसे अधिक प्रख्यात है। हमारा कर्म कैसा हो कि वह योग बन जाए, कर्मयोग हमें इसी लक्ष्य तक पहुँचाता है। कर्मयोग का हार्द है भगवद् गीता के दूसरे अध्याय का 47वाँ श्लोक, जिसमें कर्मयोग का पूरा सूत्र निहित है।
कर्मण्येवाधिकरस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुभूर्र्मा ते सोऽस्त्वकर्मणि।।
इस श्लोक में कहा गया है कि मनुष्य जीवन में तुम्हारा कर्म करने में अधिकार है अर्थात् तुम अपना कर्म करने में तो स्वतंत्र हो लेकिन कर्म का फल पाने में नहीं। क्योंकि कर्म का फल तो कर्म के नियम के अनुसार उदय में आता है। इसे श्री बेन प्रभु ने द्रौपदी वस्त्र हरण की महान ऐतिहासिक घटना के दृष्टांत के द्वारा समझाया है। इस घटना का आध्यात्मिक प्रतीक कर्मयोग को दर्शाता है।
हस्तिनापुर में भरी सभा में द्रौपदी वस्त्र हरण की घटना घटी। लेकिन द्रौपदी का वस्त्र हरण न हो सका। दुर्योधन व दुःशासन वस्त्र हरण का कर्म कर रहे थे। वे अपने कर्म को करने में स्वतंत्र थे लेकिन उस कर्म का फल वस्त्र हरण के रूप में उनको नहीं मिल रहा था। क्योंकि कृष्ण रूपी एक अदृश्य शक्ति उनके कर्म और कर्मफल के बीच में कार्य कर रही थी। इसलिए कर्म करने में तुम्हारा अधिकार है लेकिन कर्मफल की प्राप्ति में उस अदृश्य शक्ति का अधिकार है। वह अदृश्य शक्ति तुम्हारे कर्मों की सत्ता भी हो सकती है और ईश्वर भी। इसमें आगे कहा गया है कि तुम फलप्राप्ति का हेतु भी मत बनो अर्थात् जो भी तुम करते हो वह तुम्हारे या दूसरों के कर्मों के उदय में था जिसके लिए ईश्वर ने तुम्हारा उपयोग किया। कर्म का फल तुम्हारे हाथ में नहीं तो इसका अर्थ यह नहीं कि तुम अकर्म की तरफ चले जाओ अर्थात् कर्म करने में तुम्हें भय या प्रमाद आ जाए और तुम कर्म करना छोड़ दो। जो भी तुम्हारा स्वधर्म है वह तुम्हें करना होगा। अतः कर्मयोगी वह है जो कर्म तो पूरी निष्ठा से करता है लेकिन फल प्राप्ति के समय समभाव में होता है। अर्थात् सुख, दुख, हर्ष, शोक, लाभ, हानि आदि भावों का न होना क्योंकि एक अदृश्य शक्ति इसमें सतत कार्य करती है।
श्री बेन प्रभु कहते हैं कि ऐसे समत्व भाव में आना ही बुद्धि का सर्वोत्कृष्ट फल है और ऐसा मनुष्य कर्मों में उत्तम ‘कर्म योग’ को साध लेता है यानि ईश्वर से उसका जुड़ान हो जाता है और कर्म करते हुए भी ईश्वर से उसके योग की धारा नहीं छूटती। ऐसे व्यक्ति को अनामयपद यानि मोक्ष की प्राप्ति होती है।