बुद्ध — समय की माँग

Sri Guru
Bliss of Wisdom
Published in
4 min readMar 13, 2019

भारत की धन्य धरा पर अनेक-अनेक ऋषि, महात्मा, संत, मुनि जैसी दिव्य चेतनाएँ अवतरित हुई हैं और उनकी दिव्यता यही है कि जन्मोंजन्म से चल रही परिभ्रमण की परंपरा को तोड़ने का उन्होंने कोई न कोई उपाय ढूँढ निकाला — उस मार्ग पर चले और दूसरों को भी मार्ग बताया। अनंत के आँगन में हो रही है प्रकृति और पुरुष की यह भव्य लीला और इस लीला में अनंत का सापेक्ष अनुभव कर लेना ही अनंत में समा जाना है। यहाँ जिस भी मनुष्य ने इस अनंत व शाश्वत तत्त्व का अनुभव किया है वही महात्मा है, संत है।

महात्माओं की इसी शृंखला में एक अमर नाम है — भगवान बुद्ध का — जो सम्राट के घर में पैदा तो हुए परंतु मनुष्य के जीवन की दरिद्रता, रोग, वृद्धावस्था और मृत्यु की होती अनिवार्य घटना को देख कर अपनी पराधीनता के बोध से भर गए। जीवन क्या, मृत्यु क्या, दुःख क्यों और बंधन क्या? — ऐसे अनेकों प्रश्नों के उत्तर खोजने बुद्ध प्रकृति की गोद में गए। छः वर्षों की खोज, तपस्या और साधना के पश्चात् एक दिन उन्हें स्वयं की स्मृति हो आयी और तभी से वह ‘बुद्ध’ कहलाए।

बुद्ध की क्रांति — समय की माँग

‘बुद्ध’ का जन्म-नाम था सिद्धार्थ और उनका गोत्र था गौतम। उस समय सम्पूर्ण भारत में हिन्दू धर्म को प्रमुख मान्यता प्राप्त थी। यह हिन्दू धर्म हिमालय और इंदु महासागर के विस्तार के क्षेत्र में रहते हर मनुष्य के जीवन को जीने का ढंग था। हिन्दू मान्यता के अंतर्गत समाज को चार विभागों में बाँटा गया था — ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। प्राचीनतम समय के अनुसार यह विभाजन मनुष्य के सत्त्व, रजस व तमस गुणों के आधार पर किया गया था परंतु समय के प्रवाह में इस आधारशिला के कमज़ोर होने पर यह वर्गीकरण जन्म के आधार पर होने लगा। इस वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मण को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था और क्रम अनुसार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति निम्न स्तर पर मानी जाने लगी। चूँकि सत्त्व गुण के अभाव में भी जन्म से ब्राह्मण माने जाते मनुष्य को समाज की उच्चतम प्रतिष्ठा प्राप्त थी इसलिए इन व्यक्तियों में अहंकार की मात्रा बढ़ने लगी। स्वाभाविक है कि जब भी किसी व्यक्ति को उसकी पात्रता से अधिक सम्मान मिल जाता है तो उसका अहंकार दृढ़ होता है और ज्ञान मंद पड़ने लगता है। ऐसे मंद ज्ञान और पुष्ट अहंकार से भरे मनुष्य की सम्पूर्ण जाति (ब्राह्मण) उस समय के समाज की सर्वोच्च जाति मानी जाती थी जो समाज की संस्कार नीति का संचालन करने का अधिकार रखती थी। यही कारण था कि समाज में हर ओर अंध-अनुशरण, असंतुलन व अन-अराजकता का माहौल फैला हुआ था।

युवराज सिद्धार्थ से भगवान बुद्ध तक की यात्रा

जीवन के स्वरूप को देखकर मन में उठे प्रश्नों के तूफ़ान ने युवराज सिद्धार्थ के जीवन को उन प्रश्नों के समाधान खोजने के मार्ग पर आरूढ़ कर दिया और एक रात वे महल छोड़ कर वन की ओर निकल पड़े। सिद्धार्थ की खोज अत्यंत मौलिक थी और समाधान पाने के तीव्र प्यास ने उन्हें अलग-अलग अनेक संत-महात्माओं के द्वार तक पहुँचाया। किसी संत के समागम में उन्हें तत्त्व-चर्चा मिली तो किसी ने ध्यान का मार्ग बताया। किसी के कहने पर वह तपस्या करने लगे तो किसी के कहने से हठ योग साधने लगते। परंतु कहीं से भी संपूर्ण मार्ग नहीं मिलने पर अंततः उन्होंने एक जगह स्थिर होकर अपने भीतर बैठने का निश्चय किया। उस समय उनकी काया इतनी दुर्बल हो चुकी थी कि वह स्वयं से चलने को भी सक्षम नहीं थे। परंतु उनका निर्णय दृढ़ था और प्यास प्रगाढ़। ऐसे में एक रात्रि वे आँख बंद करके अपने विचारों को देखते रहे और स्वयं के अस्तित्व की गहराई में खोते चले गए। उन्होंने जाना कि सभी समाधान स्वयं के भीतर ही हैं। दुःख का कारण भी अपने भीतर है और उस कारण का निवारण भी स्वयं में ही है। प्रातः जब व अपनी समाधि से बाहर आए तो ‘बुद्ध’ हो चुके थे। बुद्ध यानि जो मन-बुद्धि के द्वन्द से पार हो गए, द्वैत से पार जिसने अद्वैत का अनुभव कर लिया और सीमाओं को तोड़ कर जो स्वयं अनंत-असीम महा-अस्तित्व में लीन हो गए।

भगवान बुद्ध का मार्ग

स्वयं की निजता का बोध उजागर होने के पश्चात स्वाभाविक रूप से उठती करुणा ने बुद्ध को भी अन्य पीड़ित जनों को सत्य का सम्यक् मार्ग बताने के लिए प्रेरित कर दिया और तत् पश्चात बुद्ध ने पैंतीस वर्षों तक धर्म का प्रचार किया। बुद्ध के लिए ‘धर्म’ यानि मुक्ति के शाश्वत नियम और इन नियमों को जीवन में धारण करने से पूर्व बुद्ध ने चार आर्य सत्य की उद्घोषणा करी। भगवान बुद्ध ने जन-सामान्य समझ सके इस भाषा में चार श्रेष्ठ सत्य कहे कि —

  • दुःख है।
  • दुःख का कारण है।
  • दुःख के कारण का निवारण है।
  • कारण-निवारण का मार्ग है।

स्मरण रहे, भगवान बुद्ध का समय वह समय था जब मनुष्य अपने दुःख से मुक्त होने के लिए ब्राह्मणों के पास जाते थे और विविध क्रिया-कांड और अंधविश्वास में उलझ कर स्वयं को और अधिक दुखी करते थे। इस दुःख चक्र से निकलने के लिए बुद्ध ने चार आर्य सत्य के अंतर्गत अष्टांग मार्ग को उजागर किया जो मनुष्य को उसके दुःख-चक्र की पीड़ा से निकालने के अनमोल साधन थे।

समय-सापेक्ष है बुद्ध की देशना

आज के इस वैज्ञानिक युग में भगवान बुद्ध का बताया मार्ग सभी के लिए समग्र रूप से स्वीकार्य है। स्वयं के मन को जान कर मन से पार होने का सम्पूर्ण मार्ग बड़ी ही स्पष्टता से भगवान बुद्ध ने उजागर किया है। कहीं किसी क्रिया-कांड या अंध-विश्वास को स्थान नहीं देते हुए मनुष्य को करना क्या है दुःख से आज़ाद होने के लिए — इसकी सचोट और स्पष्ट अभिव्यक्ति भगवान बुद्ध की देशना में प्रस्तुत है। आज के मनुष्य के लिए यह अत्यंत उपयोगी और अनिवार्य है कि वह भगवान बुद्ध के वचनों का यथार्थ स्वरूप समझ कर दुःख की विविध संवेदनाओं से मुक्त हो जाए और मनुष्य जीवन की परम सम्भावनाओं का स्पर्श करे।

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Sri Guru
Bliss of Wisdom

Founder of Shrimad Rajchandra Mission, Delhi, She is a mystic, a yogi and a visionary Spiritual Master who is guiding seekers on their Spiritual Journeys…