भगवद गीता — एक सम्पूर्ण मार्ग

Sri Guru
Bliss of Wisdom
Published in
4 min readMay 29, 2018
Artwork dedicated by Parina Kamdar | © Shrimad Rajchandra Mission, Delhi

श्रीमद् भगवद गीता के अट्ठारह अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग की विस्तृत प्ररूपना करी है। मेरे अब तक के पढ़े हुए किसी भी धर्म-ग्रंथ में मार्ग की सम्पूर्ण-समग्रता को इतनी सूक्ष्मता से दर्शाया नहीं गया जैसा कि भगवद गीता के माध्यम से गाया गया है। सांसारिक मनुष्य का अस्तित्व शरीर, मन और बुद्धि के तीन उपकरण से बना है। ऐसे में किसी एक मार्ग का चुनाव करके उससे योग (ध्यान) साधने की मनुष्य की कोशिश निरर्थक ही रहती है। कर्म-भक्ति-ज्ञान इन तीन मार्ग की गहन समझ और घनिष्ट दृढ़ता ही मनुष्य में ध्यान की भूमिका का निर्माण करते है।

मनुष्य की मूलभूत भूल

श्रीमद् भगवद गीता का अभ्यास व नित्य पाठ करते मनुष्य में भी ऐसा भ्रम है कि कर्म-भक्ति-ज्ञान में से किसी एक मार्ग का चुनाव करके उसपर चलने से ईश्वर की प्राप्ति होगी। परंतु किसी भी उपाय से कर्म-भक्ति-ज्ञान मार्ग का विभाजन नहीं किया जा सकता क्योंकि मनुष्य का अस्तित्व अखंड है — शरीर-मन-बुद्धि तीनों ही उपकरणों से मनुष्य को परम तत्त्व तक पहुँचना है।

भगवद गीता — मार्ग का क्रम

श्रीमद् भगवद गीता का पहला अध्याय — पात्र परिचय का अध्याय है। दूसरे अध्याय में सांख्य योग की उद्घोषणा है। यदि कोई पूर्व का आराधक है तो दूसरे अध्याय के बोध से ही उसके आंतरिक संस्कार जागृत हो जाएँगे और वह ध्यान की परम समाधि को उपलब्ध हो जाएगा। परंतु जो पूर्व का आराधक नहीं है उसे फिर मार्ग के क्रम का पालन करना होगा। इसलिए तीसरे से छठे अध्याय तक कर्म योग की प्रस्तावना है। कर्म योग से निष्काम कर्म (कर्म कर फल की इच्छा नहीं कर) के बीज डलते हैं जो हमारी बुद्धि को कामनाओं से आज़ाद करती है। अध्यात्म क्षेत्र में निष्काम बुद्धि ही ‘हृदय’ कहलाती है और यह हृदय अब तैयार होता है ईश्वर के स्वरूप को समझने के लिए। इसलिए सातवें से बारहवें अध्याय तक भक्ति योग में ईश्वर के स्वरूप का भरपूर वर्णन है। ईश्वर के स्वरूप को समझ कर अब अपने भीतर उस ईश्वरत्व का अनुभव करने का क्या मार्ग है यही ज्ञान योग में तेरहवें से अट्ठारवें अध्याय का विषय है।

कर्म-भक्ति-ज्ञान मार्ग में योग (ध्यान) की महिमा

मनुष्य का जीवन सतत किसी न किसी कर्म में ही उलझा हुआ है। चाहे वह कर्म शारीरिक हो या मानसिक हो परंतु कर्म की शृंखला चलती ही जा रही है। मनुष्य यदि मात्र कर्म करके ईश्वर का अनुभव करना चाहेगा तो वह असम्भव है क्योंकि मात्र कर्म करना हमें यांत्रिक (mechanical) बना देता है। इस यांत्रिकता के साथ ईश्वर की परम चैतन्यता का अनुभव नहीं हो सकता। तो मनुष्य भक्ति मार्ग का चुनाव कर लेता है जो अत्यंत भावुकता में मनुष्य को उलझाए रखती है। मार्ग के अनिवार्य विज्ञान को समझे बिना मात्र भावुक हो कर ईश्वर की अनुभूति असंभव है। तो कुछ मनुष्य कर्म और भावुकता से अन्य ज्ञान का मार्ग चुन लेते हैं परंतु ईश्वर-अनुभव के अभाव में यह ज्ञान भी मात्र चर्चा-विचारना के अंतहीन तर्कों में उलझा रहता है।

इससे स्पष्ट होता है कि एकांत में किसी भी मार्ग का चुनाव करने से मनुष्य उलझता ही है और ध्यान (योग) से दूर ही रहता है। किसी प्रत्यक्ष श्री गुरु की सन्निकटता में शिष्य को यह तीनों मार्ग से होते हुए योग की आंतरिक क्रिया समझ में आने लगती है और श्री गुरु द्वारा दी गयी साधना उसके अंतस में रहे ईश्वरत्व को उजागर करने में मददरूप होती है। महर्षियों और परम ज्ञानियों के किसी भी उपदेश का सार संसार में उलझना नहीं होता परंतु संसार में रहकर ही ईश्वर में विलीन होने का होता है परंतु समर्थ सद्गुरुओं के अभाव में अपूर्ण मार्ग को ही पूर्ण मानकर चलते शिष्य-वर्ग मन में हताश का अनुभव करते हैं और ईश्वर के अस्तित्व के प्रति सदा ही संदेह से भरे रहते हैं।

मेरे प्यारे वाचक, साधक! कुछ समय पहले मैं भी आप ही की तरह एकांत मार्ग को सम्पूर्ण मार्ग मानकर ईश्वर अनुभव का असम्भव प्रयास कर रही थी परंतु श्री गुरु की कृपा में जब सम्पूर्ण मार्ग का उघाड़ हुआ तभी योग हुआ, ध्यान की अनहद घटना घटी और ‘सब एक ही है’ की अंतर्दृष्टि उजाग़र हुई। शास्त्रों में यही मार्ग गाया गया है और भगवद गीता में तो क्रम से पूरे मार्ग को उघाड़ा गया है। इसलिए इस मनुष्य जीवन में अनिवार्य है एक बार भगवद गीता के गहनतम अर्थों को किसी श्री गुरु के आश्रय में समझना और समझ कर जीना।

Watch Sri Ben Prabhu explaining the Bhagavad Gita in a series of Satsangs:

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Sri Guru
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Founder of Shrimad Rajchandra Mission, Delhi, She is a mystic, a yogi and a visionary Spiritual Master who is guiding seekers on their Spiritual Journeys…