भगवद गीता — विस्तार का सार
साधक-साधना-सिद्धि का संपूर्ण मार्ग
[English Translation available »]
भारतीय संस्कृति में समस्त वेद और पुराण की विस्तृत मौजूदगी के उपरांत भी जो स्थान भगवद गीता का है वैसा किसी और ग्रंथ का नहीं है। महाभारत के युद्ध की पुष्टभूमि में हुआ भगवद गीता का संवाद भगवान श्री कृष्ण का उस प्रत्येक अर्जुन के लिए है जो मनुष्य जीवन की महिमा को समझ कर इसके परम अर्थ को साधना चाहता है। SRM के साथ तीन वर्षों (2016–18) तक चली भगवद गीता की इस यात्रा ने एक ओर विश्व-व्यवस्था में रहे अनेकों स्वरूप को उघाड़ कर मन में रही उलझनों को सुलझाया तो दूसरी ओर हम सबके भीतर रही अर्जुन रूपी विचारशीलता को विचार मार्ग से होते हुए निर्विचार ब्रह्म अनुभव तक पहुँचने का संपूर्ण मार्ग उजागर किया।
अर्जुन — साधारण मनुष्य या साधक?
हम सभी के भीतर विचारों का द्वन्द सदा ही चलता रहता है। यह विचार सही-ग़लत, शुभ-अशुभ, इच्छा-अनिच्छा के आधार पर बदलते रहते हैं। विचारों के इस प्रवाह में कभी मनुष्य सुख का अनुभव करता है तो कभी दुखी होता है परंतु सुख-दुःख का मूल कारण समझ में नहीं आने से विचारों के इस जाल में ही उलझा रहता है। हर साधारण मनुष्य के जीवन का यही अनकहा सत्य है परंतु अर्जुन उस विचारशीलता का प्रतीक है जो सुख-दुःख के अनुभवों के पीछे रहे कारण तक पहुँचना चाहता है। महाभारत के युद्ध-आरंभ से पूर्व अर्जुन इसी दुविधा में था कि अपने लोगों को कैसे मारूँ? इस एक विचार का विस्तार अर्जुन में इतना प्रगाढ़ हो गया कि वह विषाद में डूब गया। दुःख की निरंतर बहती अनुभूति को ‘विषाद’ कहते हैं। सामान्यतः मनुष्य जब विषाद की स्थिति में होता है तो भीड़ से अलग होने लगता है या फिर ऐसे लोगों से अपने विषाद की चर्चा करता है जो पहले से ही विषाद में डूबे हुए हैं। लेकिन अर्जुन ने इस विषाद अवस्था में भगवान श्री कृष्ण के आगे अपनी उलझन को प्रस्तुत किया और इसीलिए अर्जुन साधारण मनुष्य न हो कर एक साधक हो गया। इसके पश्चात संपूर्ण भगवद गीता अर्जुन रूपी साधक को उसकी परम सिद्धि की यात्रा में ले जाने का मार्ग बन गई।
अर्जुन और सांख्य योग
साधारण मनुष्य जब साधक भाव में प्रवेश करता है तो सर्वप्रथम उपदेशक उसे सांख्य योग से परिचित कराता है। सांख्य अर्थात् वस्तु-स्वरूप की सम्यक् व्याख्या और योग अर्थात् मेल होना। सांख्य योग का वर्णन जब कोई पूर्व का आराधक मनुष्य सुनता है तो उसकी सुषुप्त साधना जागृत होती है और परम अनुभव का योग हो जाता है। सांख्य योग के अंतर्गत वस्तु स्वरूप का यथार्थ निर्णय होने के कारण साधक का कर्त्ता भाव क्षीण होते होते क्षय हो जाता है और वह अपने ‘योग’ की सर्वोच्च अनुभूति में प्रवेश कर के जन्म-मरण की परंपरा से आज़ाद हो जाता है। भगवान श्री कृष्ण सांख्य-योग की संपूर्ण व्याख्या भगवद गीता के दूसरे अध्याय में करते हैं जो पूर्व के आराधक वर्ग में वर्तमान साधना के सूत्र को उजागर करते हैं। सांख्य योग में स्वयं के अनंत व शाश्वत स्वरूप का निश्चय होने से शरीर-मन-बुद्धि के कार्यों से कर्त्तपाना छूट जाता है जो कालक्रम से मोक्ष का कारण बनता है।
अर्जुन और साधना का आरंभ
प्रायः हर मनुष्य पूर्व जीवन से साधना के गहरे संस्कार ले कर नहीं आया होता। ऐसे मनुष्य को सांख्य के समृद्ध सूत्र भी स्व-सन्मुख नहीं कर सकते। मनुष्य में रहे अज्ञान और अहंकार के कारण वह हर कर्म में कर्त्ता भाव को दृढ़ करता रहता है और इसीलिए किसी भी कर्म से कर्त्ता-भाव को वापिस लेने का कार्य अत्यंत कठिन लगता है। ऐसी स्थिति में रहे हर मनुष्य के लिए आरम्भ होती है भगवद गीता की कर्म-भक्ति-ज्ञान योग की समर्थ व्याख्या जो मनुष्य को उसके परम गंतव्य ‘मोक्ष’ तक पहुँचने का सर्वोत्तम मार्ग है।
अर्जुन और कर्म योग
विषाद से विषाद मुक्त होने के लिए साधना की सम्पूर्ण प्रक्रिया में से गुज़रना अनिवार्य है। इसका आरम्भ करते हुए सबसे पहले कर्म योग की बात भगवान श्री कृष्ण करते हैं। मनुष्य चाहे कहीं भी रहे परंतु कर्म से आज़ाद नहीं हो सकता। किसी न किसी प्रकार से वह शारीरिक-मानसिक-वाचिक कर्मों के ताने-बाने में बँधा ही होता है। ऐसे मनुष्य को सबसे पहले कर्म-योग के चार मूलभूत आधार पर जीवन जीने का अभ्यास करना होता है। यह चार मूलभूत आधार हैं -
- कर्मों के फल की आशा का त्याग करना यानि निष्काम कर्म करना
- राग-द्वेष की मंदता से कर्म करना
- कर्त्ता भाव की मंदता से कर्म करना
- समष्टि के कल्याण के लिए कर्म करना
जब मनुष्य के भीतर अपने कर्मों के प्रति इन चार भावों की सजगता आती है तो उसके विचारों का ताना-बाना टूटने लगता है। कर्मों के फल की आशा का त्याग होने से ही भविष्य में कर्म-उदय की संभावना कम होने लग जाती है जो साधक को अंतरंग स्वरूप समझने का अवकाश देता है। कर्म योग के इस विषय का विस्तार भगवान श्री कृष्ण ने भगवद गीता के अध्याय तीन से छः तक किया।
कर्मयोगी अर्जुन और भक्ति योग
कर्मयोगी अर्जुन के भीतर अब ऐसी मानसिक और शारीरिक स्थिति का निर्माण होता है कि वह ब्रह्मांड, ब्रह्म और पिंड के वास्तविक स्वरूप को समझ सके। धर्म संप्रदायों में भगवान, ईश्वर, ब्रह्म, परब्रह्म के स्वरूप को विस्तार करके समझाया गया है परंतु यह स्वरूप मनुष्य को तब तक समझ ही नहीं आता जब तक कि वह कर्म-योगी नहीं होता। मनुष्य के मस्तिष्क के वह विशिष्ट तंतु (neurons) जब तक सक्रिय नहीं होते जो अनंत को समझ सके तब तक न ही विराट की महिमा होती है और न ही उस अनंत स्वरूप को अनुभव करने का साहस उठता है। वस्तुतः अनंत को अनुभव करने के लिए स्वयं की तथाकथित सुरक्षा की दीवारों को तोड़ना होगा जो तभी संभव है जब हम कर्म योगी होने के पश्चात विराट का स्वरूप समझें। इस सम्पूर्ण प्रकरण की विस्तार पूर्वक व्याख्या भगवद गीता के अध्याय सात से बारह तक हुई है। इसके परिणाम वश साधक में अनंत की अनुभूति को उजागर करने का दिव्य सहास प्रकट होता है। जब सभी विभक्तियों (विभागों) से ऊपर उठ कर एक ऐसी दृष्टि का विकास होता है जो विभाग रहित है, समग्र में व्यापक है और कण कण में व्याप्त ‘एक’ ही शक्ति है — ऐसा समझ आने लगता है तब इसी स्थिति को ‘भक्ति’ कहा जाता है। भक्ति योग के अंत में अर्जुन इसी भक्ति की श्रेणी में प्रवेश करता है जो साधक की अंतर यात्रा का महत पड़ाव है। समस्त प्रकृति में रहे ‘एक’ पुरुष तत्त्व को देख पाना मात्र भक्त की दृष्टि में संभव हो पाता है।
भक्त अर्जुन और ज्ञान योग
भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा गाए तीन योग एक साधक के जीवन की क्रम-बद्ध यात्रा है। किसी भी योग को हटा कर अंतिम सिद्धि तक पहुँचना असंभव है। जब साधक कर्मयोगी होता है तभी उसमें अनंत को समझने का सामर्थ्य आता है और जन्मोजन्म की अज्ञान व अहंकार की दीवारों को तोड़ने का साहस उठता है। अब आरम्भ होता है ज्ञान योग का विषय जिसमें भगवान अपने भक्त को स्पष्टता से बताते हैं कि उस ‘परम’ अनुभव तक पहुँचने के लिए पुरुषार्थ क्या और कहाँ करना है। इसके विस्तार में अध्याय तेरह से सत्रह तक भगवान श्री कृष्ण त्रिगुणात्मक प्रकृति और पुरुष के विषय का विस्तार करते हैं। सत्त्व-रजस-तमस के गुणों में प्रत्येक मनुष्य बँधा हुआ है क्योंकि सम्पूर्ण प्रकृति का सर्जन ही इन तीन गुणों से हुआ है। गुणों के इस व्यापक तंत्र में रहकर गुणातीत ईश्वर का अनुभव करने के लिए मनुष्य को ‘सत्त्व प्रकृति’ में आना होगा जिसे श्री कृष्ण ने ‘संन्यास’ कहा है। सत्त्व प्रकृति (संन्यास) ही मनुष्य के विकास-क्रम का वह पड़ाव है जहाँ से अनंत और शाश्वत अनुभव की धारा का आरम्भ हो सकता है इसलिए ज्ञान योग के माध्यम से भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ‘सत्त्व’ में आने का मार्ग बताते हैं। यही श्री कृष्ण का संन्यास है।
संन्यासी अर्जुन और परम योग
कर्म-भक्ति-ज्ञान योग के मैत्री पूर्ण समन्वय से जब विचारशील अर्जुन जीवन-व्यापन करता है, कर्मयोगी होते हुए सत्त्व प्रकृति (संन्यास) में स्थिर होता है तो अंतर्युद्ध आरम्भ होता है — जन्मोजन्म के संस्कार और वर्तमान की समझ के बीच। ऐसे में अर्जुन के लिए प्रत्यक्ष भगवान कृष्ण के प्रति उसका संपूर्ण समर्पण और उनके वचन अनुसार जीवन ही उसके अंतर-युद्ध को जीतने के प्रबल साधन होते हैं। सद्गुरू के प्रति अपनी निष्ठा और पुरुषार्थ की दृढ़ता के आधार पर ही साधक परम-योग की सिद्धि को प्रकट करता है। भगवद गीता के अंतिम अध्याय में अर्जुन की यही निष्ठा ‘करिष्ये वचनं तव’ की घोषणा से प्रस्तुत होती है जो प्रत्यक्ष सद्गुरू की आज्ञा-आराधन की तत्परता का सूचन करती है।
अर्जुन का संन्यास और मोक्ष की यात्रा
भगवद गीता का अंतिम अध्याय है ‘मोक्ष संन्यास योग’ जो सभी अध्याय का निचोड़ है। भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि कर्म योग से कर्म के फल की आशा का त्याग ही वास्तविक ‘त्याग’ है। इस त्याग के पश्चात ही ईश्वर का अनंत ऐश्वर्य, उसकी भूति और विभूति तथा उसका ‘शक्ति’ स्वरूप मनुष्य की बुद्धि में समझ के स्तर पर समा पाता है। इस निर्णय के बाद ही ज्ञान योग का आरम्भ होता है जिसमें साधक ‘सत्त्व प्रकृति’ को साधता है। इसी सत्त्व में स्थित होने को श्री कृष्ण ‘संन्यास’ कहते हैं। तद् अनुसार त्याग से संन्यास और संन्यास से मोक्ष की यह अपूर्व यात्रा सम्पन्न होती है।
अर्जुन — साधक-साधना-सिद्धि का संगम
भगवद गीता की अतुल्य महिमा ही इसलिए है क्यूँकि यह हम सभी अर्जुन जैसे सामान्य मनुष्य को कर्म योग के माध्यम से साधक की भूमिका में प्रवेश करा कर साधना का सम्पूर्ण मार्ग उजागर करती है जो अंततः मनुष्य जीवन की परम सिद्धि को उपलब्ध होता है। यदि किसी सद्गुरू के विचक्षण ज्ञान से उठता भगवान श्री कृष्ण का यह गीत समझा जाए तो इस एक जीवन में असंख्य जन्मों में नहीं हुआ कार्य हो सकता है। संप्रदायों और सांप्रदायिक मान्यताओं में उलझी भगवद गीता जब किसी तत्त्व-द्रष्टा सद्गुरू को छूकर बहती है तो अनेक अर्जुनों को उनके जीवन का उद्देश्य स्पष्ट होता है और इस जगत की आध्यात्मिक चेतना अपने शिखर पर पहुँचती है। मेरा अनुभव है कि सद्गुरू तत्त्व की निष्ठापूर्वक यदि भगवद गीता के सूत्रों को जीया जाए तो वर्तमान और भविष्य दोनों ही उज्ज्वल हैं।