अंतिम उपदेश

परम कृपालु देव श्रीमद् राजचंद्र जी विरचित

Sri Guru
Bliss of Wisdom
10 min readNov 13, 2018

--

इच्छत है जो जोगी जन, अनंत सुख स्वरूप।
मूल शुद्ध वह आत्मपद, सयोगी जिनस्वरूप।। १ ।।

आत्म स्वभाव अगम्य है, अवलंबन आधार।
जिनपद से दर्शाया हाई, वह स्वरूप प्रकार।। २ ।।

जिनपद निजपद एकता, भेदभाव नहीं कोई।
लक्ष्य होवे उनका हमें, कहे शास्त्र सुखदाई।। ३ ।।

जिन प्रवचन दुर्गम्य है, थकते अति मतिमान।
अवलंबन श्री सद्गुरू, सुगम और सुखखान ।। ४ ।।

उपासना जिन चरण की, अतिशय भक्ति सहित।
मुनिजन संगति रति अति, संयम योग घटित।। ५ ।।

गुण प्रमोद अतिशय रहे, रहे अंतर्मुख योग।
प्राप्ति श्री गुरु कृपा से, जिन दर्शन अनुयोग।। ६ ।।

प्रवचन समुद्र बिंदु में, उलट आता है ज्यों।
पूर्व चौदह की लब्धि का, उदाहरण भी त्यों।। ७ ।।

विषय विकार सहित जो, रहे मति के योग।
परिणाम की विषमता, उसको योग अयोग।। ८ ।।

मंद विषय और सरलता, सह आज्ञा सुविचार।
करुणा कोमलतादि गुण, प्रथम भूमिका धार।। ९ ।।

रोके शब्दादिक विषय, संयम साधन राग।
जगत इष्ट नहीं आत्मा से, मध्य पात्र महाभाग्य।। १० ।।

नहीं तृष्णा जीने की हो, मरण योग नहीं क्षोभ।
महापात्र इस मार्ग के, परम योग जीतलोभ ।। ११ ।।

आवत बहु समदेश में, छाया जाय समाय।
आवत ऐसे स्वभाव में, मन स्वरूप भी जाए।। १ ।।

उपजे मोह विकल्प से, समस्त यह संसार।
अंतर्मुख अवलोकन से, विलय होते नहीं देर।। २ ।।

सुखधाम अनंत सुसंत चही, दिन रात रहे तद् ध्यान में ही।
परशांति अनंत सुधामय जो, प्रणमूँ पद को, पाऊँ, जय हो।।

Shrimad Rajchandraji

परम कृपालु देव श्रीमद् राजचंद्र जी के देह विलय से १२ दिन पूर्व राजकोट शहर में ‘अंतिम उपदेश’ काव्य की सहज रचना हुई। इस रचना के पश्चात् श्रीमद् जी चैतन्य की अविरल धारा में स्वरूप समाधि में ही मग्न रहे। ‘अंतिम उपदेश’ में कृपालु देव ने एक साधक को उपयोगी मोक्ष मार्ग के आरम्भ से अंत तक के सभी उपदेश और सूचना रूप मार्गदर्शन दिए हैं। मोक्ष मार्ग पर आदर्श कौन? से ले कर पात्रता कैसी? और अनुभव क्या? — ये सभी प्रश्नों के समाधान इस लघु काव्य के अंदर समाविष्ट हैं। एक साधक को अपनी स्थिति अनुसार इस एक काव्य में से सभी आवश्यक उत्तर मिल जाते हैं ऐसे गम्भीर आशय और अतिशय से भरे इस काव्य के रहस्य के कुछ मुख्य बिंदु को इस लेख में प्रस्तुत करते हैं।

मोक्ष मार्ग — लक्ष्य क्या व आदर्श कौन?

इच्छत है जो जोगी जन, अनंत सुख स्वरूप।
मूल शुद्ध वह आत्मपद, सयोगी जिनस्वरूप।। १ ।।

प्रथम पंक्ति का प्रथम शब्द ही मनुष्य में रही ‘इच्छा’ के निरीक्षण का लक्ष्य देता है। मोक्ष मार्ग पर चलते साधक सुख विरोधी कदापि नहीं है परंतु यह साधक सुख को उस दिशा में खोज रहा है जहाँ वह सदा से है। जहाँ एक ओर संसारी जीव क्षणिक सुख की खोज-प्राप्ति-खोज के अंत-हीन चक्र में संपूर्ण जीवन गवाँ देते हैं वहीं दूसरी ओर आत्म-लक्षी साधक की मौलिक इच्छा हाई कि अनंत शाश्वत सुख का अनुभव स्वयं के भीतर करे। श्री गुरु के सत्संग से मिलते मार्गदर्शन से साधक को यह अत्यंत स्पष्ट है कि यह अनंत और शाश्वत सुख उसे अपने भीतर ‘शुद्ध आत्मस्वरूप’ में ही अनुभव में आ सकता है। इस मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए आदर्श हैं ‘सयोगी जिनस्वरूप’ अर्थात् देह में रहे वीतराग अथवा निर्ग्रंथ मुनि। यहाँ स्पष्ट रूप से साधक को सावधान किया है कि मोक्ष मार्ग पर वही हमारे आदर्श हो सकते हैं जो मन-वचन-काया के योग से उपस्थित भी हैं और आत्म-अनुभव में लीन भी हैं। इस प्रथम गाथा में ही साधक को स्पष्ट हो जाता है कि मोक्ष मार्ग पर लक्ष्य क्या होना चाहिए और लक्ष्य-पूर्ति के लिए आदर्श कौन होने चाहिए?

स्वभाव प्राप्ति किसके आश्रय से?

आत्म स्वभाव अगम्य है, अवलंबन आधार।
जिनपद से दर्शाया हाई, वह स्वरूप प्रकार।। २ ।।

आत्म अनुभूति की यात्रा में निकले साधक को यह स्पष्ट होना चाहिए कि आत्मा का स्वभाव समझ में आ पाना असंभव है परंतु अनुभव में आ सके ऐसा है। जैसे पानी का स्वाद पीने वाले को अनुभव में आता है परंतु समझने में अनेक मर्यादाएँ हैं। इसी प्रकार आत्म-स्वभाव भी अनुभव में आता है परंतु समझने-समझाने में अनेक मर्यादाएँ होती है। इसलिए इसे समझने के लिए प्रत्यक्ष सद्गुरू का अवलंबन चाहिए जो हमारे मार्ग को हर स्तर पर आधार देता है। चाहे प्रारंभिक भूमिका हो या फिर अंतर विकास की उच्च भूमिका परंतु श्री गुरु के अवलंबन के बिना स्वयं से अनुभव उघड़ने लगे ऐसा संभव नहीं। जो राग-द्वेष की ग्रंथियों को तोड़ने के मार्ग पर हैं ऐसे श्रीगुरु या जो राग-द्वेष से पार हो चुके हैं ऐसे वीतराग प्रभु का अवलंबन ही स्वरूप तक पहुँचने का मार्ग बता सकता है।

मार्ग क्या है?

जिनपद निजपद एकता, भेदभाव नहीं कोई।
लक्ष्य होवे उनका हमें, कहे शास्त्र सुखदाई।। ३ ।।

मार्ग का स्वरूप इस एक गाथा में अत्यंत अर्थ-गंभीरता के साथ प्रस्तुत किया है। आरम्भिक भूमिका के साधक को इस गाथा से यही बोध मिलता है कि स्वयं का आंतरिक स्वरूप और परमात्मा के स्वरूप में कोई भी भेद नहीं है। जो भेद दिखता है वह मात्र अज्ञान के कारण है। परंतु जैसे-जैसे साधक अंतरंग अनुभव की उड़ान भरता है वैसे-वैसे उसे स्वयं ही समझ में आने लगता है कि जिनपद यानि परमात्मा से लेकर निजपद यानि मुझ तक सभी कुछ ‘एक’ ही है। साधक की भूमिका के अनुसार ही स्वरूप एकता से ले कर अद्वैत तक के सभी सिद्धांत इन दो पंक्तियों में से उभर कर आते हैं। और इसी ‘एकता’ के अनंत सुख रूप अनुभव के लिए सभी शास्त्र भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से एक ही बात कर रहे हैं।

शास्त्र की मर्यादा और श्री गुरु की महिमा

जिन प्रवचन दुर्गम्य है, थकते अति मतिमान।
अवलंबन श्री सद्गुरू, सुगम और सुखखान ।। ४ ।।

जिन्होंने भी निज-स्वरूप का अनुभव किया है उन्होंने उस अनुभव के मार्ग को बताने की कोशिश अवश्य ही करी है और उसी मार्ग को शब्द रूप से जहाँ संकलित किया है वह शास्त्र कहलाते हैं। इन शास्त्रों को सामान्य बुद्धि से समझ पाना असंभव है क्योंकि ‘अति मतिमान’ मनुष्य भी शास्त्र में गूँथी बातों को स्वानुभव के अभाव में समझ नहीं पाते। स्मरण रहे, हम उन्हीं शब्दों के अर्थ निकाल पाते हैं या समझ पाते हैं जिनका हमें अनुभव हो या परिचय हो। जैसे — हम पानी शब्द को समझ ही तभी पाते हैं जब हमारा पानी से कोई परिचय हो या अनुभव हो, अन्यथा समझना मात्र कल्पना ही होगी। इसी प्रकार शास्त्रों में आते ‘अनंत आनंद’ जैसे शब्दों को समझना हमारे लिए असंभव है क्योंकि इनका हमें कोई भी अनुभव नहीं है। लेकिन परम कृपालु देव कहते हैं कि यदि यह समझना किसी प्रत्यक्ष सद्गुरू के अवलंबन से हो तो समझ पाना सरल हो जाता है और सुख की खान जैसा लगता है अर्थात् आत्म-स्वरूप को समझने में, उसके प्रयोग करने में, चर्चा करने में सदैव ही ऐसे सुख की अनुभूति होती है जो निरंतर बना रहता है।

श्री गुरु कृपा का अधिकारी कौन?

उपासना जिन चरण की, अतिशय भक्ति सहित।
मुनिजन संगति रति अति, संयम योग घटित।। ५ ।।

गुण प्रमोद अतिशय रहे, रहे अंतर्मुख योग।
प्राप्ति श्री गुरु कृपा से, जिन दर्शन अनुयोग।। ६ ।।

जिन-दर्शन के आधार पर इन दो गाथाओं में अधिकारी के लक्षणों की स्पष्ट व्याख्या करी है कि श्री गुरु कृपा के लिए जीव अधिकारी कब बनता है -

१ अतिशय भक्ति — श्री गुरु की आज्ञा को अत्यंत श्रद्धा पूर्वक उठाना और संदेह व प्रमाद के दूषण से दूर रह कर नि:शंक भाव में प्रवृत्त होना।

२ मुनिजन संगति रति अति — जो निर्ग्रंथ हुए हैं और जो उस मार्ग पर है उन सभी के संग में, चर्चा में अत्यंत हर्ष का अनुभव होना।

३ संयम योग घटित — निर्ग्रंथ मार्ग को समझ कर, मुनि जन के संग में अत्यंत स्वाभाविक रूप से मन-वचन-काया के योग संयम में प्रवेश कर जाते है।

४ गुण प्रमोद अतिशय रहे — साधक में दूसरों के प्रति दोष-दृष्टि कम होती है और गुण दृष्टि का विकास होता है।

५ अंतर्मुख योग — मन-वचन-काया के योग का उपयोग आत्म साधना के लिए होता है, विषय विकार के सेवन के लिए नहीं।

जिस भी मनुष्य के जीवन में यह पाँच लक्षण होते हैं वही गुरु-कृपा का अधिकारी हो जाता है क्योंकि शास्त्र में लिखे शब्दों का आशय समझने के लिए बुद्धि की नहीं गुरु-गम की आवश्यकता होती है।

स्वयं के वचन में चौदह पूर्व का समावेश

प्रवचन समुद्र बिंदु में, उलट आता है ज्यों।
पूर्व चौदह की लब्धि का, उदाहरण भी त्यों।। ७ ।।

इस गाथा के मधयम्म से परम कृपालु देव स्पष्ट रूप से यह घोषणा कर रहे हैं कि मेरे इन वचनामृतों में चौदह पूर्व का ज्ञान समाया हुआ है क्योंकि अनुभव की अनंत धारा में से यह ज्ञान उभर कर आ रहा है। जैसे कोई समुद्र यदि पानी की एक बूँद में समा जाता है ऐसे ही समस्त पूर्वों का ज्ञान मेरे द्वारा हुई रचनाओं में समाहित है।

इन वचनों को अन-अधिकारी आत्म-श्लाघा और अहंकार से भरे हुए देखेगा परंतु साधक और भक्त का हृदय इन्हीं वचनों में अनुभव और उसकी अभिव्यक्ति की ख़ुमारी का रस महसूस कर पाएगा।

साधक को चेतावनी

विषय विकार सहित जो, रहे मति के योग।
परिणाम की विषमता, उसको योग अयोग।। ८ ।।

श्री गुरु का योग हो जाने के बाद भी यदि मनुष्य में इन्द्रिय विषय के प्रति का आकर्षण और क्रोध-मान-माया-लोभ आदि विकार मंद नहीं होते तो ऐसे में श्री गुरु का योग उसके लिए होते हुए भी नहीं होने के बराबर ही माना जाता है। चूँकि जीव के आंतरिक परिणामों में कोई भी फेरफ़ार नहीं हुआ इसका अर्थ ही है कि श्री गुरु का योग मात्र पुण्य-प्रभाव से हुआ है कोई आंतरिक पात्रता से नहीं। इस गाथा में परिणामों के निरीक्षण की चेतावनी देते हुए श्री गुरु के योग का यथार्थ उपयोग करने का संकेत दिया है।

साधक की तीन भूमिका — प्रथम, मध्यम, उत्तम

प्रथम भूमिका

मंद विषय और सरलता, सह आज्ञा सुविचार।
करुणा कोमलतादि गुण, प्रथम भूमिका धार।। ९ ।।

इन तीन गाथाओं में साधक को अपनी आंतरिक स्थिति का निरीक्षण करने के लिए महत्वपूर्ण उपदेश दिए हैं। प्राथमिक भूमिका में साधक में कुछ इस प्रकार से परिवर्तन आते हैं :

  1. मंद विषय — सभी इंद्रियों के विषय जो साधक को सतत बाहर में भटकाते हैं उनमें रस कम होने लगता है और शुभ कार्यों के प्रति इन्द्रिय विषयों में रस प्रकटता है।
  2. सरलता — साधक के भीतर में ऐसी निष्कपटता प्रकटती है कि उसकी कथनी और करनी में एक रूपता होने लगती है। झूठ, फ़रेब आदि का बोझ वह अपने भीतर रख ही नहीं पाता।
  3. आज्ञा सुविचार — श्री गुरु के वचन का पुनः पुनः विचार करता है और उनसे हुए आंतरिक बदलाव के प्रति धन्यवाद के भाव से भरता है।
  4. करुणा कोमलतादि गुण — मोक्ष मार्ग पर चलने का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि अब साधक केवल मात्र अपने बारे में विचार करे। अन्य के प्रति संवेदनशीलता के भाव से साधक का हृदय भरा हुआ रहना यही साधक के आंतरिक रूपांतरण के लक्षण हैं।

मध्यम भूमिका

रोके शब्दादिक विषय, संयम साधन राग।
जगत इष्ट नहीं आत्मा से, मध्य पात्र महाभाग्य।। १० ।।

साधक की मध्यम भूमिका के लक्षण बताते हुए यहाँ कहा है कि :

  1. रोके शब्दादिक विषय — पूर्व संस्कारों के आधीन जब कभी भी इन्द्रिय विषयों का वर्चस्व हावी होने लगता है तब साधक का मनोबल इतना सुदृढ़ होता है कि उन उन विषयों में बह जाने से वह स्वयं को रोक पाता है। साधक अब इन्द्रिय विषयों का मालिक होता है, ग़ुलाम नहीं।
  2. संयम साधन राग — सत् देव-गुरु-धर्म के सत् साधनों के प्रति अब इस साधक को राग का भाव प्रकटता है। स्मरण रहे, वीतराग होने के इस मार्ग में भी पहले शुभ-राग की भूमिका अवश्य आती है और उसी भूमिका के आश्रय से शुद्धता को साधना होता है।
  3. जगत इष्ट नहीं, आत्मा से — पात्रता बढ़ने पर साधक के भीतर स्पष्टता प्रकटती है और इसलिए उसके बाह्य व आंतरिक निर्णय आत्मा-लक्षी होने लगते है। सांसारिक कर्तव्यों के प्रति निष्ठ होते हुए भी उसकी आत्मिक जागृति मंद नहीं होती ऐसा सजग जीवन होने लगता है।

उत्तम भूमिका

नहीं तृष्णा जीने की हो, मरण योग नहीं क्षोभ।
महापात्र इस मार्ग के, परम योग जीतलोभ ।। ११ ।।

साधक की उत्तम अवस्था के लक्षण बताते हुए यहाँ परम कृपालु देव स्पष्ट करते हैं कि :

  1. नहीं तृष्णा जीने की — मनुष्य को जीवन जीने की इच्छा इसलिए होती है क्योंकि वह कोई न कोई इच्छा पूर्ति करना चाहता है; चाहे वह इच्छा शारीरिक हो, मानसिक हो, पारिवारिक हो या सामाजिक हो। परंतु उत्तम भूमिका में आए साधक इच्छाओं के इस दावानल से बाहर हो जाते हैं।
  2. मरण योग नहीं क्षोभ — जीवन और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिसे इच्छा पूर्ति के लिए जीने की तृष्णा है उसे सदा ही मृत्यु का भय बना रहता है। साधक की उत्तम स्थिति में उसे मृत्यु का भय छूट जाता है क्योंकि वह जन्म-मरण को मात्र एक खेल के रूप में ही देखता है।
  3. परम योग — साधक की आंतरिक विकसित स्थिति में वह परम से एकत्व का अनुभव करता है यानि ईश्वरीय अनुभूति उसमें प्रकट होने लगती है।
  4. जीत लोभ — ईश्वरीय अनुभूति के प्रकट होने के परिणाम रूप साधक को आंतरिक तृप्ति का अनुभव होता है। एक ऐसा एहसास जिसमें हर प्रकार की सांसारिक व पारमार्थिक इच्छाओं का विलय हो जाता है। इसी स्थिति को ‘जीत लोभ’ कहते हैं अर्थात किसी भी प्रकार की कोई भी इच्छा रूपी लोभ का भाव नहीं होना।

साधना मार्ग की सूर्य से उपमा

आवत बहु समदेश में, छाया जाय समाय।
आवत ऐसे स्वभाव में, मन स्वरूप भी जाए।। १ ।।

उपजे मोह विकल्प से, समस्त यह संसार।
अंतर्मुख अवलोकन से, विलय होते नहीं देर।। २ ।।

जिस प्रकार से सूर्य जब अपनी चरम अवस्था, खमध्य(zenith) में होता है तब मनुष्य की छाया उसके स्वयं के शरीर में समा जाती है उसी प्रकार जब साधक को आत्म अनुभव होता है तब अनुभव की इस चरम अवस्था में संकल्प-विकल्प की धारा में उलझा मन भी खो जाता है और निर्विकल्प स्वानुभव प्रकटता है।

जिस प्रकार सूर्य के मध्य बिंदु में नहीं होने से कभी लम्बी तो कभी छोटी छाया बनती ही रहती है उसी प्रकार जब मन स्व के अनुभव में नहीं होता तो मोह के रूप में संकल्प और विकल्पों की अविच्छिन्न धारा बहती ही रहती है और इन संकल्प-विकल्प के आधार पर मनुष्य का समस्त संसार उभरता रहता है। परंतु जिस क्षण साधक अपने अस्तित्व के केंद्र पर आ जाता है उसी क्षण उसका समस्त स्वप्न रूपी संसार विलीन हो जाता है।

परम कृपालु देव की आंतरिक दशा का वर्णन

सुखधाम अनंत सुसंत चही, दिन रात रहे तद् ध्यान में ही।
परशांति अनंत सुधामय जो, प्रणमूँ पद को, पाऊँ, जय हो।।

परम कृपालु देव के जीवन लीला की यह अंतिम करती है जिसके पश्चात् उन्होंने अपनी मौन समाधि में प्रवेश किया था। इन दो पंक्तियों के माध्यम से अपने भीतर अनुभव की जो धारा चल रही है उसकी ओर संकेत दिया है और परम पद को नमन किया है।

--

--

Sri Guru
Bliss of Wisdom

Founder of Shrimad Rajchandra Mission, Delhi, She is a mystic, a yogi and a visionary Spiritual Master who is guiding seekers on their Spiritual Journeys…