योग और यौगिक क्रिया
भारतीय विचारधारा में ‘योग’ को मनुष्य जीवन का उच्चतम आदर्श माना गया है। अनादि से चली आ रही इस योग परंपरा का निर्माण, प्रचार और व्याख्या योग में दूबे हुए मनीषियों द्वारा करी गयी है परंतु समय के इस बहते प्रवाह में ‘योग’ शब्द अपनी मौलिकता को खो बैठा है और इसके परम उद्देश्य की समझ में अत्यंत मंदता आ गयी है। ‘योग’ का अर्थ होता है — जोड़ना, मिलान करना, मेल करना। यानि मनुष्य देह में रहकर परम सत्ता ‘ईश्वर’ की अनुभूति करना और उस समग्र व्यापक शक्ति से मेल करना।
योग का अवमूल्यन
अनुभूति के दिव्य शिखर की घोषणा करता हुआ यह शब्द ‘योग’ आज के समय में मात्र शारीरिक स्वास्थ्य, रोग उपचार या मानसिक शांति के लिए उपयुक्त हो रहा है। इसका मूल उद्देश्य था जीवन के उस आयाम का अनुभव करना जो हम सभी का स्त्रोत है, हमारी शाश्वत जीवन ऊर्जा है। परंतु ‘योग’ के माध्यम से भी हम क्षणिक उपाय व उपचार की खोज में ही लगे हुए हैं। यही ‘योग’ का अवमूल्यन (devaluation) कहा जा सकता है।
योग की विभिन्न व्याख्याएँ
प्रत्येक दर्शन में योग शब्द का उपयोग अलग अलग ढंग से किया गया है परंतु सभी व्याख्याएँ अंततः ‘अखंड एक्य’ (Integrated Oneness) की अनुभूति की ओर ही इशारा कर रही हैं। चाहे हिन्दू मान्यता हो या जैन या बौद्ध — सभी दर्शन परम अनुभूति को ‘योग’ कहते हैं और उसके मार्ग को प्रशस्त करने के विविध उपाय का प्रचार करते हैं।
पातंजल योग दर्शन के अनुसार — योगश्चित्तवृत्त निरोधः अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
अध्यात्म दृष्टि से जब चित्त की सभी वृत्तियों का निरोध हो जाता है तब जो अनुभव होता है वह उसी एक ‘अखंड स्वरूप’ का ही अनुभव होता है जिसे ‘योग’ कहते हैं।
श्रीमद् भगवद गीता के अनुसार — सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा समत्वं योग उच्चते अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्दों में सर्वत्र समभाव रखना योग है।
अध्यात्म दृष्टि में यह सर्वत्र समभाव की संभावना ही तब होती है जब मनुष्य सभी में वही ‘एक अखंड’ का अनुभव करता हो और इसी दशा को ‘योग’ कहते हैं।
सांख्य दर्शन के अनुसार — पुरुषप्रकृत्योर्वियोगेपि योगइत्यमिधीयते अर्थात् पुरुष एवं प्रकृति की पृथकता (भिन्नता) को स्थापित कर पुरुष का स्व स्वरूप में अवस्थित होना ही योग है।
अध्यात्म दृष्टि में पुरुष यानि ईश्वर और प्रकृति यानि मनुष्य का देह-मन-बुद्धि-कर्म आदि। जब मनुष्य को अनुभव के स्तर पर यह निर्णय हो जाता है की पुरुष और प्रकृति दोनों अलग ही हैं उसी को ‘योग’ कहते हैं।
जैन मत में आचार्य हरिभद्र सुरीश्वर के अनुसार — मोक्खेण जोयणाओ सव्वो वि धम्म ववहारो जोगो अर्थात् मोक्ष से जोड़ने वाले सभी व्यवहार योग है।
अध्यात्म दृष्टि में व्यवहार और निश्चय की संधि करते हुए ‘एक’ शुद्धात्मा के अनुभव-लक्ष्य-प्रतीत में बीतता जीवन ही ‘योग’ कहलाता है।
बौद्ध धर्म के अनुसार — कुशल चितैकग्गता योगः अर्थात् कुशल चित्त की एकाग्रता योग है।
अध्यात्म दृष्टि में चित्त की कुशलता सम्पूर्ण व्यवहार शुद्धि का मार्ग है और ध्यान की एकाग्रता से जो प्रकटता है उसी को हम ‘योग’ कहते हैं।
विष्णु पुराण के अनुसार — योगः संयोग इत्युक्तः जीवात्म परमात्मने अर्थात् जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग है।
अध्यात्म दृष्टि में जीव स्वयं ईश्वर (परम-आत्मा) का ही अंश है। अज्ञान व अहंकार के कारण जीव व ईश्वर में कोई भेद न होने के बावजूद भी भेद अनुभव में आता है। इसी भेद के गिर जाने को ‘योग’ कहते हैं।
योग और योगिक क्रिया
योग की यह विविध व्याख्याएँ ‘परम एक्य’ के मार्ग और मंज़िल दोनों को ही उजागर कर रही हैं। परंतु योग की अनुभूति के लिए अंतरंग शुद्धि का संपूर्ण मार्ग समझ कर प्रयोग में उतरना अनिवार्य है। SRM के अंतर्गत हमने ‘योग’ के समग्र मार्ग और प्रयोग की विधि को उजागर किया है। ‘योग’ की अनुभूति के लिए योगिक क्रियाओं का प्रयोग होता है जिसमें मूलतः चार प्रकार के साधनों का उपयोग होता है। इन साधनों का यथार्थ स्वरूप समझ कर जब हम ध्यान-अभ्यास में उतरते हैं तो अपने भीतर एक नयी धारा से परिचित होते हैं जो धारा ‘परम एक्य’ से हमें जोड़ती है। योगिक क्रिया के प्रयोग में लिए जाते चारों साधन का संक्षिप्त विवरण कुछ इस प्रकार से है -
प्रथम साधन — श्वासोश्वास
योगिक क्रिया में सर्वप्रथम अवलंबन श्वासोश्वास का लिया जाता है। प्रत्येक ध्यान विधि का पहला चरण श्वास निरीक्षण ही होता है। योगिक क्रिया में श्वास और विचार का गणित समझते हुए हम कुछ समय श्वास निरीक्षण में उतरते हैं जिससे ऊपरी सतह पर रहे विचारों की मात्रा कम होती है। जब विचारों की मात्रा कम होती है तभी यह मन अगले स्तर पर जाने के लिए तैयार होता है। सामान्य रूप से मनुष्य का मन सदा ही विचारों की भाग-दौड़ में व्यस्त रहता है तो कोई सूक्ष्म कार्य करने के लिए मन में अवकाश ही नहीं होता। श्वासोश्वास निरीक्षण से मन को प्राथमिक स्तर के लिए तैयार किया जाता है।
दूसरा साधन — ध्वनि तरंग
प्रथम स्तर की तैयारी से मन में विचारों की भाग-दौड़ जब कम होती है तो इस तैयार मन को अब ध्वनि तरंगों के माध्यम से वर्तमान में केंद्रित किया जाता है। ध्यान में उपयुक्त होती यह ध्वनि तरंगे कोई सामान्य ध्वनि नहीं होती अपितु यह मन की ऊपरी सतहों को अर्ध-सुषुप्ति में रखकर उन्हें किसी दूसरे स्तर पर सक्रिय होने के लिए आधार रूप होती हैं। यह ‘अल्फ़ा’ ध्वनि तरंगे (alpha brain waves) मनुष्य के मस्तिष्क को इस प्रकार से तैयार करती है कि बाहरी जगत से सम्पर्क छूटता जाता है और एक अनन्य विश्राम और एकाग्रता की अनुभूति होने लगती है।
तीसरा साधन — चक्र और केंद्र
अनन्य विश्राम और एकाग्रता की भूमिका साधने के पश्चात् अब साधक को इस एकाग्रता को किसी लक्ष्य से जोड़ना होता है। यह लक्ष्य चक्र या केंद्र कोई भी हो सकते हैं — यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम किस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कौन सी योगिक साधना में प्रवेश कर रहे हैं। साधना मार्ग का यहाँ से आरम्भ होता है और इसलिए साधना पद्धति का संपूर्ण निर्णय श्री गुरु द्वारा ही लिया जाता है। ‘स्वराज क्रिया’ के उतरोतर चढ़ते क्रम में हम अलग अलग चक्रों व केंद्रों का सक्रियकरण (energisation) व संतुलन (balancing) कर रहे हैं जो साधक के भीतर आमूल रूपांतरण का महत्वपूर्ण कारण है।
चौथा साधन — ऊर्जा
चक्रों व केंद्रों के सक्रियकरण और संतुलन से आंतरिक ऊर्जा प्रकट होती है। यही आंतरिक ऊर्जा मनुष्य में रही सनातन ईश्वरीय सत्ता का बीज है जो सत्त-चित्त-आनंद रूप है। इसी ऊर्जा का जब केंद्रीकरण करके इसे आज्ञा चक्र तक लाया जाता है तो दिव्य अनुभव उजागर होने लगते हैं, देह में देहातीत दशा प्रकटती है और ‘योग’ के परम एक्य का अनुभव होता है। श्री गुरु के निरीक्षण व ऊर्जामयी निश्रा में होती सटीक ध्यान विधियों से इस अनुभव तक अभी के काल-क्षेत्र में भी पहुँचा जा सकता है।
योगिक क्रिया कब व कैसे करनी चाहिए?
किसी भी ध्यान विधि को हम योगिक क्रिया कहते ही तब हैं जब इन चारों साधनों का समन्वय हो अन्यथा किसी भी एक साधन के अभाव में वह ध्यान विधि तो हो सकती है परंतु योगिक क्रिया नहीं। यद्यपि ध्यान की सटीक विधियाँ भी मनुष्य को ‘योग’ के परम अनुभव तक पहुँचाने में समर्थ है तथापि अभी के काल-क्षेत्र व भाव में योगिक क्रियाओं का महत्व अनन्य है। इन क्रियाओं का महत्व इनमें उतर कर, प्रयोग करके ही जाना जा सकता है परंतु स्मरण रहे, इन क्रियाओं का किसी समर्थ सद्गुरू के सचोट मार्गदर्शन और ऊर्जापूर्ण निश्रा में ही आरम्भ (initiation) होना चाहिए और विधिपूर्वक कम से कम छः महीने प्रयोग करना चाहिए — तब इसके परिणाम अवश्य ही प्रत्यक्ष होते हैं।