हम भारतीय बड़े ही मंझे हुए खिलाड़ी होते हैं। महात्मा बुद्ध के मध्यम मार्ग को पूरी कुशलता के साथ निभाने का सारा क्रेडिट तो अकेले हमें ही मिलना चाहिए। हमारी भावनाएँ भी बहुत जल्दी आहत होती हैं, और दूसरों को समूचा ज्ञान पेलने वाले धुरंधर भी हम ही होते हैं कि मज़ाक़ था बहन मज़ाक़, ऑफैन्ड क्यों हो रही है इतना? हम भारत की ख़ामियों व विशेषताओं, दोनों में ही विविधता को घुसेड़ देते हैं, पर हाँ जब तक उसके लिए अंक ना कट रहे हों। सबकी अपनी ख़ुद ही की फिलॉसफी है। यहाँ वैचारिक विविधता में सांस्कृतिक विविधता से ज़्यादा वैरायटी मिलती है। नहीं इधर रोस्ट नहीं किया जा रहा है, तंज कसा जा रहा है। पर दिक्कत तो यही है कि इतनी विविधता के उपरांत भी हास्य (ह्यूमर), व्यंग्य (सैटायर) तथा मीम के बीच अंतर बताने में हमें हमारे दिमाग पर ज़ोर देना पड़ता है। यही नहीं, कुछ लोगों का तो यहाँ तक मानना है कि व्यंग्य एक मीम की तरह ही सीधा होता है कि जैसे ही कान में पड़े, इंसान मारने दौड़ पढ़े। आज हरिशंकर परसाई होते तो चुल्लू भर पानी में डूबके अपनी जान दे देते।
ख़ैर... भारत में समूहवाद का बोलबाला है या फ़िर व्यक्तिवाद का, यह बताना ज़रा मुश्किल है। इंसान है ही ऐसी चीज़। जब सामने किसी धर्म के लोग हों, तो धर्म में बँट जाएँगे और जब किसी पार्टी के हों तो ‘लेफ्ट’ और ‘राइट' में। पाठक इस उलझन में होंगे कि बात तो जनता की हो रही थी, परंतु दुविधा तो यही है कि अब पार्टी के असल सदस्यों से ज़्यादा आम आदमी उसका प्रचारक बनता जा रहा है।
इधर देश-भक्ति हर दिन ट्रेंड कर रही है और हर दिन एक से बढ़कर एक राष्ट्र-प्रेम सिद्ध करने हेतु ऑनलाइन समारोह भी आयोजित किए जा रहे हैं। यदि आपको स्वयं पर ज़रा सी भी शंका हो रही हो कि आप कहीं 'लिब्रल' तो नहीं बनते जा रहे हैं तो रोज़ ऐसे आयोजनों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लीजिए तथा प्रतिदिन सोशल मीडिया हो या आपका अपना बोलता हुआ डब्बा, अपने स्टैमिना अनुसार नफ़रती जोशवर्धक लीजिए। किसी दिन आपको अचानक से ही अपने भीतर भरपूर आत्मविश्वास की नदियाँ बहती महसूस होंगी और आपको लगेगा कि आपसे बड़ा रणबाँकुरा तो इस समूचे ब्रह्मांड में आज तक पैदा ही नहीं हुआ था जो इतनी बेहतरीन फूलगोभी उगा लेता हो।
जब देश की आन-बान-शान पर बात आती है तो हम भारतीय इतने देशप्रेमी होते हैं कि खूबियाँ लिख-लिख कर, नहीं सॉरी गालियाँ लिख-लिख कर फ़ोन की स्क्रीन तोड़ देते हैं। और जब बात हद से ज़्यादा बढ़ जाए तो एक कमेन्ट से सर्जिकल स्ट्राइक करवा दिया जाता है। इधर तो इतनी विविधता है कि सबकी देश-प्रेम की परिभाषा तक अलग है। किसी के लिए देश होता है हिन्दू राष्ट्र, बाकी सब तो विदेशी हैं। दूसरों के लिए पुरातन काल में बस साउथ हुआ करता था। ये नॉर्थ वाले तो बस अपनी इज्ज़त बचाने के लिए उनसे जुड़े हैं। तीसरे को लगता है कि नॉर्थ-ईस्ट की संस्कृति ही भारत से मेल नहीं खाती। और चौथे का ये मानना है कि कश्मीरियों के साथ जो हो रहा है वो सही नहीं है। पर ज्यों धर्म की आँधी चलती है, त्यों ही पूरा प्लेग्राउन्ड बदल जाता है, यहाँ तक कि खिलाड़ी भी। जो पहले "दो बिहारी सब पर भारी" थे, एक मेजौरिटी बन जाता है, दूसरा माइनौरिटी। चाहें आंकड़े कुछ और ही बयाँ करते हों, हमें हमारी इनसिक्युरिटी खायी जाती है।
जब जनता को दैनिक मुद्दों के स्ट्रैस से मुक्ति देने हेतु सरकार ने एक सराहनीय कदम उठाया था और एक बार फ़िर रामायण तथा महाभारत दूरदर्शन पर वापस चलवाये गये थे तब लोगों ने जमकर मीम बनाए। नेताओं की भी बल्ले-बल्ले हो रखी थी। धर्म, जाति, वर्ण किस-किस पर बातें नहीं हुईं। पर जब महाभारत में विष्णु जी ने ऊपर से तमाशा देख कर यह कहा कि "अधर्म भय पर ही राज करता है" तब उन्हीं लोगों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। हम सोचना ही नहीं चाहते। "आइ ऐम नॉट इन्ट्रैस्टेड यार!" बस स्क्रीन बदलती रहे, तस्वीरें बदलती रहें। सरकारें ना बदलें।