व्यंग्य : भारतीय शिक्षा प्रणाली और विलुप्त होती भारतीय संस्कृति
एक विदेशी न्यूज़ चैनल ने अपने एक नौसिखिये पत्रकार को भारतीय शिक्षा प्रणाली की ख़स्ता हालत पर घोर तफ़तीश करने भारत भेजा। प्लेन से उतरकर धरती पर पाँव रखा नहीं था कि प्राइवेट स्कूलों और कॉलेजों के मालिक स्वयं को सर्वोपरि जताने हेतु भीड़ लगाकर खड़े हो गये।
पत्रकार महोदय अचंभे में पड़ गये, थोड़ा हिचकिचाकर पूछते, “आप लोगों ने इधर तक आने का कष्ट क्यों किया? यह तो मेरा काम है, पत्रकार तो मैैं हूँ।”
उसी दौरान एक जानी-मानी प्राइवेट यूनिवर्सिटी का मालिक भीड़ में से रास्ता बनाता हुआ पत्रकार महोदय के सामने आ धमका। उसे हर सवालकर्ता को अपना मुरीद बनाने में महारत प्राप्त थी। झट से उत्तर देता, “अरे कैसी बात करते हैं, इधर अतिथि को भगवान समान पूजा जाता है।” पत्रकार महोदय मन ही मन प्रफुल्लित हो उठे और एक पल के लिए ही सही ख़ुद के ही उद्देश्य पर संदेह करने लगे। पर ज्यूं ही उस महारथी ने अपनी बात पूरी की, त्यूं ही वे उसके असल मनसूबे जान गए। “पर कुछ लोग हैं कि हमारे देश की संस्कृति ही भुला चुके हैं। अब इन सरकारी स्कूलों को ही ले लीजिए। ख़ैर उन्हें छोड़िए, हम किसी की बुराई करके पाप के भागीदार नहीं बनना चाहते। फ़िलहाल हम आपकी किस प्रकार सेवा कर सकते हैं वह बताइए। केवल एक गुज़ारिश है आपसे कि आप हमें हमारी इस स्वार्थरहित सेवा का फल पढ़ाई की गुणवत्ता मेंं हमें सरकारी स्कूलों से ऊपर रखकर देंं।”
पत्रकार महोदय ने इसपर असमंजस में अपना सर गोल-गोल घुमा दिया।
“देखिए साहब, अपना तो एक ही फंडा है, असहाय बच्चों की सेवा। अब कई बच्चे नहीं होते हैं इतने सक्षम कि सराहनीय अंकों से उत्तीर्ण हो पाएँ, अब इसका मतलब यह तो नहीं हुआ न कि उनमेें कोई काबिलियत ही नहीं है। ऐसे ही बच्चों को जिन्हें सरकारी स्कूल व कॉलेज लतियाकर अपनी आँखों से औझल कर देते हैं, हम उनके मसीहा बनकर उनका करियर डूबने से बचाते हैं। इज़न्ट इट कूल?”
“परंतु ऐसे बच्चों का क्या जिनके पास फ़ीस तक जमा करने के पैसे ना होंं?”
“अब आप ही बताइए हम किस-किस की सेवा करें? ऐसे बच्चों की ज़िम्मेदारी होती है सरकार की, और बाक़ी उनकी किस्मत। हम तो हैरी पॉटर मेेें भी नागशक्ति के प्रशंसक रहे हैं।”
“हाँ, यह बात भी सही है आपकी। चलिए हमारा सफ़र यहीं तक था, अब सरकारी शैक्षिक संस्थानों की राय जानने का इच्छुक हूँ मैं ज़रा सा।”
“ठीक है, जैसी आपकी मर्ज़ी। पर बचके रहिएगा, ये सरकारी लोग बढ़े ही शातिर क़िस्म के होते हैं।”
“हाँ, ध्यान रहेगा!”
“दिक्कत हो तो हम मार्गदर्शन कर दें आपका?”
“नहीं कोई आवश्यकता नहीं है, शुक्रिया।”
पत्रकार महोदय एक ‘भारतीय’ शब्द की उपाधि प्राप्त सरकारी शैक्षिक संस्थान के ऑफ़िस के बाहर कई घंटों से टकटकी लगाए स्टाफ़ के फ़्री होने की राह देख रहे थे। तभी उन्हें एक गार्ड तेज़ी से उनकी ओर आता हुआ दिखाई पड़ा।
“साहब आजाइए, इस वक़्त लगभग सारे प्रोफेसर्स खाली हैं।”
“ओके!”
पत्रकार महोदय ने ऑफ़िस के भीतर कदम रखा। उसी पल एक डैस्क से आवाज़ आई...
“हाँ, आपका क्या काम है?”
“जी मैं एक जर्मन न्यूज़ चैनल के लिए काम करता हूँ। मुझे भारतीय शिक्षा प्रणाली पर तफ़तीश करने के लिए इधर भेजा गया है। मैं यह जानना चाहता था कि भारत का एक भी शैक्षिक संस्थान संसार के उच्च विश्वविद्यालयों की सूचि में नज़र क्यों नहीं आता?”
“महाशय हम इसका समूचा कारण विदेशी देशों की भारत के प्रति पनपती ईर्श्या को ठहराते हैं। वरना यह तो असंभव है कि हम जैसे रचनात्मकता को बढ़ावा देने वाले अभिनव संस्थानों के महत्त्व को कोई इस प्रकार नकारे।”
प्रोफेसर ने अपने पन्नों के ढेर में से एक कागज़ निकालकर मेज़ पर धर पटका।
“इसपर नज़र डालिए, पूरे भारत के सबसे उच्च संस्थानों में से आते हैं हम। बच्चों को ड्रॉप-आउट करना पड़ जाता है हमारा एंट्रेंस क्लियर करने में।”
पत्रकार महोदय ने वहीं बात काटते हुए याद दिलाना उचित समझा, “पर मैंने विश्व-स्तरिय रैंकिंग की बात कही!”
“अरे आप पत्रकार होकर ऐसी बातें कैसे कर सकते हैं? भारत को विश्वगुरु का दर्ज़ा मिला हुआ है!”
“अच्छा वो सब छोड़िए यह बताइए कि सरकारी स्कूलों में बच्चों को नीचे बिठाकर पढ़ाने का क्या कारण है?”
“हमारी विलुप्त होती संस्कृति की रक्षा।”
“और मिड-डे मील के अपौष्टिक आहार का मकसद?”
“बच्चों को उनके ‘कम्फर्ट ज़ोन’ से बाहर निकालना।”
“और सालों से पाठ्यक्रम में कोई बदलाव न करने का उद्देश्य?”
“जिससे अभिभावकों को पीढ़ी दर पीढ़ी पढ़ाने में आसानी हो।”
“क्या महान विचार हैं आपके! जितने सवाल पूछने की आज़ादी आपने मुझे दी, उतनी ही क्या आप अपने हर एक छात्र को देते हैं?”
“हाँ, प्राइवेट से तो बेहतर ही हैं हम। बस हमेें ऐसे छात्र अटपटे लगते हैं जो वैचारिक आज़ादी को कॉलेज की परिभाषा समझें और अपने ही टीचर की ख़ामियाँ निकालना शुरू हो जाएँ। लोग अपनी संस्कृति भुलाते जा रहे हैं।”