थप्पड़ों ने लौटाया आत्म-विश्वास

रत्नदीप नौटियाल के साथ घटी आप-बीती. रत्नदीप जी एक लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं और मुंबई में रहते हैं.

lekhraj
Ek Anubhuti
4 min readDec 14, 2013

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सुनने में थोड़ा अजीब लगेगा, भला कहीं अध्यापक का थप्पड़ खाने या साथी विद्यार्थी को थप्पड़ मारने से भी किसी का आत्म-विश्वास लौटता है क्या? वह भी ऐसे वक्त में जब शिक्षक और छात्र के बीच का रिश्ता एक तनी हुई रस्सी जैसा हो गया हो जिसे बस ज़रा-सा झटका दिया और डोर टूटी. प्रस्तुत है रत्नदीप नौटियाल की आत्म कथा उन्ही के शब्दों में…

बात थोड़ी पुरानी है, गांव के सरकारी स्कूल से प्राथमिक शिक्षा लेकर मैं एक महीने पहले ही नए स्कूल में छठी कक्षा में आया था. वहां मेरी कोशिश यह होती कि मैं सबसे आगे वाली पंक्ति में बैठूं क्योंकि मां कहती थी कि आगे की पंक्ति में बैठने से चीजें ज्यादा समझ में आती हैं. पीछे की लाइन में बैठे दो लड़के इंग्लिश मीडियम स्कूल से आए थे. वो एलकेजी-यूकेजी भी पढ़े थे, इसलिए वे उम्र में और दिखने में हम सरकारी स्कूल वालों से बड़े थे. मजबूत कदकाठी के होने के कारण वे ज्यादातर हमको छेड़ते रहते थे. उनमें से एक का नाम अमित था और वह मेरे पीछे की लाइन में बैठा मेरे बाल खींच-खींच कर परेशान करता रहता था. दोनों मुझसे ताकतवर थे, इसलिए लड़ भी नहीं सकता था. वैसे भी मैं उससे पहले घर पर बहनों के अलावा किसी से नहीं लड़ा था.

एक दिन की बात है. भोजनावकाश खत्म हुए 15 मिनट से अधिक वक्त बीत चुका था. गुरु जी अभी तक कक्षा में नहीं आए थे. वह पीरियड हमारे शारीरिक शिक्षा वाले गुरु जी का था जो हमें कृषि भी पढ़ाया करते थे. गुरु जी भरे-पूरे और सुगठित शरीर के स्वामी थे. यही वजह थी कि सभी बच्चे उनसे बहुत घबराते थे. वे प्रार्थना के समय उन बच्चों के नाम पुकारते जो पिछले दिन छुट्टी होने के पहले ही स्कूल से भाग गए थे. इसके बाद वे अपने मन के मुताबिक कभी डंडे तो कभी किसी और चीज से उनकी पिटाई करते. उन दिनों में स्कूल में डंडों से पिटाई और अन्य कोई सज़ा देना करीब-करीब आम बात थी. आज-कल के दिनों के जैसे दिन नहीं थे तब, जिसमें बच्चों को ज़रा-सा छू भी लिया तो अगले दिन माता-पिता अध्यापकों की कक्षा लेने स्कूल पहुँच जाते हैं.

हाँ तो बात गुरु जी की हो रही थी तो… बजाज चेतक स्कूटर और काला चश्मा ही उनकी पहचान थे. चश्मा ज्यादातर उनकी आंखों पर ही टिका रहता था. यूं तो बच्चों ने मज़ाक उड़ाने के लिए हर शिक्षक का कोई न कोई नाम रखा था, लेकिन यह उनका रोब कहें या खौफ़, सिर्फ वही गुरु जी थे जिनका बच्चों ने कोई उपनाम नहीं रखा था. वैसे उस दौर से आज के दौर तक आते-आते भले ही बहुत कुछ बदल गया हो लेकिन अध्यापकों के उल-जुलूल नाम रखने का दौर अभी भी ख़त्म नहीं हुआ.

खैर..! उस दिन भी जब गुरु जी कक्षा में आए तो लगभग रोज़ की ही तरह बच्चों का सारा शोरगुल सन्नाटे में बदल गया. लेकिन मेरे अंदर हद से ज्यादा उथल-पुथल थी. मैं अमित नाम की परेशानी से निजात पाना चाहता था. गुरु जी अभी कुर्सी बैठे ही थे कि मैंने कहा, ‘गुरु जी, यह अमित मुझे परेशान कर रहा है.’

उन्होंने पूछा कि अमित ने क्या किया? मैंने उन्हें बता दिया कि वह पीछे बैठ कर बार-बार मेरे बाल खींच रहा है. उन्होंने हम दोनों को आगे बुलाया और हम दोनों को एक-दूसरे के सामने खड़ा करके कहा कि हम एक-दूसरे को थप्पड़ मारें. क्योंकि वह काफी मोटा-तगड़ा था इसलिए उसका हाथ जोर से पड़ना लाज़मी था. और मैं दिखने में बहुत ही दुबला-पतला था. जब हम एक-दूसरे को करीब दस थप्पड़ मार चुके तो गुरु जी ने मुझे अपने पास बुलाया. गुरु जी ने मुझे एक ज़ोर का थप्पड़ जड़ा, यह थप्पड़ अमित के अभी तक के दसों थप्पड़ों से कहीं ज्यादा ज़ोरदार था. फिर उन्होंने कहा, ‘अब जाओ और अमित को अब जो थप्पड़ मारो वह कम से कम इतनी ज़ोर का होना चाहिए.

गाल के बीचों-बीच पूरी ताकत से लगाया गया थप्पड़. मैंने उनकी बात का पालन किया. लेकिन इस बीच एक बात हुई. मैंने थप्पड़ मारने के अलावा पहली बार अमित की आंखों में आंखें डालकर देखा. आश्चर्य वहां गुस्से या आक्रामकता का कोइ चिह्न नहीं था. शायद गुरु जी की दी सलाह के बाद मैंने जो सख्ती दिखाई थी थप्पड़ मारने में, उससे अमित को यह संदेश मिला था कि मैं उतना भी कमजोर नहीं हूं जितना दिखता हूं. मुझे भी पहली बार लगा कि हिम्मत और ताकत का एक बहुत बड़ा हिस्सा हमारे शरीर में नहीं हमारे मन में बसता है.

आज मैं और अमित एक ही शहर में रहते हैं. हमारी अच्छी दोस्ती है. दीवाली पर हम साथ-साथ घर गए थे और टिकट भी उसी ने बुक करवाए थे. गुरु जी आज भी उसी विद्यालय में हैं. कक्षा छह की उस घटना के बाद जाने क्या हुआ कि धीरे-धीरे मैं उनके प्रिय छात्रों में शुमार हो गया. पता नहीं आज गुरु जी और अमित को वह थप्पड़ वाली घटना याद भी है या नहीं लेकिन मैं तो उसे कभी नहीं भूल सकता. वह एक ऐसी घटना थी जिसने मुझे हीनभावना से उबारा और मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास मुझे लौटाया. उसे भूलूं भी तो कैसे?

साभार: तहलकाहिंदी.कॉम (tehelkahindi.com)

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lekhraj
Ek Anubhuti

हिंदी का जितना हो सके प्रयोग करता हूँ और करने का प्रयास भी करता हूँ. कहानियां पढ़ना पसंद है, हिंदी में हो तो बात ही क्या.! और ब्लॉग भी लिखता हूँ.