मख़दूम मुकर्रम काज़ी अब्दुल जमील के नाम
Published in
1 min readMar 25, 2015
जनाब काज़ी साहब को सलाम और क़सीदा की बन्दगी अगर मुझे क़ूवत-ए-नातेक़ा पर तसर्रुफ़ बाकी रहा होता तो क़सीदा की तारीफ़ में एक क़तआ और हज़रत की मदह में एक क़सीदा लिखता बात यह है कि आईन जो शाइस्ता मदह में है मैं अब रनजूर नहीं तन्दुरुस्त हूँ मगर बूढ़ा हूँ जो कुछ ताक़त बाकी थी वह इब्तिला में ज़ाएल हो गई अब एक जिस्म बेरुह मोतहर्रिक हूँ मिसरा यके मुर्दा-शख़्सम बमर्दी रवाँ इसे महीने में रज्जब सन 1280 हि. से सत्तरवाँ बरस शुरू और इस्तक़ाम-ओ-आलाम का आग़ाज़ है लामौजूद एलल्लाह वला मोअस्सर फ़िल वजूद एलल्लाह