“ऐ शहर के वाशिंदों! हम गाँव से आये हैं”

Praveen Pranav
Hindi Kavita
Published in
9 min readDec 19, 2016

किसी शायर का नाम आते ही ज़ेहन में दो तरह के अक्स उभरते हैं। या तो बेहद संभ्रांत बहुत पढ़े-लिखे, अच्छे कपड़े पहने शायर या फिर बाल दाढ़ी बढ़े हुए, झोला लटकाए कोई गरीब शायर। ऐसे में मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में सफेद गमछा डाले एक ठेठ देहाती इंसान सामने प्रगट हो और आते ही अपने शेर यूँ सुनाए कि:

चोरी न करें झूठ न बोलें तो क्या करें
चूल्हे पे क्या उसूल पकाएंगे शाम को

तो आपके अन्दर कहीं दूर एक जोर का धमाका होता है और अब तक शायरों के जो बिम्ब आपने बना रखे थे वो सब टूटते नज़र आते हैं। और ऐसा कारनामा करने वाले शायर हैं अदम गोंडवी।

अदम गोंडवी का जन्म 22 अक्तूबर, 1947 को उत्तर प्रदेश में परसपुर जनपद गोंडा के गाँव आटा में हुआ था। अदम गोंडवी का असली नाम रामनाथ सिंह था। मात्र 6 वर्ष की उम्र में उनकी माँ का निधन हो गया। उनके घर में सभी निरक्षर थे और गाँव में भी पढ़ाई का माहौल नहीं था। उस समय प्राइमरी स्कूल में चौथी कक्षा तक की ही पढ़ाई होती थी। विद्यालय दूर होने और आर्थिक तंगी की वजह से उनकी पढ़ाई प्राइमरी स्तर तक ही हो सकी। पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से किशोरावस्था में ही पिता के साथ खेती में हाथ बटाना पड़ा।
यूँ तो उनकी पढ़ाई प्राइमरी तक ही हुई लेकिन पढ़ाई छोड़ने के बाद भी स्कूल के पुस्तकालय से मांग कर किताबें पढ़ते रहे। किताब खरीद कर पढ़ने के पैसे नहीं थे अतः दूसरों से माँग कर पढ़ते रहे और इस का नतीजा ये रहा कि उन्हें अपने अन्दर उठते ज्वार को कागज़ पर उतारना आ गया। पढ़ाई ने उन्हें बस लिखना सिखाया पर क्या लिखना है ये उन्होंने सीखा अपने परिवेश, उस समय की सामंती प्रथा और राजनैतिक हालात से। छन्द या बहर की जानकारी तो थी नहीं लेकिन यूँ ही कुछ कविताएँ लिखते रहे। बाद में मुशायरों में अन्य शायरों/कवियों को सुना तो गज़ल की प्रस्तुति उन्हें अच्छी लगी और तब से ही उन्होंने अपने लेखन के लिए गज़ल की शैली को चुना।

शुरुआती दौर में गज़ल मुहब्बत और मयखानों तक ही सिमटी रही, बाद में कुछ शायरों जैसे फ़ैज़, साहिर ने गज़ल में आम जनता से सरोकार रखती हुई बातों को लिखा और दुष्यंत कुमार ने इस परम्परा को हिंदी गज़ल के माध्यम से एक नई ऊँचाई दी। अदम गोंडवी दुष्यंत कुमार की ही परंपरा को अपनी गज़ल में आगे बढ़ाते रहे। सरकारी मुलाज़िम होने की वजह से दुष्यंत कुमार ने नपे तुले शब्दों में विद्रोह के स्वर को जन्म दिया लेकिन अदम गोंडवी के साथ ऐसी कोई बाध्यता नहीं थी। उन्होंने बिना किसी लाग लपेट के सरल लहज़े में विसंगतियों पर करारी चोट की और देखते ही देखते जन मानस पर छा गए।

उन्होंने अपने आप को कभी एक गज़लकार की तरह परिभाषित नहीं किया। उनकी नज़र में गज़ल, छन्द, हास्य, व्यंग सब कविता के ही प्रारूप हैं।

“रचनाकार को हम गीतकार, गज़लकार, व्यंग्यकार के खेमें में बाँटकर भले ही देख लें, आखिर में है वह कवि ही। गज़ल हिन्दी साहित्य की अनन्य विधा है। इसे पृथक रखना इसके और हिन्दी, उर्दू दोनों के प्रति अन्याय है। यह मठाधीशों की साजिश है, जिसे सुधी पाठक व श्रोता सफल नहीं होने देंगे।”

गज़ल को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा,

बेल सी लिपटी हुई है फ़लसफ़े की शाख़ पर
भीगी रातों में महकती रातरानी है गज़ल

लेकिन साथ ही गज़ल को नसीहत भी दे डाली कि अब ख़्वाबों की दुनिया से निकल कर ठोस धरातल पर आने का समय आ चुका।

जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ़ हो चुकी
अब उसे बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

मुहब्बत को चाँद तारों में सजा कर लिखने वालों को भी कह डाला

अदीबों ! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ
मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक के चाँद-तारों में

इनका प्रथम काव्य-संकलन ‘‘धरती की सतह पर’’ 1987 में प्रकाशित हुआ। इस संग्रह की कई गज़लें आम जनता में बहुत प्रसिद्ध हुईं। ‘सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं,’ ‘जितने हरामखोर थे कुरबो जवार में,’ ‘भूख के अहसास को सेरो सुखन तक ले चलो,’ ‘उतरा है रामराज विधायक निवास में’ जैसी ग़ज़लें और ‘चमारों की गली में’ कविता ने उन्हें देश भर में पहचान दिलाई। सन् 2000 में दूसरा संकलन ‘गर्म रोटी की महक’ (ग़ज़ल संग्रह) प्रकाशित हुआ। सन् 2010 में तीसरा संकलन ‘समय से मुठभेड़’ प्रकाशित हुआ, जिसमें नई रचनाओं के अलावा पहले की दो किताबों में छप चुकीं कुछ रचनाएँ भी शामिल की गईं।

अदम गोंडवी ने अपने आस पास की घटनाओं को अपने लेखनी में पिरोया और आस पास के मंचों पर अपनी रचनाएँ सुनाते रहे। जल्द ही इनकी ख्याति फैली और इन्हें देश भर से निमंत्रण आने शुरू हो गए। शुरुआती दौर में कुछ रचनाओं पर विरोध हुआ लेकिन श्रोताओं का भरपूर स्नेह लिया और प्रतिरोध के स्वर दब गए। उनकी रचनाओं में असहमति का स्वर सबसे प्रमुख है। जहाँ कहीं भी उन्हें वंचितों के खिलाफ कुछ लगा उन्होंने आवाज़ उठाई। उनके ही शब्दों में,

“इसी असहमति को स्वर देने के लिए तो मैं मंच पर आया, अन्यथा स्वान्तः सुखाय ही क्यों न रह जाता ?”

अपनी रचना में गरीबों के संघर्ष की बात पर उन्होंने कहा भी,

“मेरी हर गज़ल, मेरा हर शब्द वंचित तबके के प्रति समर्पित हैं। इनसे बाहर कहीं किसी वाद का मैं समर्थन नहीं करने वाला। अगर पाठक अपने पक्ष में कोई वाद खोज लेना चाहता हो, तो यह उसका हक है।”

मंचीय और साहित्यिक शायरी से उन्होंने हमेशा अपने आप को अलग रखा। उन्होंने ज्यादा लिखने पर शायरों को चेताया भी,

“कविता तो हृदय का उच्छ्वास होती है, उसे मंचीय और किताबी खाँचों में बाँट कर देखना सम्यक् नहीं। हाँ यह जरूर है कि पेशेवर ढंग से ज्यादा परोसने की कोशिश होगी तो कूड़ा-कचरा भी निकलेगा।”

उनके पहले संग्रह में मंगलेश डबराल ने लिखा था,

“उनकी एक बहुत लंबी कविता 1982 के आसपास लखनऊ के अमृतप्रभात में प्रकाशित हुई थी, ‘मैं चमारों की गली में ले चलूंगा आपको’। कविता एक सच्‍ची घटना पर आ‍धारित थी। कविता जमींदारी उत्‍पीड़न और आतंक की एक भीषण तस्‍वीर प्रस्‍तुत बनाती थी। उसमें बलात्कार की शिकार हरिजन युवती को नयी मोनालिसा कहा गया था। एक रचनात्मक गुस्से और आवेग से भरी कविता को पढ़ते हुए लगता था जैसे कोई कहानी या उपन्यास पढ़ रहे हों। कहानी में पद्य या कविता तो अकसर वही कहानियाँ प्रभावशाली कही जाती रहीं हैं, जिनमें कविता की सी सघनता हो-लेकिन कविता में एक सीधी-सच्‍ची,गैर आधुनिकतावादी ढंग की कहानी शायद पहली बार इस तरह प्रकट हुई थी।”

अदम के बारे में सुरेश सलिल लिखते हैं,

“जैसा मैंने अदम को पहली बार देखा था। बिवाई पड़े पाँवों में चमरौंधा जूता , मैली सी धोती और मैला ही कुरता, हल की मूठ थाम-थाम सख्त और खुरदुरे पड़ चुके हाथ और कंधे पर अंगोछा। यह खाका ठेठ हिन्दुस्तानी का ही नहीं, जनकवि अदम गोंडवी का भी है, जो पेशे से किसान हैं। दिल्ली की चकाचौंध से सैकड़ों कोस दूर, गोंडा के आटा-परसपुर गाँव में खेती करके जीवन गुजारने वाले इस ‘जनता के आदमी’ की ग़ज़लें और नज़्में समकालीन हिन्दी साहित्य और निज़ाम के सामने एक चुनौती की तरह दरपेश है।”

उनकी भाषा गंवई ही रही और उन्होंने इसे बदलने की कभी कोशिश भी नहीं की और यही वजह भी रही की उनकी रचनाएं आम जन तक पहुंची और सराही गईं। आस पास की गुंडई भरी राजनीति को देखते हुए उन्होंने लिखा,

जितने हरामखोर थे कुर्बों ज़वार में
परधान बनके आ गये अगली कतार में

दो जून की रोटी को मोहताज गाँव के लोगों की पीड़ा उन्होंने बखूबी लिखी।

जी में आता है कि आईने को जला डालूँ
भूख से जब मेरी बच्ची उदास होती है

आप आएं तो कभी गाँव की चौपालों में
मैं रहूँ या न रहूँ, भूख मेजबां होगी

चीनी नहीं है घर में, लो, मेहमान आ गये
मंहगाई की भट्ठी पे शराफत उबाल दो

अदम गोंडवी ने अपनी रचनाओं के लिए एक नई भाषा का ईजाद किया जो न सिर्फ हिन्दी और उर्दू का मिश्रण थी बल्कि उसमें ग्रामीण पृष्ठभूमि की स्पष्ट झलक थी। या तो ये नैसर्गिक था या उन्होंने कोशिश की कि उनकी रचनाएँ सरल हों पर जन मानस की व्यथा कहें। सामाजिक कुरीति से ले कर मजहबी द्वेष, राजनीति से लेकर समाज में आते जा रहे क्षरण, भूख और गरीबी इन सब को उन्होंने अपनी लेखनी का आधार बनाया और यही वजह रही कि उन्होंने देश भर में अपनी एक अलग पहचान बनाई।

हिन्दी और उर्दू भाषा में रचनाएँ लिखने पर उन्होंने कहा -

“मैं न तो हिन्दी का विद्वान हूँ, न उर्दू का जानकार। बस हिन्दुस्तानी भाषा जानता हूँ, वह भी वाद बाँधने के लिए नहीं, मेड़ तोड़कर प्रवाह बनाये रखने के लिए।”

कुछ आलोचकों ने जब चिंता जताई कि दुष्यंत कुमार के बाद हिन्दी गज़ल में ठहराव सा आ गया है तो उन्होंने निश्चिंत हो कर कहा

“यह ठहराव स्थायी बिल्कुल नहीं है। अपना-अपना दौर होता है। दुष्यंत दद्दा की धारा में अनेक कुशल नाविक चम्पू चला रहे हैं। मेरे अलावा भी बहुत सारे अदीबों की पूरी भीड़ है। आज की गज़ल स्वतंत्र प्रवाह में रची जा रही हैं। आगे कई लोग और भी अच्छे निकलेंगे। बस हमें गज़ल को हिन्दी-उर्दू के फंदे से बचाना होगा। महज कुछ जातीय संगठन ही टकराहट बनाना चाहते हैं। लेकिन श्रोता तो दोनों फंदे से बाहर रहा है, अन्यथा मीर और ग़ालिब के इतने दीवाने हिन्दुस्तान में न होते, जितने है। ‘बहर’ की सीमाएं तो बड़े-बड़े शायर कई बार खुद ही तोड़ चुके हैं।”

अपनी जीवन शैली और लिखनी की तरह ही अदम गोंडवी किसी साहित्यिक खेमे से नहीं जुड़े और अपनी अलग पहचान बनाए रखी। आम जनता में जब उनकी लोकप्रियता बढ़ी तो फिर अनेक संस्थाओं ने भी उनके लेखनी को सम्मान दिया। जब मध्य प्रदेश में गज़ल-सम्राट दुष्यन्त कुमार के नाम से उनके स्कूल के गज़लकारों को सम्मानित करने की श्रृंखलाबद्ध योजना बनी तो प्रथम पुरस्कार के लिए अदम गोंडवी के नाम का चयन किया गया। ‘दुष्यंत कुमार अलंकरण’ नाम से यह सम्मान उन्हें भोपाल में 1998 में दुष्यंत कुमार स्मारक संग्रहालय समिति की ओर से दिया गया। इसके अलावा कोई बड़ा सम्मान तो उन्हें नहीं मिला लेकिन स्थानीय सम्मानों की झड़ी लगी रही। और इस लोकप्रियता की वजह इनका उन मुद्दों को उठाना रहा जिसे अन्य शायरों ने शायद गज़ल में कहने लायक नहीं समझा। गरीबी और भुखमरी से जूझ रहे गाँव वालों की दशा पर उन्होंने बहुत शेर लिखे और उन सब को पढ़ते हुए मुँह से वाह निकलने की बजाय दिल में दर्द कचोटने लगने लगती है और यही अदम की सफलता है।

घर के ठंडे चूल्हे पर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है

उत्तर प्रदेश में उन्होंने कई दंगों को देखा और उसका दर्द उनके शेरों में उभर आया:

शहर के दंगों में जब भी मुफ़लिसों के घर जले
कोठियों की लॉन का मंजर सलोना हो गया

बकौल विजय बहादुर सिंह,

“अदम ने गज़ल को सोच-समृद्ध और संवादधर्मी बनाने की पुरजोर कोशिश की है, जो शमशेर व दुष्यंत भी नहीं कर पाये थे। उनके कथन में आक्रामकता और तड़प भरी व्यंग्यात्मकता है।”

अपने इस आक्रामकता की कीमत भी अदम को चुकानी पड़ी। सियासत में किसी का गुणगान गा लेते तो किसी चीज की कमी न रहती पर ये अदम को गवारा न था और नतीजा ये रहा की ताउम्र गरीबी और मुफ़लिसी का दंश झेलते रहे।

जीवन के आख़िरी दिनों में इलाज़ तक के पैसे नहीं थे। हिन्दी-उर्दू अकादमी इस प्रतीक्षा में रहा कि मदद के लिए प्रार्थना पत्र आए तो विचार करेंगे, सियासतदानो के तो वो खिलाफ ही थे। बेचारगी के इस आलम में अदम गोंडवी का निधन 18 दिसम्बर 2012 को लखनऊ में लीवर सिरोसिस की बीमारी से जूझते हुए हो गया। एक सवर्ण परिवार में जन्म लेते हुए भी उन्होंने वंचितों के हक़ में हमेशा लिखा और जातिगत व्यवस्था से ज्यादा गरीबी और अमीरी या गाँव और शहर की खाई को खतरा माना। अपने निधन का भी मानो वो अपने शेर में पहले ही एलान कर गए।

यूँ खुद की लाश अपने काँधे पर उठाये हैं
ऐ शहर के वाशिंदों ! हम गाँव से आये हैं

देश को अदम जैसा आक्रामक, सरल, विद्रोही, किसान शायर अब शायद ही मिले। दुष्यंत कुमार से ले कर अदम गोंडवी तक के शेरों को पढ़ते हुए हम सोचते हैं कि कभी तो बदलाव आएगी और हम कह सकेंगे कि अब ये शेर उतने प्रासंगिक नहीं रहे; लेकिन बदलाव की वो सूरतेहाल दूर तक नज़र नहीं आती और अदम गोंडवी जैसे शायर की प्रासंगिकता बढ़ती ही जाती है।

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