‘ग़ुनाहों का देवता’ : पीड़ा में एक प्रार्थना
यदि आप प्रेम की गुत्थी उलझने-उलझाने में लगे हैं तो धर्मवीर भारती जी का लिखा ‘ग़ुनाहों का देवता’पढ़ना आपके लिए आवश्यक है। आप पढें या न पढें, यह आपकी श्रद्धा पर निर्भर करता है। यदि इससे होने वाली लाभ-हानि में न भी जायें, तो प्रेम से गुजरते हुए व्यक्ति विशेष के लिए भारती जी की यह कृति पढ़ना वैसा ही है, जैसे पीड़ा के क्षणों से गुजरते हुए प्रार्थना करना……
“अक्सर कब, कहाँ और कैसे मन अपने को हार बैठता है, यह खुद हमें नहीं पता लगता। मालूम तब होता है जब जिसके कदम पर हमनें सिर रखा है, वह झटके से अपने कदम घसीट ले। उस वक़्त हमारी नींद टूट जाती है और तब हम जाकर देखते हैं कि अरे हमारा सिर तो किसी के कदमों पर रखा हुआ था और उनके सहारे आराम से सोते हुए हम सपना देख रहे थे कि हमारा सिर कहीं झुका ही नहीं।”
किसी उपन्यास के चरित्रों की और वास्तविक जीवन की समस्याओं को अक्सर यथार्थ के दो अलग अलग छोरों पर देखा जाता रहा है। समस्याओं के अभाव में न तो उपन्यास लिखे गए हैं और न ही हम कभी अपने वास्तविक जीवन की खिड़कियों से बाहर झाँकने का प्रयास करते हैं। किन्तु जीवन की घुमावदार सीढ़ियों से उतरते हुए जब हम किसी चरित्र, किसी पात्र से टकराते हैं तो अक्सर वे हमें एक अवशेषिक अनुभूति का भान करा देते हैं। ऐसा लगता है जैसे ये चरित्र, ये पात्र, हमारे ही बिछड़े हुए प्रतिबिम्ब हैं जो समय की धारा में कहीं बह गए थे। हालाँकि जब कुछ समय इनके साथ बिताया, तो समझ में आया कि ये चरित्र तो वहीं हैं, जहाँ इन्हें होना चाहिए था। शायद हम स्वयं ही समय की धारा में बहकर उन सबसे, वहाँ से बहुत दूर चले आये हैं, जहाँ हमें होना चाहिए था।
“तुमने मुझे दूर फेंक दिया, लेकिन इस दूरी के अँधेरे में भी जन्म-जन्मांतर तक भटकती हुई सिर्फ तुम्ही को ढूँढूँगी, इतना याद रखना और इस बार अगर तुम मिल गए तो ज़िन्दगी की कोई ताकत, कोई आदर्श, कोई सिद्धांत, कोई प्रवंचना मुझे तुमसे अलग नहीं कर सकेगी। लेकिन मालूम नहीं कि पुनर्जन्म सच है या झूठ! अगर झूठ है तो सोचो चन्दर कि इस अनादिकाल के प्रवाह में सिर्फ़ एक बार…….. सिर्फ़ एक बार मैंने अपनी आत्मा का सत्य ढूँढ पाया था और अब अनंतकाल के लिए उसे खो दिया। अगर पुनर्जन्म नहीं है तो बताओ मेरे देवता, क्या होगा? करोड़ों सृष्टियाँ होंगी, प्रलय होंगे और मैं अतृप्त चिंगारी की तरह असीम आकाश में तड़पती हुई अँधेरे की हर परत से टकराती रहूँगी, न जाने कब तक के लिए।”
जीवन की इसी उब डूब में कुछ ऐसा भी है जो कहीं बहुत दूर है, पर इतना हरा भरा है कि हर थकान, हर हताशा को अपनी ओर खींच कर एक आश्वाशन सा देता है कि थोड़ा और चले चलो, थोड़ा और तैर लो, थोड़ा और बह लो इन लहरों में। और हम बहते रहे, बहते गए। बहते गए ऐसे जैसे जलदेवता बहते हों जल के अनंत विस्तार में। एक ऐसा देवता जो बहना ही जानता हो, और इसी बहने ने उसे देवता बना दिया हो। वह देवता जो तब तक बहेगा, जब तक सृष्टि का यह बहाव रुक नहीं जाता। वह देवता, बहना ही जिसकी नियति हो, और किनारे पर पहुँचना उसका अंत।
“या तो प्यार आदमी को बादलों की ऊँचाई तक उठा ले जाता है, या स्वर्ग से पाताल में फेंक देता है। लेकिन कुछ प्राणी हैं, जो न स्वर्ग के हैं न नरक के, वे दोनों के बीच में अन्धकार की परतों में भटकते रहते हैं। वे किसी को प्यार नहीं करते, छायाओं को पकड़ने का प्रयास करते हैं, या शायद प्यार करते हैं या निरंतर नयी अनुभूतियों के पीछे दीवाने रहते हैं और प्यार बिल्कुल करते ही नहीं। उनको न दुःख होता है न सुख, उनकी दुनिया में केवल संशय, अस्थिरता और प्यास होती है………”
आज के समय में देवता बनना हो या मानव; यह अब भी उतना कठिन है जितना हमेशा से हुआ करता आ रहा है। अवसर हम सबके पास है लेकिन इस लोक का मोह हमसे छूटता नहीं। स्त्री और पुरुष के सम्बन्धों को संज्ञा दिए बिना हम रह नहीं सकते। प्रेम में परिणीति की अपेक्षा को अनदेखा करना अब संभव नहीं है। मर्यादाओं, सम्बन्धों और रीतियों के इस नकली वृत्त की परिधि के बाहर हम जा नहीं सकते। प्रेम और वासना का सदियों से बना हुआ यह जाल अब इतना सख़्त हो गया है कि इसे तोड़ने के लिए भी अब अग्नि परीक्षा से होकर जाना पड़ता है।
“कपूर, मैं सोच रही हूँ अगर यह विवाह संस्था हट जाए तो कितना अच्छा हो। पुरुष और नारी में मित्रता हो। बौद्धिक मित्रता और दिल की हमदर्दी। यह नहीं कि आदमी औरत को वासना की प्यास बुझाने का प्याला समझे और औरत आदमी को अपना मालिक। असल में बंधने के बाद ही, पता नहीं क्यों सम्बन्धों में विकृति आ जाती है। मैं तो देखती हूँ कि प्रणय विवाह भी होते हैं तो वह असफल हो जातें हैं क्योंकि विवाह के पहले आदमी औरत को ऊँची निगाह से देखता है, हमदर्दी और प्यार की चीज़ समझता है और विवाह के बाद सिर्फ़ वासना की। मैं तो प्रेम में भी विवाह-पक्ष में नहीं हूँ और प्रेम में भी वासना का विरोध करती हूँ।”
हो सकता है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जब कमल के फूलों की जगह चमकते रंग बिरंगे बल्बों और चौड़ी खाली सड़कों की जगह संकरे बाज़ारों ने ले ली है, तो प्रेम और वासना की यह दुविधा बेमानी सी लगे। प्रेम में ऊँचा उठना, खुद को समर्पित कर सर्वस्व बलिदान कर देना, एक पूरे युग और व्यक्तिव को बदल देने की सोच रखना कुछ अतिशयोक्ति सा लगे। होने को यह हो सकता कि आपने अपनी आत्मा के लिए एक शरीर खोज लिया हो। होने को यह भी हो सकता है कि बहुतों की तरह आपने अपनी आत्मा और अपने शरीर दोनों को ही भुला दिया हो। दोनों ही अवस्थायें आपकी अपनी चुनी हुई स्थितियाँ हैं।
“नहीं चन्दर, शरीर की प्यास भी उतनी ही पवित्र और स्वाभाविक है जितनी आत्मा की पूजा। आत्मा की पूजा और शरीर की प्यास दोनों अभिन्न हैं। आत्मा की अभिव्यक्ति शरीर से है, शरीर का संस्कार, शरीर का संतुलन आत्मा से है। जो आत्मा और शरीर को अलग कर देता है, वही मन के भयंकर तूफानों में उलझकर चूर-चूर हो जाता है। चन्दर, मैं तुम्हारी आत्मा थी। तुम मेरे शरीर थे। पता नहीं कैसे हम लोग अलग अलग हो गए! तुम्हारे बिना मैं केवल सूक्ष्म आत्मा रह गयी। शरीर की प्यास, शरीर की रंगीनियाँ, मेरे लिए अपरिचित हों गयीं।”
समय आयेगा और चला जायेगा, जैसे सुधा चली गयी, चन्दर भी वैसे ही चला जायेगा। बिनती, पम्मी, बर्टी सब हवा में घुल जायेंगे। उसी तरह जैसे न जाने कितने लोग घुल गए। हम, आप सबको एक दिन घुल जाना ही होगा। सड़कें और संकरी हो जायेंगी, कुछ फूल और कम हो जायेगें। बच जायेंगे तो बस देवता। देवता जो हमेशा पूजे जाते रहेंगे। देवता, प्रेम के देवता, बलिदान के देवता, पर असल में वे बनेंगे ‘ग़ुनाहों के देवता’।
(“यदि आपने यह उपन्यास पढ़ा है तो भी, यदि पढ़ने का विचार बना रहे हैं तो भी, इन स्थानों के साथ जुड़ सकेंगे। इन्हीं घासों पर कभी सुधा और गेसू ने अठखेलियाँ की होंगी, कभी चन्दर के आँसू टपके होंगे, पम्मी के खाली दिन इन उजाड़ खंडहरों में किसी के इन्तज़ार में बीते होंगे। कितना कुछ था, जो अब नहीं है। और कितना कुछ है जो फिर नहीं रहेगा।”)