दिल का माँस

Manas Mishra
Hindi Kavita
Published in
4 min readMay 6, 2017

माँ अक्सर कहा करतीं थीं,

“बेटा!! एक सुबह ऐसी आएगी जब सब कुछ स्पष्ट हो जायेगा। उस सुबह सब पता चल जायेगा और इस सब कुछ का मतलब समझ में आ जायेगा।”

अभी भी उस सुबह का इंतज़ार है। और इस इंतज़ार में हर एक सुबह उठता हूँ, खुद को घिसट-घिसट कर जीता हूँ और फिर अगली सुबह के इंतज़ार में रात बिताने की कोशिश करता हूँ। रात हमेशा काली ही होती है और होने वाली सुबह पर भी अपनी कालिख पोत कर ही जाती है। उस एक सुबह के इंतज़ार में सैकड़ों सुबहें बीत गयीं हैं, पर अब भी कुछ हाथ नहीं लगा।

यह सब हमेशा से ऐसा नहीं था। मैं भी कभी सुबह उठता था तो उगते सूरज को देख कर खुद के ख्याल में आशा का सूरज उगा लेता था। फैले हुए प्रकाश को आनंद और सुख मानकर दिन के साथ उसे बनाये रखने की भरपूर कोशिश करता था। कोशिश सफल हो या असफल, मैं खुद को प्रसन्नता की सूली पर चढ़ाकर अपने आप को शहीद मानने के भ्रम को सच की चादर ओढ़ा ही देता था।

माँ ही कहतीं थीं, “हमेशा खुश रहो।”

माँ छोटी-छोटी चीज़ों में भी खुशी ढूँढ लेतीं थीं।

“मेरे घर में बहुत सारी माचिसें हैं और मैं हमेशा उन्हें तैयार रखती हूँ।
Home Light मेरी पसंदीदा माचिस है पर मैं Aim जलाना ज़्यादा पसंद करती हूँ।
यह बात Aim को खोजने के बाद की है।
Aim छोटे से, कड़े डिब्बे में अच्छे से pack होकर आता है
और गहरे काले अक्षरों से लिखा दिखता है उस पर नाम
जो कहता है मानों हम सबसे जोर-जोर से कि
ये देखो, ये है दुनिया की सबसे सुन्दर माचिस और तैयार है ये
छोटी, कोमल सी, लकड़ी एक काले से सर के साथ
पूरे होशो-हवाश में, गुस्से और दृढ़ता के साथ जल जाने को
शायद जला देने को उस औरत की सिगरेट
जिसे मैंने पहली बार प्यार किया।”

मैं उनकी उँगली पकड़कर उन्हें गाते हुए सुनता था और उस औरत की कल्पना करता था जिसके लिए यह गाया जा रहा होगा।

मुझे इन सुरों में शाम का धुँधलापन दिखता था, सूखी धूल पर टप्प से गिरी कुछ बूँदे दिखतीं थी, उन बूँदों का नमकीन स्वाद और अपने घरों को लौटते पक्षी दिखते थे। मेरी उँगलियों में फंसे गीत के शब्द दिखते थे।

माँ ने ही बाद में बताया कि उन शामों की कोई सुबह नहीं थी और वे शामें अगली शामों का इंतज़ार करने के लिए ही बनी होतीं थीं।

पर जब तक माँ ने ये बताया, तब तक मैं भी उन शामों के दृश्य का एक हिस्सा बन चुका था और उस गीत के आगे के गीत को अब अपने सुरों में गाने लगा था।

“शायद जला देने को उस औरत की सिगरेट
जिसे मैंने पहली बार प्यार किया।
सब कुछ बदल गया उस सिगरेट के जलने के बाद,
जो भी मैंने तुम्हें दिया, वोही तुमने मुझे दिया।
कभी मैं सिगरेट बना और तुम माचिस,
कभी तुम सिगरेट और मैं माचिस।
जल गए हम दोनों
और राख उड़ गयी अंतरिक्ष में।”

ऐसी ही एक शाम; गीत के सुरों के बीच एक अनदेखा, अनसुना पक्षी आकर बगीचे में बैठ गया। ऐसा पक्षी मैंने पहले कभी नहीं देखा था। देखने में बहुत ही अलग, आवाज बहुत ही मधुर, चंचल-चपल और हर पल अपनी तरफ ध्यान आकर्षित करने वाला। जब दोस्ती हुई तो पता चला वह भूखा है। मैंने उसे दाने दिए।

वह सारे दाने चुग गया। भूख नहीं मिटी। उसने कहा उसे नरम माँस चाहिए। मैंने उसे अपने दिल का माँस खिला दिया। रात की चाँदनी में वह और भी सुन्दर लगने लगा। रात भर मैं उसे देखता रहा और वह मुझे खाता रहा। सुबह मेरे क्षत-विक्षत शरीर को देख वह दूर चला गया। अब न मेरे पास उसे कुछ खिलाने को था और न ही कुछ दिखाने को। थोड़ी ही देर में उसने उड़ान भरी, ऐसी उड़ान कि वह जो उड़ा तो फिर कभी लौट कर नहीं आया।

“बचपन में गणित ने बताये तीन आयाम,
लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई।
जैसे एक संदूक।
फिर भौतिक शास्त्र ने कहा, चौथा आयाम
समय…..
जैसे एक संदूक में कोई लम्बी रात।
फिर पता चला और भी हैं आयाम,
पाँच, छः, सात…….
जब नदी में बहा दिया गया मुझे
तो नीले आसमान को बस शांति से देखता रहा मैं।”

पक्षी उड़ चुका था, अब रात और शाम हर सुबह के पहले ही आ जातीं थीं, शरीर इस तरह से क्षत-विक्षत था कि कोई भी कपड़ा अब घाव छिपा नहीं पा रहा था। बहुत प्रयास किया पर जैसा माँ ने कहा था, अंत में कफ़न ही मेरे काम आया जब उसके नीचे मेरे सारे घाव छुप गए।

(शिव कुमार बटालवी की कविताओं और जीवन से प्रेरित)

--

--