ये मुक्तिबोध कौन है??

Manas Mishra
Hindi Kavita
Published in
6 min readSep 24, 2016
Image by Shiraz Husain @ KTC

‘मुक्तिबोध मार्क्सवादी है।’

‘न, न, मुक्तिबोध समाजवादी है।’

‘अरे भाई! मुक्तिबोध तो लेखक है।’

‘ क्या बात करते हैं, मुक्तिबोध कवि है।’

‘ ऐसा नहीं है। मुक्तिबोध सफल है।’

‘नहीं, नहीं, आपको नहीं पता फिर। मुक्तिबोध तो असफल है।’

प्रश्न अब भी वही है कि आख़िरकार ‘ये मुक्तिबोध है कौन?’

कवितायें हमारे जन्म से ही हमारे जीवन का हिस्सा बन जाती हैं। चाहे वह हमारे जन्म के समय गाया गया मंगलगीत हो या फिर प्रणय निवेदन के लिए गुनगुनायी गयी कविता। जाने अनजाने में कवितायें हम हमेशा से पढ़ते आये हैं। पर कोई क्यों लिखता है कविता?’

जब एक कवि कविता लिखता है तो वह अपने आप में एक बोध होता है। बोध कभी आत्मसौन्दर्य का और बोध कभी विश्वचेतना का। पर कविता निकलती क्यों है और कोई कवि बनता क्यों है?’

‘पाश’ ने तो साफ़ साफ़ कह ही दिया कि

क्यों कुचले जा रहे आदमी के चीखने को
हर बार कविता कह दिया जाता है?

तो क्या कवि बनते नहीं बल्कि बनाये जाते हैं? यदि वेदना और हताशा के हर कातर स्वर को कविता की संज्ञा दे दी जाती है तो क्या कविता उस द्वन्द की अभिव्यक्ति है जो जीवन में अव्यक्त सा रह जाता है। पर फिर से प्रश्न आता है कि ‘ये द्वन्द क्या है? और वह द्वन्द, क्या हमारे जीवन में भी है?’

परम अभिव्यक्ति
लगातार घूमती है जग में,
पता नहीं जाने कहाँ, जाने कहाँ
वह है।
इसीलिए मैं हर गली में,
और हर सड़क पर
झाँक झाँककर देखता हूँ हर एक चेहरा,
प्रत्येक गतिविधि,
प्रत्येक चरित्र,
व हर एक आत्मा का इतिहास,
हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति प्रत्येक मानवीय स्वानुभूत आदर्श
विवेक-प्रक्रिया, क्रियागत परिणति!!
खोजता हूँ पत्थर…..पहाड़…..समुन्दर
जहाँ मिल सके मुझे
मेरी वह खोयी हुई
परम अभिव्यक्ति अनिवार्य
आत्म सम्भवा!

यह हैं मुक्तिबोध। जो व्यक्त करते हैं द्वन्द एक ‘आइडेंटिटी’ की खोज का। ‘आइडेंटिटी’ की खोज हिमालय में नहीं, कल्पनाशील लोक में नहीं, बल्कि गलियों में, राजनैतिक परिस्थितियों में और चारों तरफ यूँ ही कुछ न कुछ करते मानव चरित्रों में। मुक्तिबोध उस की खोज करते हैं जो है, जो है यहीं कहीं पर अब दिखाई नहीं देता।

वह चला गया है,
वह नहीं आयेगा, आयेगा ही नहीं
अब तेरे द्वार पे।
वह निकल गया है गाँव में शहर में!
उसको तू खोज अब
उसको तू शोध कर!

मुक्तिबोध एक चरित्र हैं। एक ही चरित्र जो ‘मैं’ भी है और ‘वह’ भी है। ‘मैं’ जो हम अभी हैं, और ‘वह’ जिसे हमनें आत्मनिर्वासित कर दिया है। आत्मनिर्वासित ‘वह’ जो अब रहता है हमारे मन की तिलिस्मी खोह में। ‘वह’ जिससे ‘मैं’ को भय है, डर है, और ‘मैं’ उस ‘वह’ को टालता जाता है हर दिन क्योंकि ‘मैं’ को अपनी कमजोरियों से लगाव हो गया है। क्योंकि ‘वह’ कहता है ह्रदय को खाने को बिजली के झटके और उत्तुंग हिमशिखर की खतरनाक शिखर से रस्सी के झूलते पुल से कहता है पर्वत संधि के खोहों को पार करने को। यह द्वन्द जो चलता है उस दिन तक जब आदमी कोशिश करता है दरवाजा खोलने की और देखता है कि अब ‘वह’ खो चुका है।

एकाएक वह व्यक्ति
आँखों के सामने
गलियों में, सड़कों पर, लोगों की भीड़ में
चला जा रहा है।
वही जन जिसे मैंने देखा था इस गुहा में।
धड़कता है दिल
की पुकारने को खुलता है मुँह
की अकस्मात
वह दिखा, वह दिखा
वह फिर खो किसी जन यूथ में..
उठी हुई बाँह यह उठी रह गयी !!!

मुक्तिबोध की कविता में उतराता यह द्वन्द ही उनकी कविताओं को अदभुत बना देता है एक रहस्मय तरीके से।

क्या करूँ, किससे कहूँ
कहाँ जाऊँ, दिल्ली या उज्जैन?

मुक्तिबोध रचनाकार हैं जो यथार्थ की फैंटेसी में जीवन की पुनर्रचना करते हैं।

मुक्तिबोध बेचैन हैं। पर उनकी बेचैनी पाश से इतर है। जीने की इच्छा उनमे भी है, पर उनकी ‘प्रेरणायें’ उस ‘वह’ की ‘प्रेरणा’ है जो ‘मैं’ से बहुत भिन्न है।

मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।

मुक्तिबोध ब्रह्मराक्षस हैं जो रहते हैं अंधेरों में, गहराइयों में, जल से भरी बावड़ियों में, किन्तु सत्य के शिशु को रखते हैं सदा अपने शीश पर उठाये इन सबसे ऊपर। वे खोजते हैं उन लोगों को और भरना चाहते हैं उनमे वह सब द्वन्द, वह सब गुस्सा, वह सब रोष किन्तु उस परम्परागत रंगीन, रोमांटिक तरीके से नहीं, बल्कि यथार्थ से, आस पास के परिवेश से।

पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार,
तब कही देखने मिलेगी हमको
नीली झील की लहरीली थाहें,
जिसमे की प्रतिपल काँपता रहता
अरुण कमल एक

मुक्तिबोध वह हैं जिसमें गुस्सा है हमारे देश के उस बड़े वर्ग के सहयोगी चरित्र को लेकर जो सामाजिक सांस्कृतिक परिक्रियाओं के स्तर पर एक गलत मार्ग चुनकर समझौते की राह पकड़ लेता है। वह वर्ग जिसमें जीने की लालसा और चिंता, संघर्ष की क्षमता तो है पर वह कहीं अंधेरों में, गहराइयों में खो जाता है।

गहन मृतात्म्य इसी नगर की,
हर रात जुलुस में चलतीं
परन्तु दिन में
बैठतीं हैं मिलकर करती हुई षणयंत्र
विभिन्न दफ्तरों, कार्यालयों, केन्द्रों में, घरों में।

और समस्या यह नहीं है कि इनके पास मार्ग नहीं है, विकल्प नहीं है। ये नए ज़माने के लोग हैं जिनके पास इतने विकल्प हैं कि ये रास्तों की अधिकता से विकल हैं। हर चौराहे पर मिलने वाली सौ राहों में ये खड़े हैं किंकर्तव्यविमूढ़।

मुझे कदम-कदम पर
चौराहे मिलते हैं
बाँहे फैलाए !!

एक पैर रखता हूँ
कि सौ राहें फूटतीं,
व मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ
बहुत अच्छे लगते हैं
उनके तजुर्बे और अपने सपने…
सब सच्चे लगते हैं;
अजीब सी अकुलाहट दिल में उभरती है
मैं कुछ गहरे मे उतरना चाहता हूँ,
जाने क्या मिल जाए !!

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में
चमकता हीरा है,
हर-एक छाती में आत्मा अधीरा है,
प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है
मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी में
महाकाव्य-पीड़ा है,
पल-भर मैं सबमें से गुजरना चाहता हूँ,
प्रत्येक उर में से तिर आना चाहता हूँ,
इस तरह खुद ही को दिए-दिए फिरता हूँ,
अजीब है जिंदगी !!
बेवकूफ बनने की खतिर ही
सब तरफ अपने को लिए-लिए फिरता हूँ;
और यह देख-देख बड़ा मजा आता है
कि मैं ठगा जाता हूँ
हृदय में मेरे ही,
प्रसन्न-चित्त एक मूर्ख बैठा है
हँस-हँसकर अश्रुपूर्ण, मत्त हुआ जाता है
कि जगत्… स्वायत्त हुआ जाता है।

मुक्तिबोध सब कुछ हैं। वे हताश हैं, वे बेचैन हैं, वे निराश हैं, वे उद्वेलित हैं, वे आधुनिक हैं, वे प्रयोगवादी हैं, वे क्रान्तिकारी हैं, वे यथार्थवादी हैं, वे कल्पनाशील हैं।

मुक्तिबोध हम सब के लिए एक विरोधाभास हैं, हमारे अपने चरित्र की तरह जो ‘मैं’ और ‘वह’ में फँस कर उलझ गया है। और यह विरोधाभास ही मुक्तिबोध की अलौकिकता है। उनकी हर एक पंक्ति उसी विरोधाभास को दिखाती है, जो उनकी कविता और जो उनकी लम्बी कविता, जो उनके काव्य संग्रह और उनकी कहानियाँ दिखाती हैं।

मुक्तिबोध अपने आप में एक विज्ञान हैं, एक नया ही विज्ञान जो सतह से उठा हुआ है। उनका अपना एक सौन्दर्यबोध है जो दुत्कार देता है उस संकीर्ण सौन्दर्यबोध को जो परम्परागत है, रुढ़िवादी है। उनका अपना जगत, बाहर के जगत से प्रभावित नहीं होता।

मुक्तिबोध एक भाषा हैं। एक ऐसी भाषा जो चुनौती देती है अपने आत्मालाप से उन सबको जिन्हें सिर्फ़ परिमार्जित और परिष्कृत भाषा सुहाती है। यह लय, ताल, तुकबंदी की सपाट कवितायें नहीं हैं, यह असंगठित काव्य है जो जड़वादी परम्परा को तोड़ता है।

मुक्तिबोध एक सौन्दर्यबोध हैं। सौन्दर्यबोध जो यथार्थ की पुनर्रचना में निहित है। मुक्तिबोध की कविताओं में एक खुरदुरापन है, उनके विचारो में और उनके लक्ष्य में एक पैनापन है। यह सरल मार्ग नहीं है। हो सकता है यह कठिन हो, पर यह ऐसा ही है। निर्विकार, पवित्र और प्रत्यक्ष का संश्लेषण।

‘नहीं, मुक्तिबोध छायावाद नहीं हैं।’

‘नहीं भाई, मुक्तिबोध प्रगतिवाद भी नहीं हैं।’

‘मुक्तिबोध सत्य हैं।’

‘मुक्तिबोध एक अभिव्यक्ति हैं।

‘एक अभिव्यक्ति ऐसी जिसकी तलाश है हम सबको।’

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