हमें तो अनिर्मित पंथ प्यारे हैं..
‘लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पंथ प्यारे हैं..’
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी की इन पंक्तियों में जो दर्शन है यह सिर्फ दूसरों के लिए नहीं गढ़ा गया बल्कि वे स्वयं भी जीवनपर्यंत इसी पर चलते रहे। उन्होंने सिर्फ लिखने के लिए नहीं बल्कि जीने के लिए भी लिखा। और कविता जब जीवन से मिल जाती है तो वह यथार्थ बन जाती है। यह यथार्थ उनके विचारों का धरातल भी है और उनकी रचनाओं का आसमान भी। तभी तो जब वह कहते हैं कि:
‘कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना’
तो वह इस अनुभूति की महीन डोर पर चलते हुए भी साधारण मगर अदृश्य-सी सच्चाई को बड़ी कुशलता से थाम लेते हैं।
हमारा जीवन कभी एक रुप नहीं रहता। हर्ष-विषाद, आँसू-हँसी, सफलता-असफलता अलग-अलग रुपों में और समयों पर हमारा साक्षात्कार करते रहते हैं। इस शाश्वत-सत्य को सर्वेश्वर जी की कविताओं में बख़ूबी देखा जा सकता है। इस अर्थ में उनकी कविताएँ और प्रभावित करती हैं कि इनमें अगर निराशा है, विषाद है तो उससे आगे बढ़ कर देखने का दर्शन भी है और ललक भी। वह जब कहते हैं कि:
‘घास की पत्तियाँ तक इतनी बड़ी लगती हैं
कि मेरा सिर उनकी जड़ों से
टकरा जाता है’
तो यहाँ एक घोर निराशा आकार लेती हुई दिखाई देती है। पर जब वे कहते हैं-
‘हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं
हर दीवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुजर सकता है
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है’
तो टूटकर बिखरा हुआ मन भी प्रेरणा पाकर जुड़ने लगता है।
सर्वेश्वर जी को उनकी बेलाग भाषा और तीव्र आवेग के लिए जाना जाता है जो उन्हें एक विद्रोही रचनाकार की छवि देता है। लेकिन वे विद्रोह से आगे जाकर रास्ता भी सूझाते हैं और जरुरत के वक़्त साथ खड़े भी मिलतें हैं। कभी हालात से क्षुब्ध उनकी आवाज व्यंग्य भी करती है तो कभी ढ़ाढ़स बंधाती, सहारा देती पलायन से रोकती भी है। उनकी कविताओं में जिजीविषा भी है और बदलाव का धैर्य भी। यहीं से जीवन की राह भी निकलती दिखती है जब वे कहते हैं-
‘सूरज जाएगा भी तो कहाँ
उसे यहीं रहना होगा यहीं,
यहीं हमारी साँसोंमें
हमारी रगों में
हमारे संकल्पों में
हमारे रतजगों में
तुम उदास मत होओ
अब मैं किसी भी सूरज को
नहीं डूबने दूँगा’
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि उनकी कविताएँ साहित्य की धरोहर हैं।
वैसे कविताओं के अलावा उन्होंने कहानी, नाटक, व्यंग्य, इत्यादि में भी सार्थक योगदान दिया है। बाल-कविता में भी उनका योगदान अविस्मरणीय है। ‘खूंटियों पर टंगे लोग’ कविता-संग्रह के लिए सन् 1983 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ‘मुक्ति की आकांक्षा’ शीर्षक कविता आजादी को रेखांकित करती उनकी प्रसिद्ध कविताओं में से एक है।
उनकी पुण्यतिथि पर हमारी तरफ से सर्वेश्वर जी को श्रद्धांजलि, उनकी कविता ‘फ़सल’ के माध्यम से:
हल की तरह
कुदाल की तरह
खुरपी की तरह
पकड़ भी लूँ क़लम तो
फिर भी फ़सल काटने
मिलेगी नहीं हमको।
हम तो ज़मीन ही तैयार कर पाएंगे
क्रांतिबीज बोने तो कुछ बिरले ही आएंगे
हरा-भरा वही करेंगे मेरे श्रम को
सिलसिला मिलेगा आगे मेरे क्रम को।
कल जो भी फ़सल उगेगी, लहलहाएगी
मेरे ना रहने पर भी
हवा से इठलाएगी
तब मेरी आत्मा सुनहरी धूप बन बरसेगी
जिन्होंने बीज बोए थे
उन्हीं के चरण परसेगी
काटेंगे उसे जो फिर वो ही उसे बोएंगे
हम तो कहीं धरती के नीचे दबे सोएंगे।