विश्वास
आशारत यह जीवन
विश्वास कव्वे की तरह होता है….
यह श्मशान के आसपास रहकर पेट भरता है…
और
मृत आशंकाओं के इर्द-गिर्द भी अपनी अनिवार्य आशा को जीवित रखता है..
–अज्ञात
बावजूद इसके सियार और गीदड़ घने — अँधेरे जंगलों में ही मिलेंगे .
कहते हैं ‘जब गीदड़ की मौत आती है तो वो शहर की ओर भागता है….शायद इसलिए क्योंकि..
शहर जिंदा कब्रिस्तान हैं, जंगल धरती की कोख हैं/
विश्वास तब पनपता है जब नए विचार जन्मते हैं…
नए विचार ,
धूप सेंकते हुए / बालकनी में बारिश का मजा लेते हुए नहीं जनमते.
नए विचारों को जंगल की राख चाहिये ,
वो प्रसव पीड़ा ,
अंधियाला
और
वो सब कुछ जो सामान्य नहीं…
आविष्कारों ने हमें आरामतलबी मुहैय्या कराई है
पर
आरामतलबी आविष्कार नहीं कर सकती ….
हे प्रभु !विश्वास को भोजन मिले !