प्रधानजी और मैं: आंकड़ों की कमजोर नस
रुक्मणी बनर्जी, आशुतोष उपाध्याय द्वारा अनुवादित
संख्याएं किस तरह आकार ग्रहण करती हैं, इसकी कल्पना करना आसान नहीं है. बिंदुओं को जोड़कर पूरी तस्वीर गढ़ना कठिन काम है. यह किसी की इकलौती लघुकथा से पूरे आख्यान तक पहुंचने जैसी कठिन यात्रा है. यहां तक कि एक गांव भी एक बड़ी जगह साबित हो सकता है.
हम उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के एक गांव में थे. हमारे मकसद भी कई थे: हम जानना चाहते थे कि क्या बच्चे स्कूल जा रहे हैं? क्या वे पढ़ पाते हैं और बुनियादी गणित कर लेते हैं? इस मसले पर हम गांव के लोगों की भी हिस्सेदारी चाहते थे ताकि वे इन मुद्दों पर विचार करें और ज़रूरत पड़े तो कोई कदम उठाएं. हमारा तरीका बिल्कुल सीधा-सपाट था. एक पेज के आसान से एसेसमेंट टूल से हमारी शुरुआत हुई. इस टूल में अक्षर, शब्द, वाक्य और अनुच्छेद दिए हुए थे. संख्याएं और बुनियादी गणितीय क्रियाएं थीं. काम की शुरुआत के लिए हमने एक टोला चुना और धीरे-धीरे एक घर से दूसरे घर तथा एक परिवार से दूसरे परिवार की ओर बढ़े. हर बच्चे को हम कुछ पढ़ने, गिनने और हिसाब लगाने का काम देते थे. जैसे-जैसे लोगों को पता चला कि क्या हो रहा है, बड़ी संख्या में लोग मदद के लिए आगे आने लगे.
जैसा कि हमारी परिपाटी है, गांव का रिपोर्ट कार्ड जारी करने से पहले हम गांव के मुखिया से, जिसे इस इलाके में प्रधान कहते हैं, मिलने पहुंचे. ये प्रधानजी भी, दूसरे तमाम प्रधानों की तरह बेहद व्यस्त आदमी थे. उनका दूध का कारोबार था और जिस वक्त हम उनसे मिलने पहुंचे, वह अपनी गायों को दुह रहे थे. मैं उन्हें अपने काम के बारे में समझाने की कोशिश करने लगी तो बीच में टोकते हुए उन्होंने पूछा, “सर्वे? आप लोग कोई सर्वे कर रहे हैं? दबी जुबान में वह बुदबुदाए, “सर्वे, सर्वे, सर्वे.” यह भांपते हुए कि प्रधानजी बहुत व्यस्त हैं और हमारे काम में भी उनकी ख़ास दिलचस्पी नहीं हैं, हम आगे बढ़ गए. टोला-दर-टोला अपना अभियान जारी रखते हुए हमने बच्चों से बातें कीं, उनके परिवार वालों को समझाया, उनकी दादियों/नानियों, पड़ोसियों व दुकानदारों से चर्चा की और बच्चों से इस टेस्ट में हिस्सा लेने का आग्रह किया. जल्दी ही उत्सुक दिखाई पड़ने वाले अनेक दर्शक हमारे अभियान का हिस्सा बन गए. वे भी स्कूली उम्र के लड़के-लड़कियों से बातचीत करने लगे. बच्चे हमेशा की तरह आमने-सामने बातचीत का मौका मिलने और उन्हें कुछ काम करने को “कहे” जाने के कारण बेहद उत्साहित थे. जब हरेक बच्चा पढ़ने और आसान सा जोड़-घटा करने की कोशिश कर रहा था तो उनके अभिभावक व पड़ोसी उन्हें ध्यान से देख रहे थे. बच्चा कुछ कर दिखाता तो वे गर्व महसूस करते थे. लेकिन कई बार यह देखकर वे सकते में आ जाते कि कई सालों से स्कूल जाते रहने के बावजूद उनका बच्चा मामूली चीज़ें भी नहीं कर पा रहा है. यह गतिविधि अमूमन गर्मा-गर्म बहस में बदल जाती थी- वे समस्या की जड़ में पहुंचना चाहते थे. इसका हल क्या हो, इस पर बहस करने लगते थे. कई अभिभावकों के लिए, जो ख़ुद ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे, बच्चों की पढ़ाई की समस्या से रू-ब-रू होने का यह पहला मौका था. वे पहली बार इस चर्चा में शामिल हो रहे थे कि उनका बच्चा स्कूल में कुछ सीख रहा है कि नहीं.
कुछ ही दिनों में हमारा काम ख़त्म हो गया. टोले का हर बच्चा और हर परिवार शामिल किया गया. हम गांव का रिपोर्ट कार्ड दिखाने दोबारा मुखिया के पास गए. इस बार भी प्रधानजी व्यस्त थे. थोड़े तल्ख़ अंदाज़ में उन्होंने कहा, “दस्तख़त कहां करने हैं मुझे? आपके उच्च पदाधिकारियों को भेजे जाने से पहले कहां होने हैं मेरे दस्तख़त?” थोड़ा उखड़ते हुए मैंने जवाब दिया, “आपको कहीं दस्तख़त नहीं करने हैं. यह रिपोर्ट कहीं नहीं भेजी जाती है.” प्रधानजी ने मुझ पर उड़ती हुई नज़र डाली और सुझाया, “अपने ऊपर वालों से जाकर पूछो. आंकड़े हमेशा चढ़ते हुई दिखाई देने चाहिए. कौन नहीं जानता ये सर्वे आप जैसे लोगों के लिए ही होते हैं. यह बात कौन नहीं जानता.”
प्रधानजी का ध्यान आकर्षित करने के लिए मैंने एक और सवाल दागा, “क्या मैं आपको बताऊं कि यह रिपोर्ट कार्ड क्या कहता है?” बड़ी उम्मीद के साथ मैंने बात आगे बढ़ाई, “यह बताता है कि गांव के लगभग सभी बच्चे स्कूल जा रहे हैं, मगर उनमें आधे से ज्यादा अब भी पढ़ नहीं पाते और आसान सा जोड़ नहीं कर सकते.” प्रधानजी ने तीखी नज़रों से मेरी ओर देखा, “सरासर झूठ है यह.” भरपूर आत्मविश्वास से उन्होंने घोषणा की, “मुझे पता है सर्वे कैसे किए जाते हैं. आप लोग गिने-चुने घरों में जाते हैं और फिर थक जाते हैं. इसके बाद आप चाय के ढाबे पर जाते हैं और वहां बैठकर तसल्ली से अपनी शीट में मनचाहे आंकड़े भर लेते हैं. बस इसी तरह सारे सर्वे किए जाते हैं.” उनकी बातें सुनकर वहां इकठ्ठा भीड़ में सुगबुगाहट होने लगी. उन लोगों में से कई न सिर्फ पूरी कवायद के गवाह थे, बल्कि कइयों ने तो उसमें हिस्सेदारी भी की थी. हमारा सर्वे तमाम दूसरे सर्वेक्षणों जैसा यकीनन नहीं था.
प्रधानजी ने अपने हाथ में पकड़ी हुई दूध की बाल्टी नीचे रख दी. उन्हें हमारे डेटा पर भरोसा नहीं हो रहा था. “यह नहीं हो सकता,” वह बोले. (जहां मैं उनके अविश्वास को देख सकती थी, मेरे लिए यह जानना दिलचस्प था कि उन्हें “झूठ” और “असत्य”, दो अलग-अलग श्रेणियां प्रतीत होती थीं.) वह हैरान थे, “यह कैसे हो सकता है कि इतने सारे बच्चे स्कूल जाने के बावजूद पढ़ नहीं पाते हैं?”
इस मसले को सुलझाने का बस एक ही उपाय था. प्रधानजी ने तय किया कि वे ख़ुद जाकर सच का पता लगाएंगे. हमारे एक पेजी रीडिंग टेस्ट को लेकर वह गांव की ओर निकल पड़े. पास के घर से उन्होंने एक बच्चे को बुलाया और टेस्ट पेपर पढ़ने को कहा. शुरूआती छः या सात बच्चों के प्रदर्शन से ही चकरा गए प्रधानजी की घंटी बज चुकी थी. वह जान गए कि गांव का रिपोर्ट कार्ड एकदम सही है. प्रधानजी अब हमसे सहमत थे. समस्या को उन्होंने ख़ुद अपनी आंखों से देख लिया था. उन्होंने इसे एक संकटपूर्ण स्थिति घोषित करते हुए ‘इज्ज़त के सवाल’ को हर हाल में हल करने की ज़रूरत बताई. बच्चों से एक कागज़ पढ़वाने जैसी मामूली कवायद के ज़रिए इतनी बड़ी समस्या की “खोज” के परिणामस्वरूप उन्होंने तत्काल गांव की बड़ी बैठक बुला डाली ताकि पीछे छूट गए बच्चों की मदद के लिए समय व संसाधन जुटाए जा सकें.
हालांकि हम एक दशक से भी ज्यादा समय से एनुअल स्टेटस ऑफ़ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) जारी कर रहे हैं, मगर हर साल हमें ये ही कहानियां बार-बार सुनाई पड़ती हैं.
कई बार, महज डेटा पास में होना ही पर्याप्त नहीं होता. अगर आपके दिमाग में कोई सवाल नहीं है, कोई उत्सुकता नहीं है, तो आप जवाब खोजने नहीं जाएंगे. पहला कदम है शामिल होना. लेकिन प्रक्रिया अगर जटिल या बहुत समय लेने वाली होगी तो आप शामिल होने में झिझकेंगे. शामिल होने के बाद अगला कदम होगा और अधिक जानने की, जांचने की, तुलना करने की, अंतर देखने की, छान-बीन करने की और प्रवृत्तियों को ढूँढने की इच्छा. हम करके सीखते हैं और सीखने के बाद करते हैं. ऐसे वातावरण में जहां माप-जोख की संस्कृति का अभाव हो, वहां धारणाएं और विचार, कल्पनाएं और घटनाएं ज्यादा प्रभावी हो जाती हैं. तब प्रत्यक्ष हिस्सेदारी ज़रूरी हो जाती है. केवल अनुभव ही लोगों के मन को बदल सकता है.
संख्याएं किस तरह आकार ग्रहण करती हैं, इसकी कल्पना करना आसान नहीं है. बिंदुओं को जोड़कर पूरी तस्वीर गढ़ना कठिन काम है. यह किसी की इकलौती लघुकथा से पूरे आख्यान तक पहुंचने जैसी कठिन यात्रा है. यहां तक कि एक गांव भी एक बड़ी जगह साबित हो सकता है. लेकिन गांव के रिपोर्ट कार्ड को उजागर करने का हमारा अनुभव बताता है कि किसी टोले में या इसके आस-पड़ोस में जहां हर कोई हर किसी को जानता था और जहां आंकड़े जुटाने की प्रक्रिया प्रत्यक्ष व सहभागी थी, वहां लोगों की व्यक्तिगत सूचनाओं को साथ जोड़कर एक सम्पूर्ण तस्वीर दिखा पाना अपेक्षाकृत आसान था. लोग न सिर्फ जांच-पड़ताल में शामिल हुए, बल्कि अपने आसपास मौजूद लोगों से उन मुद्दों पर लगातार चर्चा भी करते रहे कि समस्या क्या है, क्या किया जाना चाहिए, कौन करेगा, कब करेगा आदि इत्यादि. इस तरह कोई प्रमाण किसी कार्रवाई में तब्दील होता है.
यह अतिथि पोस्ट डॉ. रुक्मणी बनर्जी ने लिखी है, जो प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन की सीईओ हैं. भारत में शिक्षा क्षेत्र में किए जा रहे प्रथम के काम के कुछ हिस्से में साझेदारी पर IDinsight गर्व महसूस करता है.
Please click here to read the blog post in English.