कोलैटरल ब्यूटी

Manas Mishra
IndiaMag
Published in
6 min readJan 4, 2017

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‘कोलैटरल ब्यूटी’। पिछले कुछ दिनों से यह शब्द चर्चा में बना रहा क्योंकि इस नाम से एक फ़िल्म आयी, जिसमे कई सारे नामचीन कलाकार थे। फ़िल्म अकेलेपन, दुःख और अवसाद के बीच चलते हुए जीवन के स्रोत का अर्क लिए एक व्यक्ति की कहानी है। व्यक्ति, जो जीवन में हुए दुःखद हादसों को समझने की कोशिश करता है और किस प्रकार जीवन में होने वाली हर घटना एक अर्थ लिए होती है, फ़िल्म इस सार के इर्द गिर्द घूमते हुए ही हमें इस कहानी के माध्यम से यह बताती है।

पर यह ‘कोलैटरल ब्यूटी’ है क्या? और अगर दुःख और मृत्यु भी जीवन के अर्थ को पूर्ण करते हैं तो फिर हम इनसे बचते क्यों हैं? अगर यह जीवन का इतना ही अभिन्न हिस्सा हैं तो हम क्यों हमेशा अपने आप को इनसे अलग करने की जुगत में लगे रहते हैं? फ़िल्म हमें एक सीधी सी बात तो बता जाती है, पर एक बड़ा प्रश्न पीछे छोड़ जाती है। यदि फ़िल्म के बाद हम यह जान चुके हैं कि सब कुछ घटित होने वाला जीवन के अर्थ को ही पूरा करता है तो फिर हमारे लिए दुःख है क्या? और फिर सुख क्या है?

यदि मृत्यु में भी आप जीवन का अर्थ तलाशते हैं, तो फिर आप मृत्यु में भी एक सुन्दरता देखते हैं। और अगर आप मृत्यु में भी सुन्दरता देखते हैं तो आप जीवन को कम कर रहे हैं। मृत्यु के बाद जो भी होगा, निःसंदेह वह जीवन तो नहीं होगा, और यह जीवन तो बिलकुल भी नहीं जिसे हम जीवन कहते हैं। तो फ़िर मृत्यु में हम कैसे खोजें जीवन का अर्थ? और अगर आप दूसरों की मौत से अपने जीवन का अर्थ समझने का प्रयास कर रहें हैं तो आप फ़िल्म के उस मुख्य पात्र की ही तरह हैं। आप कितने भी अवसाद में जी लें, पर अगर आप जीना चाहते हैं तो अंततः आप जीवन का अर्थ समझ ही जायेंगे और उसी पात्र की तरह अपने जीवन की गाड़ी को आगे बढ़ा देंगे। क्योंकि हर कोई मरना नहीं चाहता, भले ही वह मृत्यु की कितनी ही सुन्दरता देख ले। सरल और स्पष्ट शब्दों में कहें, तो आप उस पर्यटक की तरह हैं जो मृत्यु के सागर के किनारे जाता है और दो-चार फ़ोटो खींच के चला आता है क्योंकि उसे ऑफिस जाना ही है, समाज में जीना ही है, पैसे कमाने ही हैं। आप उस यात्री की तरह नहीं हैं जो मृत्यु के सागर के किनारे पर जाता तो है, पर उसे खुद भी नहीं पता होता कि वह कब वापस आएगा, और क्यों वापस आएगा। वापस आएगा भी कि नहीं।

“सच को हमेशा कड़वा कहते हैं पर यह भी सच ही है कि किसी के भी मरने के बाद आप बस मरने की बातें करते हैं, खुद कभी नहीं मरते। मरना चाहिए या नहीं, इस प्रश्न का उत्तर आपके पास होता है क्योंकि वह आप पहले ही खोज चुके होते हैं।”

पर इन सबमें फिर ‘कोलैटरल ब्यूटी’ शब्द कहाँ से आया? और इसकी क्या ज़रुरत है?
असल में, ‘कोलैटरल ब्यूटी’ ही सबसे ज़रूरी शब्द है। फ़िल्म की कहानी ने भले उसका एक ही पहलू दिखाया हो पर यह शब्द है बहुत ज़रूरी।

बाज़ार की अँग्रेजी के शब्दकोश में शामिल होने से पहले, ‘कोलैटरल’ शब्द दो वस्तुओं के अस्तित्व को एक साथ में होने के तात्पर्य में प्रयोग किया जाता था। बाद में एक पूंजीवादी देश विशेष कह लें, या बाज़ार विशेष कह लें, ने इस शब्द को ब्याज और चकवृद्धि ब्याज के साथ जोड़ दिया। और ब्याज के इस खेल में हम शब्द का मूल ही भूल गए। तो यदि प्रचलित अर्थ पर न जाकर, शाब्दिक अर्थ पर जाएँ, तो ‘कोलैटरल ब्यूटी’ का शाब्दिक अनुवाद होगा- “दो वस्तुओं के अस्तित्व के एक साथ होने की सुन्दरता।”
सारा खेल यहीं है — “दो वस्तुओं के अस्तित्व के एक साथ होने की सुन्दरता।”

पर क्या कभी दो वस्तुओं के एक साथ अस्तित्व से सुन्दरता उपजती है? तब जब न ही वह एक दूसरे के पूरक हों और न ही एक दूसरे से होड़ में लगे हों। बस वे हों। बस उनका एक साथ होना ही सुन्दरता हो। क्योंकि पूरक होना उन दो वस्तुओं के एक साथ होने और उनके स्वतंत्र अस्तित्व के होने, दोनों पर ही प्रश्नचिन्ह लगाता है। होड़ में एक को बेहतर होना ही पड़ेगा। तो फ़िर ‘कोलैटरल ब्यूटी’ है कहाँ? क्योंकि आज के इस परिणाम-पिपासु युग में दो चीज़ों के साथ आते ही एक सुन्दर और एक कुरूप हो जाती है, एक सुन्दर और दूसरी थोड़ी सी कम सुन्दर, एक बहुत सुन्दर और दूसरी सुन्दर हो जाती है। दो चीज़ों का स्वतंत्र पर सह-अस्तित्व और उसकी सुन्दरता कहाँ है?

चाहे वह दो कुर्सियाँ हों, दो महिलायें या फ़िर दो विचार, हम तुलना और परिणाम के बिना नहीं रह सकते। स्वतंत्र और सह अस्तित्व जैसी बातें अब निरर्थक हैं। हमारे पास सबके लिए मत है फ़िर वह चाहे कुर्सियाँ हों, महिलायें हों, पुरुष हों या विचार हों। जीवन और मृत्यु हों तो भी। सह अस्तित्व की स्वतंत्रता का विचार अब प्रचलन में ही नहीं रह गया है। जीवन और मृत्यु के सन्दर्भ में तो कदाचित भी नहीं। जीवन और मृत्यु को कभी हमनें अलग करके देखा ही नहीं। बल्कि मृत्यु पर भी जीवन की ही एक परत चढ़ा दी गयी। मृत्यु के बाद भी हम एक जीवन की ही कल्पना करते हैं। मृत्यु के बाद क्या होगा, किसी को नहीं पता। हो सकता है आप जिस जीवन की कल्पना कर रहे हों, जिस निर्वाण का दिलासा दिया जाता है, वही सच हो। या फ़िर होने को यह भी हो सकता है कि आप बस सड़े-गले एक माँस के लोंदे बनकर पड़े रहें और कुछ जानवर आकर आपको खा जाएँ। संभावनायें दोनों हैं, प्रायिकता दोनों की है, और आप फ़िर वही चुनेंगें जिसमे आप खुद को सुविधाजनक समझेंगें। पर इन दोनों सम्भावनाओं का एक साथ होना ही ‘कोलैटरल ब्यूटी’ है। क्योंकि दोनों ही अवस्थाएं उतनी ही सुन्दर हैं। जिसको नहीं लगती, उसके लिए ‘कोलैटरल ब्यूटी’ कुछ और होगी। यदि आप सिर्फ़ सुन्दरता की सुन्दरता में ही विश्वास रखना चाहते हैं और असुन्दरता (=सुन्दरता) की सुन्दरता से आपको परेशानी है तो फ़िर आप की ‘कोलैटरल ब्यूटी’ का विचार असल में ‘ब्यूटी’ का विचार है।

क्या आप अभी मरने को तैयार हैं? क्या आप अभी सब कुछ छोड़ने को तैयार हैं? यदि नहीं, तो इसीलिए क्योंकि आपने जीवन को मृत्यु से ऊपर माना है। पर किसने बताया आपको कि यह सच है? हो सकता है कि यह जीवन ही नर्क हो। मृत्यु के बाद कुछ ऐसा हो जिसे आप स्वर्ग मानते हों। हो सकता है मृत्यु के बाद ही नर्क हो। हो सकता है कुछ भी न हो। बस एक निर्वात हो। हम तो ज़िन्दगी में हमेशा ‘रिस्क’ लेते आये हैं, तो फ़िर इस अज्ञात का पता लगाने का ‘रिस्क’ क्यों नहीं? इसलिए क्योंकि हम अब भी मृत्यु की सुन्दरता को नहीं मानते हैं। हम अब भी हर किसी को बचाना चाहते हैं, सब कुछ अपने पास रखना चाहते हैं।

“और हम उनको भी बचाना चाहते हैं, जो मृत्यु को सुन्दर मानते हैं। जो मरना चाहते हैं, जो यह देखना चाहते हैं, हम उन्हें भी रोकने की पूरी कोशिश करते हैं। क्यों? यदि आपने किसी को जीवन दिया नहीं है, तो आप किसी का जीवन ले भी नहीं सकते। पर यदि मैं अपनी ज़िन्दगी अपने से जी रहा हूँ, तो उसे रोकने का भी अधिकार मेरा ही होना चाहिए। आप शायद वह नहीं देख पा रहे, जो वह देख पा रहा है जो मरना चाहता है। और यह कभी भी सही नहीं रहा है कि बहुसंख्या में दिया गया मत सही ही हो।”

तो अगर आप ज़िन्दगी जीने में विश्वास रखते हैं सिर्फ़ इसीलिए कि एक दिन आप मर जाएंगे, तो आपका विश्वास सिर्फ़ जीवन को मानता है। आपका कोई प्रिय यदि मरना चाहे, तो आप उसे मरने नहीं देंगे क्योंकि आपको मृत्यु में विश्वास नहीं है। हालाँकि यह आपका भ्रम ही है क्योंकि मरना एक दिन उसे भी है और आपको भी। सही मायने में हम और आप व्यर्थ हैं। जीवन और मृत्यु हैं, साथ में हैं, उतने ही सुन्दर हैं, ‘कोलैटरल ब्यूटी’ भी है, हम मानें तो भी है, न मानें तो भी है और हमेशा रहेगी, जैसे सृष्टि के अस्तित्व में आने की शुरुआत से रही है।
जीवन का सौन्दर्य ज़िन्दगी को जीने में है और मृत्यु का सौन्दर्य मर जाने में। आप ज़िन्दगी जीते हुए कभी भी मृत्यु को नहीं समझ सकते और न ही इस ‘कोलैटरल ब्यूटी’ को। इसके लिए आपको बनना पड़ेगा वह यात्री जो जाता है मृत्यु के सागर के किनारे, देखता है सामने फैला नीला समुद्र और उसके ऊपर का अनंत आकाश। दूर कहीं क्षितिज पर डूबता सूरज और पैरों को गीला कर जाती लहरें। हिलकोरों की आवाज और असीम शान्ति। वह शान्ति जो सिर्फ़ मिलती है तब जब आप जमीन के भीतर दबे होते हैं।

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