“ चिठ्ठी न कोई संदेश कहाँ तुम चले गये ”

Anita Dubey
IndiaMag
Published in
5 min readJan 20, 2017

एक समय था, कि जब हाथ से लिखी चिठ्ठियाँ सफ़ेद काग़ज़ों पर भावनाओं के सजीव चित्र उकेर देती थी, और पत्रों में शब्दों की जगह प्राण मिल जाते थे । लगता था, जैसे लिखने वाले ने भावनाओं को पत्र में सींच दिया हो । आज जबकि हम विकास की चरम-सीमा पर है, इमेल, मैसेज, मोबाईल, फ़ोन पर ही बातों या खबरों का आदान प्रदान करते है । इसमें समय कम तो लगता हैं, मगर कहीं न कहीं विकास ने चिठ्ठियों से जुड़े रिश्तों को खो दिया हैं ।

चिठ्ठियाँ बड़ी ख़ामोशी से बड़ी बात कहने का दम रखती थी, कभी भाई की कलाई पर प्यार का बंधन मज़बूत हो जाता था, तो कभी ब्याह का बंधन बंध जाता था । कभी पिता अपने गाँव के हाल -चाल दूर गये बेटे को साक्षात देते थे, कि गाय का बछड़ा हुआ है, और मधु के कक्का शान्त हो गये और चच्चा ने बाड़ा और ज़मीन खरीद ली है ,और छोटी की शादी पक्की हो गई है । ये ख़बरें दूर देश बैठे बेटे की आँखों में ख़ुशी और ग़म दे जाता था, बेटा कभी मुस्काता तो कभी आँखों से पानी पोछता ।

पहले चिठ्ठी दूर से आती थी, इन्तज़ार के बाद खबर हर मन को ख़ुशियों से भर देती थी, घर का हर सदस्य चिठ्ठी पढ़ कर दोहराता था । अगली चिठ्ठी मिलने तक ख़ुशियाँ संभाल कर रखी जाती थी, या यूँ कहें कि अगली चिठ्ठी तक पहली चिठ्ठी को बार -बार उदासी में पढ़कर ख़ुशियाँ लाई जाती थी, और चिठ्ठी मरहम का काम करती थी ।

चिठ्ठियाँ प्रेम के संदेश भी उसी मिठास से दे जाती थी, मानों साजन -सजनी के द्वार हो । चिठ्ठियों की चाह पराई हुई लड़की के मायके को हर साइकिल कि घन्टी पर रहती थी , कि पोस्टमेन(डाकिया) आया तो बिटिया की खबर मिलेगी । हर रोज़ माँ आँचल सँवारकर खिड़कियों से झाँकती थी, ताँकती बैठती थी, कि बिटिया की चिठ्ठी आयेगी। जहाँ भाई को इन्तज़ार रहता था दूर देश गये भाई की खबर का तो कभी गाँव से दूर गये बेटे को गाँव में रह गये माँ, बाबा और बूढ़ी दादी की खाँसी की ख़बर का।

चिठ्ठियों पर लाल, नीली काली स्याही का उपयोग कर सजाया जाता था, अब कहाँ इन स्याही से भरी कलमों का ख़ज़ाना है , जो चिठ्ठी की जान ताक़त और सुन्दरता हुआ करती थी।

चिठ्ठियों के लिए खाकी बस्ते होते थे जिनसे डाकिया की पहचान होती थी , साथ ही साइकिल कि घन्टी का समय सब कुछ याद रहता था, कि दोपहर के किस प्रहर में डाकिया आयेगा । इतना ही नहीं डाकिया हर घर से रिश्ते में बंध जाता था, कोई चाचा, मामा बोलता तो कोई भइया ,बेटा बोलता और मानवता के रिश्ते का यह एक अलग रूप होता। जो डाकिया ख़ुशियाँ और ग़म की खबरों को थैले में लिए घूमता था वो तार आने या दुख की खबर देने पर लोगों को सांत्वना देता और मनी आर्डर एवं ख़ुशी की खबर देने पर लोगो से दुआएँ भी ले जाता था और इस प्रकार पत्रों, डाकिया, और लोगों के बीच में संबंध गहरा हो जाता।

चिठ्ठियों को प्रेम का स्वरूप भी माना जाता रहा था। घर से बाहर निकलते ही पहला प्रश्न होता कि पहुँच कर चिठ्ठी लिखना , कब आओगे चिठ्ठी लिखना, बीमारी की खबर देना या शादी तय हो जाए तो खबर करना मानों हर मर्ज़ की दवा चिठ्ठी थी। इतना ही नहीं भावनाओं की अभिव्यक्ति चिठ्ठियों के द्वारा ही की जाती थी। कई गीत लिखे गये कभी सीमाओं पर लड़ रहे सैनिकों के लिए ‘ संदेशे आते है चिठ्ठी आई है वतन से’ कभी बिछड़ों की याद में ‘चिठ्ठी न कोई संदेश हाँ तुम चले गये’। कभी ‘डाकिया डाक लाया डाक लाया’ तो कभी प्रेमी को भेजे संदेश ‘कबूतर जा -जा -जा कबूतर जा -जा -जा पहले प्यार की पहली चिठ्ठी साजन को दे आ’ तो कभी दूर बैठे साजन को ‘हमने सजन को ख़त लिखा ख़त में लिखा’ तो कभी ‘ये मेरा प्रेमपत्र पढ़ कर कि तुम नाराज़ न होना’ इन गीतों से भी चिठ्ठी संबंधों को मजबूत जोड़ प्रदान करती थी , जिसका मानव जीवन के संसार में दूसरा नाम संवेदना है।

एक दौर आया कि ट्रिन — ट्रिन टेलीफ़ोन के साथ सब कुछ खत्म हुआ कलमें सूख गई। घर के दराज़ों में पुराने सामान के समान ढेर लग गया और स्याही तो मानों बाज़ारों से ग़ायब होकर इतिहास होने वाली है। जहाँ कलम या दवातें अपने अस्तित्व खत्म होने की कगार पर है, तो उनके नाम लेने से लोगों को लगता है, ये किस सदी की बात है अब नाम भी सदियों पुराने हो चले है। अब ट्रिन — ट्रिन टेलिफ़ोन भी अपनी चमक खो चुके है, मोबाईल जो आ गये है। मोबाईल में अलग अलग संगीत (ट्यून) है, लोग एक बार फ़ोन कर बंद कर देते है जिसे मिसकॉल कहते है। संकेत न मिलने से कई बार बात अधूरी ही रह जाती है ,बात पूरी यदि हो भी जाती है तो आवाज़ सुन कर भी मन भरता नहीं है, माँ बार- बार बात सुनना चाहती है , लेकिन बेटे के पास समय अभाव है, और आधी बात होकर रहने से लगता है, कि मानों ज़ख़्म हरे रखे हो।

अब फ़ेसबुक व्हाट्सअप मोबाइल फ़ोन कई तकनीकें है कि दुनिया के किसी कोने में बैठ आँखों देखा हाल- चाल सुन एवं देख सकते है। कई खेल, संदेश संकेत भी है जिन्हें लोग जन्मदिन, सालगिरह, शादी, सफलता त्यौहारों पर खूब उपयोग करते है ,जिन्हें एक बार देखकर अक्सर सभी ग़ायब कर देते है, उनकी महक ख़ुशबू का आभास क्षणिक होता है। एक शब्द को लिखने के लिए बटन दबाते कई शब्दों की सूची संग्रह निकलता है , जिसमें से कोई एक का चुनाव कर हम मैसेज करते है लिखना टाइप करना सरल तो हुआ मगर, किसी मशीन के उत्पादक जैसा वहाँ संवेदना का अभाव होता है इसी भावना को हम खो रहे है, और मशीनी होते जा रहे है। जबकि चिठ्ठियों को साल दर साल सहेजकर रखा जाता था सूखे फूलों के साथ ही सही जब तब उसी एहसास को महसूस किया जाता था जिस एहसास से पहली बार पढ़ा या लिखा था। ऐसा नहीं है कि आधुनिकिकरण ने सब छीना है, बल्कि लिखने वालों ने भी लिखना छोड़ कर शार्टकट अपनाया है, और अपनी अनूठी भावना का हनन किया है, जो चिठ्ठी रूपी चिड़िया पर सवार कर आँगन — आँगन घूमती थी ।

हम विकास की उपलब्धि का ताज तो सजाये है, मगर कहीं न कही मानवता की भावनाओं को भूलते जा रहें हैं जो एक प्रश्नचिन्ह छोड़ती है, कि क्या यह जीवन है या पतन ? चिठ्ठियों से बनते रिश्तों के तानें बानें को हम भूल गये है, और प्रगति की दौड़ में संवेदनहीन होते देख मन कभी यह भी कहेगा ‘ चिठ्ठी न कोई संदेश कहाँ तुम चले गये…….’।⁠⁠⁠⁠

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