जल्लीकट्टू

Shubham Dixit
IndiaMag
Published in
6 min readFeb 13, 2017

जल्लीकट्टू तमिलनाडु का एक परंपरागत खेल है, जिसमें बैल को काबू में किया जाता है। यह खेल काफी सालों से तमिलनाडु में लोगों द्वारा खेला जाता है। तमिलनाडु में मकर संक्रांति का पर्व पोंगल के नाम से मनाया जाता है। इस खास मौके पर जल्लीकट्टू के अलावा बैल दौड़ का भी काफी जगहों पर आयोजन किया जाता है। जल्लीकट्टू’ एक तमिल शब्द है, जिसकी उत्पत्ति ‘कालीकट्टू’ से हुई है। ‘काली’ का अर्थ कॉइन (Coin) अर्थात सिक्का से है और ‘कट्टू’ का तात्पर्य उपहार स्वरूप (Package) प्रदान किए जाने से है। प्राचीन तमिल परंपरा में लोग ‘सांड़’ की भगवान शिव के वाहन के रूप में पूजा करते हुए और उन्हें गले लगाते हुए उनके सींगों में ‘सोने-चांदी’ के सिक्के पहनाते थे, जिसे तब ‘कालीकट्टू’ और बाद में ‘जल्लीकट्टू’ कहा जाने लगा। जल्लीकट्टू की प्राचीन प्रथा अब खेल एवं मनोरंजन के रूप में परिवर्तित हो चुकी है। कुछ लोगों का मानना है कि प्राचीन काल में महिलाएं अपने वर को चुनने के लिए जलीकट्टू खेल का सहारा लेती थी। जलीकट्टू खेल का आयोजन स्वंयवर की तरह होता था जो कोई भी योद्धा बैल पर काबू पाने में कामयाब होता था महिलाएं उसे अपने वर के रूप में चुनती थी। इस प्रकार से सांड़पर काबू पाना शौर्य का प्रतीक बनाता चला गया और ये खेल साल दर साल जानलेवा होता चला गया। तमिलनाडु में प्रारंभ में यह प्रथा फसलों के पकने के अवसर पर प्रायः जनवरी-फरवरी के महीने में अथवा किसी त्योहार के अवसर पर मंदिरों के सामने संपन्न होती थी और आज भी हो रही है।

खेल की शुरूआत

ऐसा माना जाता रहा है कि है कि सिंधु सभ्यता के वक्त जो अय्यर और यादव लोग तमिल में रहते थे उनके लिए सांड पालना आम बात थी। बाद में यह साहस और बल दिखाने वाली बात बन गई। बाद में बैल को काबू करने वाले को इनाम और सम्मान दिया जाने लगा। किसी सांड को काबू करने की प्रथा लगभग 2,500 साल पुरानी कही जा सकती है।

बुल फाइट से अलग क्यूँ?

कई बार जलीकट्टू के इस खेल की तुलना स्पेन की बुलफाइटिंग से भी की जाती है लेकिन ये खेल स्पेन के खेल से काफी अलग है इसमें बैलों को मारा नहीं जाता और ना ही बैल को काबू करने वाले युवक किसी तरह के हथियार का इस्तेमाल करते हैं।

जानवरों के प्रति हिंसा

संपूर्ण प्रकरण पर अध्ययन करने के बाद ‘एनीमल वेलफेयर बोर्ड ऑफ इंडिया’ ने पाया कि ‘जल्लीकट्टू’ प्रथा या ‘बैलगाड़ी-दौड़’ या इसी प्रकार के अन्य आयोजनों में सांड़ों के साथ क्रूरता तथा बर्बरता का व्यवहार किया जाता है और उन्हें अनेक प्रकार से यातनाएं भी दी जाती हैं।

जल्लीकट्टू और राष्ट्रीय कानून

पशु अत्याचार निवारण अधिनियम, 1960 की धारा 3 और 11 तथा अन्य संबंधित प्रावधानों को संविधान के अनुच्छेद 15A(g) के साथ संज्ञान में लेते हुए समझा जाना चाहिए जिसके अनुसार जीवित प्राणियों के प्रति सहानुभूति रखना प्रत्येक नागरिक का मूल कर्त्तव्य है। न्यायालय ने पशुओं/वन्य जीवों के जीवन को संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मानव को प्राप्त ‘जीवन एवं दैहिक’ स्वतंत्रता के अधिकार से जोड़ते हुए निर्णीत किया है कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत शब्द ‘जीवन’(Life) को बहुत व्यापक अर्थ प्रदान किया गया है, जिसमें आधारभूत पर्यावरण में वन्य जीव को सम्मिलित करते हुए, जीवन के वे सभी प्रारूप सम्मिलित हैं, जो मानव जीवन के लिए आवश्यक हैं और उनमें हस्तक्षेप किया जाना अनुच्छेद 21 के अंतर्गत आता है और पशु भी सम्मान व गरिमा के अधिकारी हैं। पशुओं के अधिकारों की व्याख्या करने में न्यायालय ने 500–600 ईसा पूर्व रचित ईश उपनिषद के इस सूत्र वाक्य को भी आधार बनाया है कि ‘ब्रह्मांड अपने प्राणियों के साथ धरती से संबंधित है और कोई भी प्राणी एक-दूसरे से बड़ा नहीं है। इसलिए किसी भी प्रजाति को अन्य प्रजाति के अधिकारों और विशेषाधिकारों का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए’।

ओआईई (OIE : World Health Organization of Animal Health) अंतर्राष्ट्रीय रूप से स्वीकृत पशुओं से संबंधित पांच स्वतंत्रताओं को मान्यता प्रदान करता है।

  1. भूख, प्यास एवं कुपोषण से स्वतंत्रता
  2. भय एवं कष्ट से स्वतंत्रता
  3. शारीरिक एवं ऊष्मीय पीड़ा से स्वतंत्रता
  4. दर्द, चोट एवं रोग से स्वतंत्रता
  5. सामान्य आचरण अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता।
    **उल्लेखनीय है कि भारत भी ओआईई का एक सदस्य है।

जल्लीकट्टू और अंतर्राष्ट्रीय कानून

‘जल्लीकट्टू’ जैसी प्रथा मुख्यतः ‘वन्य-जीवों’ के अधिकारों को प्रभावित करती है, भले ही

उसका ‘प्रारूप’ अलग हो परंतु इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘पशु अत्याचार’ की श्रेणी में माना जाता है। पशु अत्याचार के निवारण के लिए सर्वमान्य किसी अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा का अभाव है, किंतु वन्य- प्राणियों के वर्ग विशेष पर कुछ अंतर्राष्ट्रीय कन्वेंशन संपन्न हुए, जिनमें पक्षियों के संरक्षण के लिए घोषणा (1875), ह्वेल (मछली) के संरक्षण के कन्वेंशन (1931 एवं संशोधित कन्वेंशन 1946), वन्य-प्राणी से संबंधित कन्वेंशन (1990) तथा जैवविविधता पर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण संरक्षण कन्वेंशन (1992) मुख्य हैं। जर्मनी विश्व का संभवतः पहला देश है जिसने वर्ष 2002 में अपने संविधान में मानव के बाद ‘और पशुओं’(and animals) शब्द जोड़कर मानव के साथ-साथ पशुओं को गरिमा (Animal Dignity) को प्रदान करना राज्य का कर्त्तव्य नियत किया है। ब्रिटेन (2006) और ऑस्ट्रिया (2010) ने भी इस विषय पर कानून बनाए हैं।

जानलेवा होता खेल

आंकड़ों के अनुसार 2010 से 2014 के बीच जल्लीकट्टू खेलते हुए 17 लोगों की जान गई थी और 1,100 से ज्यादा लोग जख्मी हुए थे। वहीं पिछले 20 सालों में जल्लीकट्टू की वजह से मरने वालों की संख्या 200 से भी ज्यादा थी। इस वजह से साल 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रिवेंशन ऑफ क्रूअलटी टू एनिमल एक्ट के तहत इस खेल को बैन कर दिया था। जिसकी मांग एनिमल वेलफेयर बोर्ड ऑफ इंडिया और पीपल फॉर द एथिक्ल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल (PETA), कॉमपैशन

अनलिमिटिड प्लस एक्शन (CUPA) ने की थी। उनके साथ पशुओं के अधिकार के लिए बने काफी सारे संगठन भी इसमें शामिल थे।

प्रतिबंध

उच्चतम न्यायालय ने 7 मई, 2014 को दिए अपने एक निर्णय में तमिलनाडु राज्य द्वारा प्रदेश जल्लीकट्टू(Jallikattu) प्रथा को कायम रखने से संबंधित तमिलनाडु जल्लीकट्टू विनियमन अधिनियम, 2009′ (Tamilnadu Regulation of Jallikattu Act, 2009) के प्रावधानों को असंवैधानिक घोषित करते हुए पूरे देश में जल्लीकट्टू अर्थात सांड़ों की लड़ाई (तमिलनाडु) या उससे संबंधित किसी भी खेल, प्रशिक्षण, मनोरंजन या सांड़-दौड़ इत्यादि (महाराष्ट्र) को प्रतिबंधित कर दिया है तथा पशु अत्याचार निवारण अधिनियम, 1960′(Prevention of Cruelty to Animals Act, 1960) एवं भारतीय संविधान की पूर्ण व्याख्या पशुओं अर्थात वन्य-जीवों के पक्ष में करते हुए स्पष्ट घोषित किया है कि पशु भी अपने विधिक एवं संवैधानिक अधिकारों को प्राप्त करने के हकदार हैं।

इस मामले में तमिलनाडु ‘जल्लीकट्टू’ विनियमन अधिनियम पर मद्रास उच्च न्यायालय के निर्णय, जिसमें अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार जल्लीकट्टू को राज्य में जारी रखने का निर्णय दिया गया था, के विरुद्ध अनेक याचिकाएं और अपीलें प्रस्तुत की गई थीं।

इसी मामले में महाराष्ट्र राज्य के अंदर बैलगाड़ी-दौड़ (Bullock-cart race), खेल, मनोरंजन या प्रशिक्षण को प्रतिबंधित करने वाले केंद्र सरकार और राज्य सरकार के संबंधित शासनादेश को उचित बताने वाले बंबई उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध भी दायर अनेक अपीलों और याचिकाओं को एक साथ निपटाते हुए न्यायालय ने संयुक्त रूप से यह निर्णय दिया है।

संपूर्ण प्रकरण पर अध्ययन करने के बाद ‘एनीमल वेलफेयर बोर्ड ऑफ इंडिया’ ने पाया कि ‘जल्लीकट्टू’ प्रथा या ‘बैलगाड़ी-दौड़’ या इसी प्रकार के अन्य आयोजनों में सांड़ों के साथ क्रूरता तथा बर्बरता का व्यवहार किया जाता है और उन्हें अनेक प्रकार से यातनाएं भी दी जाती हैं।

इन घटनाओं में कभी-कभी अनेक सांड़ मर भी जाते हैं तथा दर्शक भी घायल होते हैं। इसलिए संयुक्त रूप में ये कृत्य/घटनाएं पशु अत्याचार निवारण अधिनियम, 1960के अंतर्गत पशुओं को प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन करती हैं।

न्यायालय ने बोर्ड के तर्कों से सहमति व्यक्त करते हुए तथा इस संबंध में सांड़ों के प्रयोग को प्रतिबंधित कर केंद्र सरकार के शासनादेश दिनांक 11.07.2011 को उचित मानते हुए निर्णय दिया है कि ‘जल्लीकट्टू’, बैलगाड़ी-दौड़ और इस प्रकार की अन्य घटनाएं या कार्य पशु अत्याचार निवारण अधिनियम, 1960 की धारा 3 तथा धारा 11 (1) (क) का उल्लंघन करते हैं इसलिए केंद्र सरकार की अधिसूचना को कायम रखते हुए निर्देश दिया जाता है कि सांड़ों का प्रयोग न तो जल्लीकट्टू की घटनाओं में और न ही ‘बैलगाड़ी-दौड़’ के रूप में किया जाएगा।

यह प्रतिबंध तमिलनाडु एवं महाराष्ट्र सहित पूरे देश में लागू होगा।

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