दिल मैना खंडहर ख्याल
चंद रोज पहले की बात है
यादों ने मन के दरवाजे पर दस्तख़त दी
न दीवारें अपनी थीं, न मकान
फिर भी न जाने क्यों एक अहसास था अपने होने का!
बाबा, माँ और मैं
हम सब तो एक खानाबदोश से डोलते रहते थे
कमर पर कमरबंद बंधा
हाथों में पीतल की डोलची
बैलगाड़ी में संदूकों के साथ
हर बार एक नए रिहाइश की तलाश में!
पृथ्वी पर दरवेश से गोल गोल नाचते हुए
हमे पहली बार एहसास हुआ था अपने घर होने का
मेरी सांसों की सीलन से भरी दीवारें
और मरुस्थल जैसा आँगन!
आँगन में पीपल का एक दरख़्त
उसके नीचे बाबा की चारपाई
और चारपाई से सटा हुक्का
वो गुड़ गुड़ की आवाज़ के साथ हुक्के की हुंकार
मानो बाबा की ज़िन्दगी को उसने छल्लों में क़ैद कर रखा हो!
पीपल पर माँ कहती थी एक राक्षक है, ब्रह्मराक्षस
पर मैंने कई रातें जुगनुओं के साथ गुजारीं
राक्षस का तो पता नहीं चला
पर एक मैना से मोहब्बत कर बैठा!
वो रोज सांझ ढलते सूरज के साथ
घर की चौखट पर आती
और भोर की पहली किरण के साथ न जाने कहाँ चली जाती
ये पंछी भी अजीब होते हैं
जहाँ भी होते हैं रैनबसेरे को अपने घर आ जाते हैं!
पर इस बार सावन दहाड़ के बरसे थे
बाबा की धमनियों से रक्त से ज्यादा पानी बरस रहा था
वो पीड़ा से बिलबिलाते थे
ठण्ड के आते आते बाबा ठन्डे पढ़ गए!
दरिद्रता और दुःख अक्सर एक साथ आते हैं
उस मौसम ने हमसे बाबा और बसेरा दोनों छीन लिए
घर की घड़ी सा पेचीदा सा मसला था कोई
हम सब ज़िंदा तो थे पर मौजूद नहीं!
मैना के रूदन के बीच
माँ की चीख सुनाई देती है
ख्यालों की दुनिया किराये का मकां
तुम किसे धुंध रहे हो इस खंडर के दरमियान!