पोट्टि श्रीरामुलु

Shubham Dixit
IndiaMag
Published in
6 min readApr 1, 2017

जैसा कि हम सभी जानते ही हैं कि भारत का जन्म अभावों और दरिद्रता के बीच हुआ था। भारत का अपना वर्तमान अस्तित्व जैसा हमें नक्शे पर दिखाई देता है ऐसा भारत आजादी के वक्त तक तो नहीं ही था। आजादी के वक्त भारत कई छोटी-छोटी रियासतों में बंटा हुआ था। पहले रियासतों से राष्ट्र निर्माण हुआ तत्पश्चात राष्ट्र का राज्यों में विभाजन। रियासतों को राष्ट्र में मिलाना जितनी बड़ी समस्या थी उसे राज्यों में विभाजन करना उससे कहीं बड़ी समस्या साबित हुई। तत्सामयिक सरकार, राज्यों का विभाजन भौगोलिक आधार पर करना चाहती थी और इसी बीच कुछ घटनाओं ने सरकार के निर्णय को पूरी तरह प्रभावित किया और निष्कर्ष हमारे सामने हैं, भारत में राज्यों का गठन भाषाई आधार पर हुआ। हम आपकी मुलाक़ात इस गठन की धुरी पर खड़े नायक पोट्टि श्रीरामुलु से कराने जा रहे हैं।

श्रीरामुलु को आंध्रा का पिता भी कहा जाता है। आशा है कि ये नाम आप सभी के लिए इतना नया भी नहीं होगा विशेष रूप से जिनकी जन्मभूमि आंध्र प्रदेश उनके लिए। श्रीरामुलु एक क्रांतिकरी थे और साथ ही महात्मा गांधी के विचारों से बेहद प्रभावित भी, उन्होंने जीवन-पर्यंत सत्य, अहिंसा, देशभक्ति और हरिजन उत्थान के लिए कार्य किया। गांधी जी भी सदैव श्रीरामुलु के अहिंसक आंदोलन को सभी के सामने आदर्श की तरह प्रस्तुत करते रहे। दलितों के मंदिर प्रवेश के मुद्दे पर उन्होंने कई बार उपवास किया और मद्रास सरकार के सामने इस मुद्दे को रखा।

साबरमती आश्रम में उनकी निष्ठा और समर्पण की भावना को देखकर गांधी जी ने लिखा था “यदि मेरे पास श्रीरामुलु की तरह 11 समर्थक और होते तो एक साल में भारत को ब्रिटिश शासन से आज़ादी मिल जाती”।

श्रीरामुलु का जन्म महालकशम्मा के पदमतपल्ली में हुआ था जो उस वक्त नेल्लूर जिले का हिस्सा था। बाद में इनका परिवार मद्रास (चेन्नै) में आ कर बस गया और यहीं से श्रीरामुलु ने हाईस्कूल तक की पढ़ाई की और आगे की पढ़ाई के लिए वे मुंबई चले गए। मुंबई में इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद श्रीरामुलु का चयन रेलवे में हो गया तथा वे रेलवे में रूपये 250 प्रति माह की पगार पर काम करने लगे(जो उस समय यकीनन एक बड़ी रकम थी)। श्री रामुलु ने रेलवे में चार साल तक अपनी सेवाएँ दीं पर आत्म संतुष्टि का सर्वथा अभाव ही रहा। 1928 में हुई पत्नी और नवजात शिशु की मृत्यु ने श्रीरामुलु अंदर तक हिला कर रख दिया और उनकी मृत्यु कुछ अंतराल के बाद हुई उनकी माता की मृत्यु ने रामुलु का भौतिक सुख से मोह भंग कर दिया जिसके चलते उन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। और गांधी जी के पास साबरमती आश्रम में रहने लगे और वहाँ उन्होंने स्वतन्त्रता संग्राम में भाग लिया तथा लोगों की सेवा करना प्रारम्भ कर दिया।

गांधी जी के साथ कार्य करते हुए श्रीरामुलु को पहली बार सन 1930 में नमक सत्याग्रह में जेल जाना पड़ा। वे काई वर्षों तक गांधी जी के साथ कार्य करते रहे तथा उनके साथ जेल भी जाना हुआ। उनका सेवा भाव देखते हुए उन्हें आंध्रा के गांधी मेमोरियल फंड का निदेशक के पद पर नियुक्त किया गया, किन्तु वे तेलगु भाषियों की खराब प्रतिक्रिया से बहुत असंतुष्ट थे, फिर भी उन्होंने अपने प्रयासों में कोई कमी नहीं आने दी। उन्हें भूदान आंदोलन में भी गांधी ट्रस्ट एवं कस्तूरबा ट्रस्ट के उदासीन रवैये के चलते 1941–1942 में अलग से भारत छोड़ो आंदोलन में सहभागिता की तथा तीन बार जेल भी गए। इन सभी के चलते श्री रामुलु को या एहसास हुआ कि खराब प्रतिक्रिया का मूल कहीं न कहीं अलग राज्य का अभाव था श्रीरामुलु को जाति या पंथ की परवाह किए बिना सभी के परिवारों के द्वारा दिया गया भोजन ग्रहण करने के लिए भी जाना जाता है। मंदिरों में दलितों के प्रवेश के दलितों अधिकारों की मांग के लिए उन्हें 1946–1948 के बीच तीन बार भूख हड़ताल की जिसके बाद से समर्थकों के द्वारा उन्हें हरिजन कहा जाने लगा। रामुलु ने मूलापेटा, नेल्लोर के वेणुगोपालस्वामी मंदिर में प्रवेश के अधिकार के लिए आमरण अनशन किया तथा अपने लक्ष्य को प्राप्त भी किया। साथ ही मद्रास सरकार के द्वारा दलित उत्तथान के लिए भी अनशन किया, परिणाम स्वरूप सरकार ने जिला कलक्ट्रेटों को निर्देश दिए कि वे सप्ताह में एक दिन दलित उत्तथान के लिए आवश्यक कदम उठाएँ।

सबसे पहले अलग आंध्रा की मांग सन 1910 में की गई थी जिसे लक्ष्य प्राप्ति की ओर सटीक गति 1912 के दौरान कृष्णा जिला, निदादावोलु के अनशन से प्राप्त हुई। साथ ही गुंटूर, विजयवाड़ा, विशाखापट्टनम जिलों के कुछ हिस्सों में भी इसी प्रकार की मांग की गई। ऐनी बेसेंट की अध्यक्षता में हुई कांग्रेस की कार्यकारी बैठक में भाषाई आधार पर राज्यों के विभाजन का एक संकल्प पारित हुआ।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद(15 अगस्त 1947) केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त धर आयोग ने भी भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की बात को नकार दिया तथा आयोग ने सुझाव दिया कि मद्रास के तेलगू भाषी क्षेत्रों को अलग राज्य माना जाए। धर आयोग की रिपोर्ट का आम जनता के द्वारा कड़ा विरोध किया गया। आम जन की भावनाओं का ख्याल रखते हुए जयपुर में 1948 में हुई अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में जवाहर लाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल एवं पट्टाभि सीतारमैया को मांग के बारे में विश्लेषण करने के लिए नियुक्त किया गया। समिति ने सुझाव दिया कि मद्रास को छोड़कर सभी तेलगू भाषी क्षेत्रों को मिला कर एक अलग आंध्रा का गठन किया जा सकता है। जिसके लिए तेलगू भाषी तैयार नहीं थे।

15 अगस्त 1951 को स्वामी सीताराम ने अलग आंध्रा के गठन की मांग को ले कर आमरण अनशन की घोषणा की किन्तु केंद्र सरकार ने इस आंदोलन को गंभीरता से नहीं लिया। अनशन लगभग 35 दिनों तक चला। खतरे को महसूस करते हुए आचार्य विनोबा भावे ने नेहरू को वस्तुस्थिति से अवगत करवाया। दो वरिष्ठ नेताओं ने सीताराम से मुलाक़ात की और राज्य के गठन में सहयोग देने का आश्वासन दिया अनशन तोड़ने के लिए मनवा लिया, पर अपना वादा पूरा नहीं किया।

इस घटनाक्रम के बाद श्री रामुलु ने आमरण अनशन की घोषणा की तथा अपना उपवास 19 अक्तूबर 1952 को मद्रास में बुलुसु संबामूर्ति में अपने घर से शुरू कर दिया। सभी लोगों का मानना था कि ये भी पिछले उपवासों की तरह ही होगा जिसे बाद में तोड़ दिया जाएगा। लगभग बीस दिनों के बाद रामुलु की हालत बिगड़ने लगी। जैस-जैसे दिन बीतते गए रामुलु के समर्थन में जुड़ा जन समूह, जन सैलाब में बदलता चला गया। अपने अनशन के 56वें दिन रामुलु कोमा में चले गए तथा उसके दो दिन बाद तक वे कोमा में रहे। अंत में उन्हें सांस लेने में समस्या होने लगी तथा 58वें दिन 15 दिसंबर 1952 को उन्होंने ने आखरी सांस ली।

उनके पार्थिव शरीर को उनके समर्थकों के द्वारा एक जुलूस में ले जाया गया। जब जुलूस माउंट रोड पर पहुंचा हजारों लोग रमुलु के बैनर हाथ में लिए हुए उसमें शामिल हो गए। और यहीं से हिंसा की घटनाएँ शुरू हो गईं। सरकारी दफ्तरों गाड़ियों को आग के हावाले करे दिया गया। रमुलु के मृत्यु की खबर बड़ी ही तेजी से विजयनगर, विशाखापट्टनम, विजयवाड़ा, इलुरु, गुंटूर, तेनाली, ओंगोले तथा नेल्लूर तक पहुँच गई और सभी जिले हिंसा की चपेट में आ गए। पुलिस के द्वारा की गई फायरिंग में विजयवाड़ा समेत कुछ एक जिलों में सात लोगों की मृत्यु हो गई जिसने हिंसा को और अधिक भड़का दिया। 19 दिसंबर 1953 को नेहरू आंध्रा को राज्य का दर्जा देने पर राज़ी हो गए। और अंत में 1 अक्तूबर 1953 को आंध्रा का गठन किया गया जिसकी राजधानी कुर्नूल को बनाया गया। 1 नवंबर 1956 को आंध्र प्रदेश का गठन किया गया जिसकी राजधानी हैदराबाद को बनाया गया।

आंध्रा के गठन के साथ ही लंबे समय से चली आ रही केरल, पंजाब राज्य की मांग में भी तेजी आ गई और अंततः सरकार को राज्यों का गठन भाषाई आधार पर करना पड़ा।

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