Pratima Tripathi
5 min readNov 23, 2016

‘प्यार,जूनून और वासना’.. एक मासूम की नज़र से।

वो एक अच्छे नैन-नक्श वाली ख़ूबसूरत लड़की, सबसे हिली-मिली हुई, सबकी नज़रों में बसी हुई, दुनियाँ की जालसाज़ियों से अनजान मासूम और भोली। उस समय कच्ची उम्र थी उसकी, खेलने-खाने की उम्र।
उन दिनों जब वो बात करना चाहता था उससे, उसने बात की। हर जगह बात की.. गली में.. चौराहे पे.. घर में.. नुक्कड़ पे.. हर जगह, जहाँ मिला वो, जैसे एक दोस्त दूसरे दोस्त से करता है.. साफ़ मन से, खुले दिल से, खिलखिला कर और अपनी शरारतों के साथ बात की उसने।

सिर्फ़ मुँह से नहीं बोलती थी वो, पूरे मन से बोलती थी- पूरे शरीर से बोलती थी.. भवों से, आँखों से, उँगलियों से, होंठों से, बालों से, गालों से। बोलते समय आँख जैसे चमकते हुए कंचे.. पुतलियाँ फैलती-सिकुड़ती, कंचे कभी इधर-कभी उधर, कभी दायें-कभी बाएं, कभी उपर-नीचे। उसी में बीच-बीच में उछलना-कूदना, ज़ोर से हँसना-किलकना।

अच्छा! उसे पता नहीं था कि वो बात क्यूँ करना चाहता था उससे.. बस! वो करता था.. इसलिए ये भी करती थी, जैसे सबसे करती थी.. ठीक वैसे ही। कोई ज़रूरत या मकसद जैसी चीज नहीं थी, कम से कम उस लड़की की तरफ़ से।
तब, जो ये चल रहा था.. क्या वो चलता रहा?
अरे! नहीं भई..

ज़माना भी कोई चीज है, जो आपको दिखता नहीं है मगर रहता आपके बीच ही है, आसपास एक चिंगारी सुलगती है जिसकी गंध नहीं आती आपको मगर जब आग पकड़ती है कोई बात तो, दूर तक और देर तक कसैला धुआँ चुभता रहता है।

तो हुआ ये कि एक दिन की ज़माने को आग लग गई। लोगों के सीने पर साँप लोटने लगे क्योंकि जो उस जैसे नहीं थे और न ही कभी बन सकते थे वो कम-अज़-कम जल तो सकते थे, फ़ब्तियाँ तो कस सकते थे, साजिशें तो कर सकते थे.. तो वो वही कर रहे थे। ये बात और कि इन सबसे अनजान थी वो, अभी बच्ची ही तो थी.. बचपन की गली के मोड़ पर अचकचाई खड़ी, जवानी की दहलीज़ की ओर बढ़ती हुई, एक मासूम बच्ची ही तो।
पर कौन समझता यहाँ कि वो बच्ची है, बेशक़ ज़िस्मानी बदलाव के मोड़ पर है, लेकिन दिल उसका वही पुराना है। खैर.. तो जमाने को आग लग गई। ताने मिलने लगे, घर में, बाहर, चारों ओर से। कसैला धुआँ चारों तरफ़ फ़ैल गया और उसे उड़ती-उड़ती ख़बर लगी कि ये जो रोज़ बातें करती है वो, यही तो ‘प्रेम’ है।
उसे लगा- अच्छा! यही प्रेम है.. और मुझे पता ही नहीं। उसने प्रेम की सारी किताबें उलट दी फिर प्रेम की करोड़ों परिभाषाओं में से उसे एक परिभाषा मिली जो उसकी तात्कालिक स्थिति में उसे संतुष्ट कर रही थी कि..

“प्यार कभी भी किसी भी उम्र में हो जाता है और आपको पता ही नहीं चलता कि आपको हो गया है, जब वो आसपास नहीं होता तब आप जान पाते हैं कि आप उसे प्यार करते हैं।”

फिर उसने प्रयोग किया ख़ुद पर ..
क्या उससे दूर रहने में उसे परेशानी होती है?
हाँ! होती है।
उसे हुई, इसलिए नहीं कि उससे प्यार करती थी बल्कि इसलिए हुई कि वो एक आदत था। जब उसके आसपास कोई नहीं था उसकी बात सुनने वाला तब वही था। वो हर एक बात उससे करती थी, मैथ्स के सम्स से लेकर गुड़िया की शादी की तैयारियों तक, चिलबिल साथ बीनने से लेकर कंचे खेलने और पतंग उड़ाने तक। और इन दिनों, जबकि वो ये प्रयोग कर रही थी तब ज़माने के तानों और बंदिशों के चलते उससे मिलना-जुलना एकदम बंद था.. इसलिए उसे
परेशानी हुई।
उधर ज़माना अपने काम पर था, सब काम छोड़कर बस उनके पीछे। वक़्त-बेवक़्त उनकी बातें करना, कभी भी-कहीं भी दोनों का नाम लेकर भद्दे-भद्दे शब्द बोलना जिनका मतलब तक उसे मालूम न था, चरित्रहीन और कुलटा बताना, किसी के भी साथ नाम जोड़कर मज़ाक उडाना, संस्कारों पर ताने मारना, रास्तों से गुजरने पर लड़के का नाम लेकर आवाज़ देना, फ़ब्तियाँ कसना, सीटियाँ मारना।

और फिर अंततः उसने मान लिया कि उसे प्यार हो गया है। लेकिन अब आगे क्या? कोई योजना नहीं थी उसके पास और उससे तो बात भी नहीं हो सकती थी कि मिलकर कोई योजना बनाई जाए।
किताबों की प्रेमी थी वो , उसने पढ़ा ‘प्यार जूनून होता है।’ अब ये ‘जूनून’ क्या है?

‘जूनून’ यानि किसी चीज़ के पीछे पड़ जाना, ज़िद्दिया जाना कि चाहिए तो चाहिए, हर हाल में चाहिए और जब तक न मिल जाए पीछे पड़े रहना। पड़ गई पीछे कि.. मिलना है, बात करनी है उससे, प्यार है तो है, अब चाहिए तो चाहिए।
लातों, घूँसों और डंडों की चोट पर भी पीछे नहीं हटी, डटी रही.. यही तो ‘जूनून’ है ‘passion.’

मासूम थी, ‘प्यार’ नहीं समझती थी तो ‘वासना’ क्या समझती पर ज़माना समझदार था। ज़माने ने केवल प्रेम ही नहीं कराया, अपनी नज़र से वासना भी दिखाई उसको.. जैसे..
तुम कब मिली उससे? अकेले थी या कोई और भी? कहाँ !!! कहाँ-कहाँ छुआ उसने तुझे? क्या बातें करती थी हर रोज़? कहाँ-कहाँ गई उसके साथ और कितनी बार गई? अपनी बड़ी-बड़ी मासूम आँखों से वो आँसू बहाती जाती और जवाब देती जाती.. बिना सवाल की गम्भीरता को समझे।
और लोग.. लोग उसका चीरहरण करते रहे.. करते रहे। अपनी वासना भरी निगाहों से उसे भिगो देते। वो सहम जाती.. उनकी लार टपकती आँखों को देखकर। सिर से लेकर पाँव तक उसे कुछ लिज़लिजा सा महसूस होता। रोती जाती, बदन खुरचती जाती और घंटों पानी उलटती तन पर पर, वो आँखें जैसे किसी लिसलिसे पदार्थ से चिपका दी गईं हो बदन पर, छूटती ही नहीं।
माँ-बाप आपस में बात करते, वो सुनती..
“कहा था न! लड़की मत पैदा कर!”
क्या मालूम था, नाक कटायेगी!!!
पता होता तो पैदा होते ही गला दबा देता!
हे भगवान! जल्दी से जल्दी इसके हाथ पीले हों तो जान छूटे!”

image: sarvesh tiwari (model: awantika)

अब वो बड़ी हो गई या यूँ कहिये कि कर दी गई। घुटनों तक फ्रॉक पहनकर घूमने वाली लडकी अब सलवार-कुर्ते में दिखाई देती, हर वक़्त ज़िद करती लड़की अब समझदार हो गई, हँसती-खिलखिलाती लड़की शाँत हो गई। गली में लड़कों के साथ खेलती-कूदती चहकती लड़की अब घर के काम-काज में मन लगाती, झरोखों से झाँकती.. और बाहर बच्चों को खेलता देख अपना मन सींचती।