बाल दिवस ! बाल दिवस ?

Ranjana Mishra
IndiaMag
Published in
8 min readNov 13, 2017

अख़बार के तीसरे पन्ने की खबर है — एक सोलह वर्ष के किशोर ने सात वर्ष के बच्चे की हत्या सिर्फ़ इसलिए कर दी कि आगामी पी टी एम टाली जा सके. किशोर का व्यवहार हत्या करने के बाद भी पूरी तरह सामान्य रहता है.

14 वर्ष की एक किशोरी अपनी डायरी में दर्ज़ करती है कि उसकी अधिकतर सहेलियाँ अब वर्जिन नहीं इसलिए वह भी वर्जिन नहीं रहना चाहती. कुछ समय बाद किशोरी की संदिग्ध परिस्थितियों में हत्या हो जाती है.

ये दोनो बच्चे उच्च मध्यम वर्गीय, सुविधा सम्पन परिवारों से संबंधित हैं/थे. उनके मनोजगत में क्या चल रहा था, इसकी सिर्फ़ कल्पना ही की जा सकती है, या मनोवैज्ञानिक बता पाएँगे, पर यह तो तय है, दो संभावनाओं से भरा जीवन अकारण ही नष्ट हो गया और इनसे जुड़े लोगों की ज़िंदगियाँ हमेशा के लिए बदल गईं.

14 बरस की एक और लड़की स्वात घाटी में तालिबानी कट्टरपंथियों की करतूतों का लेखा जोखा अपनी डा य री में दर्ज़ कर रही थी, जिसे बी बी सी के माध्यम से पूरी दुनिया ने जाना, वह लड़की थी मलाला युसुफ ज़ई, जो वर्तमान समय में तालिबानी आतंक के विरुद्ध सबसे मज़बूत आवाज़ों में से एक है.

कठिन परिस्थितियों में, जीवन की परवाह किए बगैर मलाला ने अपने जीवन का मक़सद ढूँढ लिया और ये दोनो बच्चे किसी और दिशा की ओर निकल गए जहाँ से एक का क्षत विक्षत शरीर ही बाहर आया, दूसरे का निर्णय होना अभी बाकी है. मलाला को अगर विशेष भी मान लें तो क्या कारण है कि अलग अलग बच्चों की प्रतिक्रिया समान परिस्थितियों में अलग होती है ? यह एक गंभीर विषय है और गहन अध्ययन की माँग करता है.

क्या हैं कारण? कहाँ हम असफल हो रहे हैं, परिवार की तरह, समुदाय की तरह, देश की तरह? कोई बच्चा अपराधी ऐसे ही नहीं बनता, परिवार, परिवेश और समाज उसे अपराधी बनाते है. मलाला की डायरी से यह बात साफ़ नज़र आती है कि उनका पारिवारिक वातावरण सौहार्दपूर्ण, और प्रेममय था. कई बार उनके पिता ने अपनी जान पर खेलकर भी उनकी डायरी को पूरी दुनिया तक जाने दिया. ऐसा कोई पिता अपनी संतान के प्रति सिर्फ़ गहरे प्रेम के कारण कर सकता है, अन्यथा नहीं. उनके पिता ने यह समझने का वक़्त निकाला कि मलाला अपनी डायरी में क्या दर्ज़ किया करती हैं? हममें से कितने लोग अपने बच्चों के लिए ऐसा कर पाते हैं? हममें से कितनों के बच्चे हम पर इतना भरोसा करते हैं कि विश्वास के साथ अपने भीतर की दुनिया से हमें परिचित कराएँ? झिझके नहीं और ये विश्वास रखें कि उन्हें समझा जाएगा?

बच्चों से जुड़े अपराधों पर गौर करें तो इसके दो पक्ष है — पहला, बच्चों द्वारा किए गए अपराध, दूसरा बच्चों के विरुद्ध किए गए अपराध. आँकड़ों की बात करें तो हमारे देश में 53% बच्चे यौन हिंसा का शिकार हैं, 65% बच्चे स्कूलों में शारीरिक यातना झेलते हैं (यह संख्या सरकारी स्कूलों में ज़्यादा है) और सबसे दुखद 88.6% बच्चे अनुशासन के नाम पर परिवारों में शारीरिक यातना झेलते हैं. चप्पल, झाड़ू, बेल्ट, छड़ी, किचन में काम आने वाली चीज़ें, हर कुछ हथियार बनता है बच्चों पर अत्याचार का. ये आँकड़े तेरह राज्यों में किए गए यूनिसेफ और प्रयास संस्था के सर्वे का नतीज़ा हैं. हिंसा के आँकड़ों में आन्ध्र प्रदेश, बिहार, आसाम और दिल्ली क्रमशः पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे स्थान पर आते हैं.

यौन हिंसा के संबंध में सबसे भयानक और चौंकाने वाली बात यह है कि अधिकतर बच्चों का यौन शोषण घर या आसपास के नज़दीकी व्यक्ति द्वारा ही किया जाता है जिसपर बच्चे विश्वास करते हैं. गौरतलब है, हममें से कई परिवार अब भी यौन शिक्षा को अनावश्यक मानते हैं और कुछ बरस पहले ये मुद्दा गंभीर चर्चा का विषय था. यौन अपराधों की आस पास घनी चुप्पी का षड्यंत्र होता है जो परिवारों के तथाकथित सम्मान से जुड़ा होता है. अगर इसका शिकार लड़कियाँ हों तो यह चुप्पी और अराजक हो जाती है. पुलिस और प्रशासन की भूमिका अधिकतर संदेहास्पद होती है.

अगर बच्चों द्वारा किए गए अपराधों की बात करें तो उसकी मुख्य वजह ग़रीबी, पारिवारिक वातावरण, समूह का दबाव, अशिक्षा और हथियरों की उपलब्धता है. इन कारणों के भुक्तभोगी बच्चे एक ऐसे रास्ते पर चल निकलते हैं जहाँ से वापसी अधिकतर संभव नहीं होती. बाल वैश्यावृत्ति, बाल अपराधी, सड़कों पर भीख माँगते बच्चे, बाल श्रमिक ये सब हमारे समाज के चेहरे पर लगी कालिख हैं और हममें से अधिकतर लोगों के लिए तबतक चिंता का विषय नहीं होते जबतक हम में से किसी करीबी के करीबी को ऐसी कोई चोट न लगे. इनके पीछे कई आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारण हो सकते हैं, पर क्या हम ऐसे समाज में परिवर्तित होते जा रहे हैं, जो सोलह बरस के बच्चे द्वारा की गई हत्या को अख़बार के तीसरे पन्ने की खबर बनाकर भूल जाता है? क्या हम विकास की उस अवस्था को पहुँच गए हैं जहाँ से विनाश का रास्ता शुरू होता है? आत्महंता समाज के लक्षण नहीं नज़र आते इन सब हादसों में?

मनोवैज्ञानिक कहते हैं बच्चों के विकास में पहले पाँच वर्ष अत्यंत महत्वपूर्ण होते है, बच्चे का अवचेततन सारे वातावरण को स्पंज की तरह सोख रहा होता है. जैसे जैसे मन अधिक चेतन होता है, बच्चा अपने अवचेतन को छिपाना सीखता है - खुद से भी और अपने वातावरण से भी, अपने माता पिता से. अगर उसे सहज विश्वास का वातावरण इसी उम्र से मिले तो कोई कारण नहीं कि आगे चलकर भी वह इसी विश्वास की उंगली थामे अपने अंतर संघर्षों का मुकाबला न कर पाए. मेरे आठ बरस के बेटे ने मुझसे एक बार पूछा था उसका जन्म कैसे हुआ? मैं पेशोपेश में पड़ गई थी और वह मेरे लिए निर्णय का क्षण था. डिस्कवरी चॅनेल पर उन्हीं दिनों गर्भा धान की प्रक्रिया से शिशु जन्म से संबंधित एक डॉक्युमेंटरी दिखाई जा रही थी, हम ने साथ वह डॉक्युमेंटरी देखी, और पूरी प्रक्रिया वह सम्मान और अचरज के मिले जुले भाव देखता रहा, और जल्द ही सहज हो गया. मेरे बच्चे ने फिर कोई सवाल मुझसे नहीं पूछे. परियाँ और सांता क्लाज़ एक समय तक ही कल्पना लोक की सैर करा सकते हैं, वास्तविकता की चमक उन नन्हे कदमों में ऐसा आत्मविश्वास भरती है जो पूरी ज़िंदगी की थाती हो सकती है. क्या हम धीरे से उनका हाथ थामकर सच्चाइयों के रुबरु नहीं खड़ा कर सकते इसके पहले कि ये सच्चाइयाँ विस्फोट की तरह उनके सामने आएँ? अगर हम अपने बच्चों से ईमानदारी की उम्मीद रखते हैं तो इसका सिर्फ़ एक ही उपाय है — जहाँ तक संभव हों हम भी उनके साथ ईमानदार रहें. मानवीय और ईमानदार. उनके सवालों के साथ रहें, न कि जवाबों की जल्दबाज़ी में. कई बार उनके सवालों का सामना करना ही अपने भीतर की सीढ़ियाँ उतरने जैसा होता है. और अगर उत्तर न ढूँढ पाए तो हार स्वीकार कर लें, या साथ मिलकर भी कुछ जवाब ढूँढे जा सकते हैं, निश्चय ही यह यात्रा ज़्यादा फलदायी होगी.

ये तो हुई परिवारों और शिक्षकों की भूमिका ! खेल कूद, संगीत, साहित्य सभी इस दिशा में भूमिका निभा सकते हैं, खेल कूद शारीरिक उर्जा का तो समाधान हो सकते हैं पर मानसिक और भावा त्मक उर्जा, साहित्य और कला क्या उनका हल नहीं हो सकते? अगर साहित्य की बात करें तो स्थिति दयनीय है. बाल साहित्य को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है पहली — चार पाँच वर्ष से लेकर ग्यारह बारह की उम्र और दूसरी बारह तेरह से लेकर सत्रह अठारह वर्ष की उम्र. पहली श्रेणी में जो कुछ भी साहित्य के नाम पर रचा गया है, जाता है, अत्यंत ही सतही होता है, जिनमें फूल पत्ते, तितली बादल, के सिवा कुछ नहीं होता, व्यक्तित्व निर्माण के नाम पर गीता प्रेस गोरखपुर वाली नैतिंक शिक्षा जिसमें बच्चों की कल्पनाशीलता को संबोधित करने के लिए कुछ भी नहीं . हां, वे पाठ्यक्रम की पुस्तकों में ज़रूर जगह पा सकते हैं, वह भी सिफारिश की वजह से. कितने साहित्यकारों का नाम बाल साहित्यकारों की श्रेणी में रखा जा सकता है? जो दो चार नाम दिखते भी है उनमें से अगर एकाध को छोड़ दें तो उनमें कल्पनाशीलता और बच्चों के मानसिक जगत की समझ का नितांत अभाव ही दिखता है. वे बच्चों की सतह पर जाकर लिख नहीं पाते ! ऐसी स्थिति में क्या हम अनुवादों से इस खाई को नहीं पाट सकते? क्या पुराने साहित्य की पुनर्रचना का कोई प्रयास ये अकाडमियाँ या लेखक कर रहे हैं? लोक कथाओं की इतनी समृद्ध परंपरा है हमारे यहाँ क्या हम बदले परिप्रेक्ष्य में उनका पुनर्लेखन नहीं कर सकते? पंचतंत्र कथाओं की रचना कैसे हुई थी? खोजा नसीरूद्दीन कहाँ से अवतरित हुए? पीटर पैन और ऐलिस इन वंडर लैंड मूलतः बच्चों के मनोरंजन और शिक्षा के लिए लिखी और सुनाई कहानियाँ हैं, जिन्हें कालांतर में विश्व साहित्य में जगह मिली. अगर हम इस श्रेणी का साहित्य नहीं रच सकते तो विश्व साहित्य का अनुवाद तो कर सकते हैं? किसी ज़माने में एस चाँद ने विश्व साहित्य के हिन्दी अनुवाद की शृंखला शुरू की थी, क्या आज भी वह चल रही है? किसी समय क्षितिन्द्र मोहन मित्र ने इलाहाबाद से ‘माया’ पत्रिका निकाली जिसमें वह विश्व साहित्य का अनुवाद छापा करते थे और हंगरी, पोलॅंड, रशिया, इंग्लैंड, फ्रांस पता नहीं कितनी देशों की कितनी भाषाओं की कहानियों का अनुवाद उन्होने सिलसिलेवार प्रकाशित किया. पिछले वर्षों में हॅरी पॉटर ने सफलता के पता नहीं कितने प्रतिमान तोड़े, क्या हम ऐसा कुछ रच पाए? क्या रहस्य रोमांच, फॅंटेसी, विज्ञान से संबंधित साहित्य हम रच रहे हैं या नैतिकता की घुट्टी पिलाकर ही हम अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं? साहित्य तुरत फुरत परिणामों का माध्यम नहीं होता पर व्यक्तित्व के समग्र विकास में इसकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता.

अब जब हम संयुक्त परिवारों के विघटन के दौर से गुज़र चुके है, और संचार क्रांति के संक्रमण भरे दौर से गुज़र रहे हैं तो क्या हमारी ज़िम्मेदारी और नहीं बढ़ जाती? ब्लू वेल, पॉर्न साइट्स, चैट रूम्स अगर बच्चों को भरमा सकते हैं तो क्या हम इसी माध्यम का सहारा लेकर उनके सामने दूसरी दुनिया, जो ज़्यादा रचनात्मक और सार्थक हो, के द्वार नहीं खोल सकते? हम जो बच्चों की सफलता को लेकर खुद इतने दबाव में रहते हैं और वही दबाव उनपर भी बनाते हैं, क्या हम ही उनके व्यक्तित्व के विघटन का द्वार नहीं खोल रहे? ज़रूरत अभिभावकों के शिक्षित होने की है और ऐसी शिक्षा किसी स्कूल कॉलेज में नहीं मिलती, यह शिक्षा सिर्फ़ कल्पना-संवेदना-वैचारिकता-सम्पन-जीवन-दृष्टि को विकसित करके ही हासिल की जा सकती है, सरल शब्दों में कहें तो यह अभिभावकों के दोबारा शिक्षित होने का समय है तभी बाल दिवस जैसी औपचारिकताएं कोई अर्थ रखती हैं.

अंत में उन सभी बच्चों के लिए दुष्यंत कुमार की पंक्तियाँ, जो कहीं न कहीं किसी भी वजह से ज़िंदगी की जद्दोज़हद से गुज़र रहे हैं –

जा तेरे स्वप्न बड़े हों

भावनाओं की गोद से उतरकर जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें

चाँद तारों सी अप्राप्य सच्चाइयों के लिए रूठना मचलना सीखें

हँसें, मुस्कुराएँ, गाएँ

हर दिए की रोशनी देखकर ललचाएँ,

उंगली जलाएँ

अपने पावों पर खड़े हों

जा, तेरे स्वप्न बड़े हों !

--

--