बेगम जान

Shubham Dixit
IndiaMag
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5 min readApr 20, 2017

निर्देशक : श्रीजीत मुखर्जी

संगीत : अनु मालिक

लेखक :कौसर मुनीर

कास्टिंग : विद्या बालन (बेगम जान), इला अरुण (अम्मा), गौहर खान (रूबीना), पल्लवी शारदा (गुलाबो), ग्रेसी गोस्वामी (लाड़ली), नसीरुद्दीन शाह (राजा जी), विवेक मुशरन (मास्टर)

वैसे तो सिने जगत में भारत विभाजन पर बनी फिल्मों की एक लंबी श्रृंखला है, लेकिन इस सबसे इतर बेगम जान को देखना अपने आप में एक अलग अनुभव रहा । यूँ तो फिल्म आजादी की पृष्ठभूमि पर बनी है लेकिन यह फिल्म एक अलहदा किस्म की ही कहानी कहती है फिल्म जिसके मुद्दे पर बात करती है आज भी उसका नाम आते ही हमारे भद्र समाज में एक जहर बुझी ख़ामोशी छा जाती है, दरसल बेगम जान बंगाली हिट फिल्म राजकहिनी का हिंदी रीमेक है । फिल्म की कहानी बेगम जान के कोठे के इर्द गिर्द घूमती है जिसके बीचो-बीच से भारत पकिस्तान का बॉर्डर गुज़रना है । एक ओर फिल्म में सरकारी अफसरों द्वारा येन-केन-प्रकारेण कोठे को खाली करवा लेने की जद्दोजहद और कोठे को बचाए रखने की बेगम जान की कशमकश दिखाती है वही दूसरी ओर फिल्म कोठे से जुड़े लोगों के जीवन की गहराई, उनके हंसी, उल्लास, गम और अवसाद को भी उतनी ही साफगोई से उकेरती है । फिल्म हमारे सामाजिक ढांचे पर करारा व्यंग करती है साथ ही फिल्म औरतों के ऑब्जेक्टिफिकेशन के ऊपर गाढ़ा सवालिया निशान भी छोडती है । फिर बात चाहे बेहतरीन अदाकारी की हो, या कैमरे के कमाल की, या सॉलिड कैरक्टराइजेशन की, या डायलॉग डिलीवरी की हर मोर्चे पर ‘बेगम जान’ खरी उतरती है । दरअसल फिल्म वेश्यावृत्ति जैसे गंभीर मुद्दे पर सवाल उठाती है साथ ही उसकी इसमें शामिल लोगों की ज़िन्दगी की बारीकियों की गहनता से पड़ताल भी करती है ।

हम इस मुद्दे पर चाहे जितना भी नाक-भौं क्यों ना सिकोड़ लें यह भी उतना ही सच है जितनी सामाजिक व्यवस्था । नाम चाहें कुछ भी रहा हो पर विकसित, विकासशील और अल्पविकसित देशों में ऐसी प्रथाएँ काफी पहले से चलती चली आई हैं, जिसमें भारत कोई अपवाद नहीं । यहाँ आपको बताता चलूँ कि भारत में जम्मू कश्मीर ही एक मात्र ऐसा राज्य है जहाँ ‘वेश्या पंजीकरण नियम 1921 के तहत वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्राप्त है’ , इस नियम के मुताबिक कोई भी वेश्या अपने व्यवसाय को कानूनी रुप से जारी रख सकती है जिसके लिए उसे 5 रुपए का शुल्क देकर जिला मजिस्ट्रेट के सामने एक साधारण सा आवेदन भर कर देना होता है । फिर भी भारत के लगभग हर छोटे-बड़े शहर में कहीं न कहीं वेश्यावृत्ति जारी है और अगर विकीपीडिया की बात माने तो सोनागाछी, कोलकाता, भारत का सबसे बड़ा रेड लाइट एरिया है । ये किस कानून के तहत काम करते हैं, इनको कौन संरक्षण देता है यह वाकई में एक जांच का विषय है ।

बेगम जान दरअसल उस बच्ची की कहानी है जिसके पती के मरने के बाद उसे कोठे पर बेच दिया गया और वो उसी माहौल में पली-बढ़ी । बेगम जान अब एक कोठे की मालकिन है जहाँ भारत के लगभग हर राज्य से सती प्रथा, दंगो में बलात्कार की शिकार लड़कियाँ, विधवाएँ हैं उनके घर वालों ने या तो धक्के मार कर घर से निकाल दिया या अपनाने से मना कर दिया । उन्हें या तो बेगम जान ने खरीदा है या अधमरी हालत में वहाँ लाई गई हैं । बेगम जान को वहाँ के राजा का संरक्षण प्राप्त है जिसके एवज़ में हर नई लड़की सबसे पहले राजा साहब के सामने पेश किया जाता है । कहानी वहाँ तक बहुत ही स्मूथ चलती है जब तक रेडक्लिफ साहब की लाइन पर तार खिचने का काम चालू नहीं हो जाता ।

फिल्म के कुछ डायलॉग उससे कहीं गहरे हैं जितने वो सुनने में दिखाई देते हैं । फिल्म के एक सीन में जब मास्टर विद्या बालन से कहता है ‘आप जश्न नहीं मनाएंगी बेगम जान आज हमारा वतन आजाद हुआ है’ के जवाब में बेगम कहती है ‘आजादी तो सिर्फ मर्दों के लिए होती है मास्टर, औरतों को तो गाली देने की भी आजादी नहीं, और गाली दें भी तो किसे? मां-बहन को ? अपनी ही जात को !’ । दरअसल वेश्याओं को लेकर हमारे समाज में जितनी घृणा भारी हुई है फिल्म उसकी एक हल्की सी झलक भर है बस, कितनी सटीक जान पड़ता है जब रूबीना कहती है कि ‘ये जो रात को आ कर यहाँ सोते हैं सब के सब, दिन में गर हमारी परछाई भी पड़ जाए तो नहाते फिरेंगे’ और ऐसी ही बात के जवाब में बेगम जान मास्टर से कहती है ‘अपने करोड़ों के देश के किसी एक मर्द से कहो कि मेरी किसी बच्ची से फेरे लेकर निकाह करके उसे ले जाए… साथ सोने और साथ निभाने में फर्क होता है मास्टर’ या जब श्याम सिंह बेगम को रंडी कहता है तो वो जवाब देती है ‘डॉक्टर को डॉक्टर, वकील को वकील और रंडी को रंडी ही तो बोलते हैं, ये भी कोई गाली हुई’ जैसे जाने कितने ही धाकड़ डायलॉग है जिन्हें सुनकर मन में कहीं कुछ सवाल सर उठाते तो हैं । और सबसे ज्यादा खूबसूरत डायलॉग ‘साडे जिस्म की ही नहीं साडे दिल दी भी कोई कीमत होंदी है’ जिसे फिल्म में कई मर्तबा इस्तेमाल भी किया गया है दिल को गहरे में कहीं छूता है ।

फिल्म में वेश्याओं जैसे अछूते वर्ग की मुख्य भूमिका है जिसे हमेशा ही हिकारत भरी निगाहों से देखा गया है, फिल्म आदमी और उसके सृजे खोखले एकपक्षीय सामाजिक ताने-बाने की कलाई खोलती है और क्या खूब खोलती है । फिल्म देखते हुए एक बात सहजता से महसूस की जा सकती है कि कोठे जैसा सर्व-धर्म, सर्व-जाति संगम कहीं देखने को नहीं मिलता । कोठे पर जाना मर्दों की शान समझा जाता रहा है, ये हमारी पुरुषवादी सामाजिक व्यवस्था की ही देन है कि रंडी के समानान्तर कोई पुरुष वाचक हिन्दी शब्द गढ़ा ही नहीं गया, और इसकी वजह भी साफ है क्योंकि ये सारी वर्जनाएँ सिर्फ औरतों के लिए हैं । दरअसल ये सारा मामला ही डिमांड और सप्लाई का है जब तक मांग रहेगी तब तक कोई न कोई आपूर्ति तो करेगा ही । यहाँ ज्यादा दोषी कौन है ? वो जिन्हें ज़ोर जबर्दस्ती इस दलदल में धकेला गया है या वो जो क्षणिक सुख के लिए वहाँ जाते हैं । फिल्म भारतीय सामाजिक ढांचे, जिसमें पुरुष एक स्वछंद प्राणी हैं जो कभी भी, कहीं भी, कुछ भी कर सकता है की नस-नस पर चोट करती है ।

फिल्म वेश्याओं के जीवन को बहुत ही संजीदगी से सकेरती तो है पर बिस्तर पर मुर्दा सी पड़ी छत निहारती लड़की और इसी तरह के सीन्स को पहले भी कई फिल्मों में दिखाया जा चुका है जो उतना गहरा प्रभाव नहीं छोड़ते, भारत-पाक के बीच खिच रहे बॉर्डर पर अधिकारियों का संवाद काफी हद तक सतही है जिसे और बेहतर ढंग से पेश किया जा सकता था । फिल्म बलात्कार के बाद किसी भी लड़की की ज़िंदगी खत्म हो जाती है जैसा गलत संदेश भी देती है पर तत्सामयिक परिस्थितियों का अध्ययन किया जाए तो फिल्म अनुकूल ही लगती है । वहीं एक सीन में कोठे की दीवार पर लोहे की ग्रिल जो उस समय प्रचलन में ही नहीं थी का दिखना जैसी कुछ बारीकियां है जिन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए था । इस सब के बावजूद फिल्म की स्क्रिप्ट, डायलॉग और अदाकारी कुछ ऐसे पॉइंट हैं जो इस फिल्म को देखने लायक तो बनाते ही हैं साथ ही बेहतर सिनेमा की सिरीज़ में भी ला खड़ा करते हैं । अगर आप रेगुलर सिनेमा से हट कर कुछ नया देखने का शौक रखते हैं तो ये फिल्म आपके लिए है ।

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