मुक्ति

Ranjana Mishra
IndiaMag
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17 min readMar 17, 2017

मोबाइल स्क्रीन पर मिसेज़ बानेदार का नंबर चमका और मुझे उनका फोन रिसीव करने की इच्छा नहीं हुई . वैशाली के जाने के बाद से यही होता है . मिसेज़ बानेदार मुझे वैशाली की याद दिला जाती हैं, साथ ही मेरी अपनी खुदगरज़ी भी और मैं वह दिन याद करने लगती हूँ जिस दिन आख़िरी बार वैशाली ने मुझे फोन किया था –

“ मैडम, आप कहाँ हो ” ?

मैने जवाब दिया — “ऑफीस में हूँ, क्या बात है वैशाली, बोलो”

उधर से जवाब आया —” मैडम, आपसे मिलना है, कुछ बताना है और थोड़े पैसे भी चाहिए.”

‘मिलना’ तक तो ठीक था, ‘ कुछ बताना है’ में कुछ ख़ास रूचि नहीं थी मेरी और पैसे के बारे कोई वादा नहीं ! मेरी व्यवहार बुद्धि चौकन्नी हो उठी !

इंसान के प्रति इंसान की उदासीनता को हम कई नकाबों में छिपा अपना जीवन जीते हैं . तो मैं वैशाली से नाराज़ थी उन दिनों .

कॉलोनी में आए मुझे सप्ताह भर हुए होंगे . एक शहर से दूसरे शहर शिफ्ट होना, वह भी एक छोटे बच्चे के साथ इतना आसान नहीं होता . बेटे का नए स्कूल में दाख़िला, नया घर जमाना, नया दफ़्तर और नया माहौल. ज़िंदगी मुश्किल थी . और ऊपर से कोई काम वाली भी नहीं ! कामकाज़ी महिलाओं की सबसे बड़ी हमदर्द और सिरदर्द, कभी कभी दोनो यही काम वाली बाइयाँ ही तो होती हैं ! मिनटों में या तो ज़िंदगी आसान कर दें या मुश्किल ! तो उन दिनों एक अदद काम वाली की तलाश मुझे भी थी .

मैं रोज़ लंच टाइम पर अपने बेटे को स्कूल के बस से लेकर घर आती उसे खाना खिला वापस ऑफीस चली जाती . दोपहर के बाद ऑफीस में रुकना सचमुच कठिन हो जाता था . बेटा भी शिकायत करता, यहाँ के बच्चे अच्छे नहीं हैं, लड़ते रहते हैं हमेशा . हम बिल्कुल भिन्न माहौल में रहने के आदी थे, यहाँ का माहौल बिल्कुल अलग था, उसे अपने पुराने दोस्त भी याद आते . मैं लगातार उलझे सिरों को सुलझाने कोशिश में थक जाती, हताश हो जाती . कुल मिलाकर हम दोनों अपनी अपनी लड़ाइयाँ लड़ रहे थे .

एक दिन दोपहर को बेटे को स्कूल बस से लेकर कॉलोनी की गेट के अंदर आई तो देखा गेट के बगल वाले पेड़ के नीचे दो स्त्रियाँ बैठी आपस में बातें करती हंस रही है . उनमें से एक ने मुझसे मराठी में समय पूछा , जिसका जवाब मैने हिन्दी में दिया . दोनो ने आपस में कुछ खुसुर पुसुर की फिर उठकर मेरे पीछे चली आईं . मैने पूछा — ‘क्या है”? उनमें से एक ने कहा — “ मैडम आपको काम वाली बाई चाहिए क्या? मुझे वाचमेन ने बोला.” मैने उसे ऊपर से नीचे तक देखा. यही कोई बीस इक्कीस की उम्र होगी, माथे पर बड़ी सी कुमकुम की बिंदी, सलीके से पहनी हुई साड़ी, चूड़ियाँ, पायल, कानों में झुमके, गले में मंगलसूत्र और बड़ी बड़ी चमकदार हँसती हुई आँखें. इतनी सी बात करने में ही वह कम से कम दो बार हंस चुकी थी . हँसी भी बहते पानी सी, कलकल. मैं तो उसकी हँसी पर ही रीझ गई. सच है, हमारे भीतर का सूनापन लगातार खुद को भरने की कोशिश करता रहता है.

तो बात तय हो गई . वैशाली सुबह आ जाएगी, झाड़ू पोछा बर्तन और किचन में मेरी मदद करेगी, दोपहर को मनु को स्कूल बस से लेकर उसे खाना खिलाएगी और मेरे आने तक उसके साथ रहेगी. साथ वाली लड़की उसकी ननद थी — कविता . कविता और वैशाली भाभी ननद तो कम लगीं दोस्त ज़्यादा लगीं और मुझे यह बात बड़ी अच्छी लगी . दूसरे दिन वैशाली सुबह सुबह हाज़िर हो गई . उसकी उपस्थिति ही बड़ी मीठी थी . हमेशा हँसती, कुछ न कुछ बोलती रही हरदम . पता नहीं कितने क़िस्से रहते उसके पास, यहाँ वहाँ के, कविता और उसके प्रेमी के . अपने मायके के, अपने बचपन के, अपने पड़ोस, अपने पियक्कड़ पति के और झगड़ालु सास के . खट्टा मीठा कड़वा सब एक साथ बाहर आता उसके शब्दों से . और इस खट्टे मीठे कड़वे के साथ उसकी सदाबहार हँसी बजती ही रहती . काम करने में लस्त पस्त बातें करने में माहिर!

मैं काम ठीक से करने के लिए उसे डांटती और मेरी डाँट उसके लिए हँसी का नया कारण होती —” मैडम तुमको डांटना नई आता, मेरे को हँसी आता है जब तुम ऐसे बोलता ” मैं डाँट भूलकर उसकी हिन्दी सुधारने लगती ! ऑफीस जाने तक मेरा बोलते बोलते बुरा हाल हो जाता ! कभी उसकी बकबक से थक कर मैं चुप हो जाती तो वो सामने आकर खड़ी हो जाती — “ मैडम, चाय बनाऊँ ” ? फिर चाय पीते पीते मुझे समझाती — “ ऐसा नई मैडम, संभाल के लेने का, मेरे को तुम्हारे जैसा सबकुछ नई आता, अब्बी मैं सीख जाएगी तब तुम देखना एक बार भी ग़लती नई होएगी मेरे से ” फिर से उसकी बकबक शुरू हो जाती ! और फिर से मेरा हिन्दी सुधारना ! कभी कभी शाम को सब्ज़ी, घर का सामान लिए मैं घर आती तो मुझे कहती — “ कितना काम करता है मैडम तुम, तुम्हारा मरद किधर ? उसको इधर ले के आओ “ मैने कहा उसका ऑफीस दूसरी जगह है, पूना से बाहर ”. वह मूँह बिचकाती — “ ये देखो, एक मेरा मरद — मेरे साथिच रहने का, बस दारू पीने का और मेरे को मारने का और एक तुम्हारा मरद दूर रहने का और पैसा कमाने का ! तुम खुस की मैं खुस?” फिर टिल टिल हँसने लगती — “ लेकिन सच्ची बोलूं ना मैडम तो शादिच नई करने का, मस्त रहने का एक इस्कुटर लेने का और इधर उधर घूमने का ” स्कूटर जैसे उसके लिए खुशी और आज़ादी का चिन्ह थी . उसे ज़िंदगी में दो ही चीज़ें चाहिए थीं — एक तो उसका पति शराब पीना छोड़ दे; दूसरा उसके पास एक स्कूटर आ जाए, जिसे चलाती वह उड़ती फिरे .

हर व्यक्ति अपने सामने वाले व्यक्ति में ऐसा कुछ चुन लेता है, जिससे वह संवाद करना चाहता है, हो सकता है यह चुनाव उनके संसारी रिश्ते से बिल्कुल उलट हो, परे हो, सर्वथा भिन्न हो . मैने और वैशाली ने एक दूसरे में मालिक और नौकर के संबंधों के बजाय अपनी जिंदगी की ऐसी खाली जगहों को भरना चुना था जिसकी हम दोनो उस समय तलाश कर रहे थे . उसे अपनी दुनिया चलाते रहने के लिए मुझ जैसा कोई चाहिए था और मुझे अपनी नई दुनिया बसाने के लिए उस जैसा कोई . हम दोनो नहीं जानते थे कि अपने अपने स्वार्थों के बावजूद हममें कोई ऐसा रिश्ता भी पनप रहा था जो इन स्वार्थों से परे था और कहीं ज़्यादा मानवीय .

इसका पता उस दिन अचानक लगा जब एक दिन वैशाली सुबह सुबह अपने काम के समय से पहले ही चली आई . सूजी आँखें, बिखरे बाल, चेहरे पर चोट के निशान. उसकी हँसी और कुमकुम वाली बड़ी बिंदी आज दोनो गायब थे. आते ही बोली — “ मैडम, मेरा मरद आएगा खोजने मेरे को तो मत बोलना मैं इधर आई हूँ”. मैं तुरंत नींद से जागी थी, बौखला गई, कुछ समझ नहीं आया, पूछा — “अरे हुआ क्या ? मारा उसने तुझे ?”

वैशाली ने कहा — ‘हां मैडम, सास भी झगड़ा करती, बोलती तेरे बच्चे रख लेती मैं, तू जा अपनी माँ के घर और मेरा मरद रात फिर से दारू पी के आया, बहुत मारा मुझे, बोलता है मैं काम को नहीं जाती, दूसरे मरद लोगों के साथ घूमती हूँ, उनके साथ सोती हूँ . इतना मारा मुझे मैं चुप से सुबह घर से निकल के आई . मेरे को ढूँढने वास्ते आएगा तो बोलो मत मैं इधर आई . मेरी माँ इधर होती तो क्या ये लोग ऐसा करते मेरे को . बच्चे को लेकर अभी किधर जाने का ! बच्चे को मेरे पास आने नही देते, मेरी सास बोलती मेरे बेटे का बेटा है . तूने क्या किया, इसे तो मैं पालती हूँ .” मेरी समझ नहीं आया क्या कहूँ उसे, कहा — “ बैठ, सोचते हैं कुछ ”. वह चुपचाप उठी और किचन में चाय बनाने चली गई . उसने चाय बनाई और हम बैठकर बातें करने लगे . तब तक कॉलबेल बजी . वैशाली का चेहरा डर से सफेद पड़ गया, उठकर किचन में भाग कर दरवाज़े के पीछे खड़ी हो गई, बोली —” मैडम मेरा मरद होगा तो मत बोलना मैं इधर आई”. मैने उठकर दरवाज़ा खोला तो सामने नशे में धुत्त पच्चीस छब्बीस बरस का एक युवक खड़ा था . ‘खड़ा था’ नहीं कह सकते, वह बुरी तरह डगमगा रहा था, यूँ कहिए खड़ा होने की कोशिश कर रहा था . कच्ची शराब के भभके फूट रहे थे उसके शरीर से . प्रश्नवाचक निगाहों से मैने उसकी तरफ देखा . उसने पूछा — “ वैशाली बाई इधर आया है ना” ? मैने कहा — “हाँ, आती है, मगर आज नहीं आई है, तुम कौन हो, यहाँ क्यों आए हो ?” मैने ध्यान नहीं दिया था कि वैशाली के चप्पल बाहर रखे थे, पर उसका ध्यान था इस तरफ, उसने कहा — ‘ वो साली इधरिच है, उसका चप्पल रखेला इधर, बुलाओ उसको, वो अंदर छुपेली है .” चप्पल देखने के बाद उसकी आवाज़ थोड़ी ऊँची हो रही थी . मैने कहा — “ मारा क्यों उसको ? इतनी चोट कैसे आई उसे “? उसका साहस और बढ़ गया, कहा — ‘मेरी औरत, मैं मारूँ, तुमको क्या ? बुलाओ उसको . अभी बुलाओ” उसकी आवाज़ और ऊँची हो गई . अचानक जैसे गुस्से की तेज़ लहर मेरे पैरों से मेरे सर पर चढ़ गई और उससे भी ऊँची आवाज़ में मैने कहा — “ निकल यहाँ से, नहीं आएगी वैशाली. और आज के बाद मेरी सीढ़ी पर पैर भी रखा तो गोली मार दूँगी तेरे पैरों में.” वह जैसे भौचक्का रह गया, बोला — “ओ मैडम गोली क्या मारने का बोलता, इतना आसान है क्या! मैने उतनी ही तेज़ आवाज़ में कहा — “ निकलता है यहाँ से क़ि लाऊँ अंदर से !” मेरा मूँह देखता, बुदबुदाता वह चुपचाप सीढ़ियाँ उतर गया . शायद ऐसे व्यवहार की उम्मीद उसे न थी . मेरी आवाज़ काफ़ी ऊँची हो गई थी, पास पड़ोस के दरवाज़े खुलने लगे थे . पड़ोसियों से पता चला पिछली शाम भी कॉलोनी में आकर उसने वैशाली को काफ़ी भला बुरा कहा था, गालियाँ दी थीं .

खैर, मैं अंदर आई. किचन के दरवाज़े से सटी खड़ी थी वैशाली, डर से काँपती . मैंने कहा —

“ चला गया, डर मत तू, आज पुलिस में शिकायत करेंगे . एक बार थाने से बुलावा आएगा तो सारी हेकड़ी निकल जाएगी . “ वह थाने जाना नहीं चाहती थी, बोली — मैडम, अपने पास ही रख लो ना मेरे को, मैं सब काम कर दूँगी”. मैने पूछा — “तेरे बच्चे”? वह चुप हो गई. थोड़ी देर बाद अचानक जैसे कुछ याद आया उसे, बोली — “ मैडम, तुम्हारे पास क्या सचमुच की बंदूक है ?” मैं उसे चुपचाप देखती रही फिर मुस्कुरा कर किचन के कोने में रखी झाड़ू की तरफ इशारा किया , उसने झाड़ू की तरफ देखा फिर मेरी तरफ देखा, हम दोनो ठठाकर हँस पड़े .

थोड़ी देर के लिए वैशाली फिर वही पहले वाली वैशाली हो गई .

पर यह कोई एक दिन की बात तो न थी , रोज़ उसका पति शराब पीता उसे मारता तरह तरह के लांछन लगाता और उसकी सास उसके बच्चे अपने पास रख लेने की धमकी देती . काम दोनों में से कोई भी न करते तो घर चलाने की ज़िम्मेदारी वैशाली की . बस एक कविता थी जो वैशाली का दुख समझती, उसे दिलासा देती और अपनी माँ और भाई से उसे बचाने के लिए झगड़ती, कमाती चूँकि वह भी नहीं थी, इसलिए उसकी बात से कोई ख़ास फ़र्क नहीं पड़ता किसी को .

एक दिन वैशाली और कविता सुबह सजी धजी आईं . कविता कुछ ख़ास साज धज के साथ थी . मैने पूछा — “कहाँ की तैयारी है? “ कविता मुस्कुरा कर रह गई और वैशाली मुझे किचन में खींच ले गई . धीरे से बोली ‘ मैडम किसी को बोलना मत , आज वैशाली का शादी है . उसको अपने साथ काम का बहाना करके लाई , उसका होने वाला मरद भैया है ना तो उसके साथ शादी बनाने नई देगी उसकी माँ और मेरा मरद (भैया मुंबई पुणे में उत्तर के मर्दों को कहते हैं). बहुत मारेंगे उसको, लेकिन कविता को उसके साथिच शादी बनाने का, तो आज उनका शादी, मैं आती अभी उसको मंदिर में छोड़कर फिर काम करेगी . “

मैने बोला — ‘तेरे घर पर खबर हो गई तो ?” वह बोली — “जाने दो मैडम, मेरे को तो ऐसे भी मारते वैसे भी मारते, कविता का तो अच्छा होएगा ना . उसका मरद बहुत प्यार करता उसको, मेरे जैसी नई जिएगी वो, खुश रहेगी उसके साथ, अच्छा कमाता है . भैया हुआ तो क्या, प्यार तो करता उसको” मेरे पास समझदारी और दुनियादारी वाले कोई तर्क नहीं थे . पूछा — “१८ की हो गई है ना ?” वह बोली — “ कब की हो गई, मेरे से बड़ी है वो “.

इसके बाद वही हुआ जिसकी मुझे आशंका थी. कविता घर नहीं लौटी और वैशाली की खूब पिटाई हुई घर पर, दो तीन दिन काम पर भी नहीं आई, खबर भिजवाया अपनी किसी पड़ोसन से कि ठीक होते ही आएगी. इस बार मैने सोच लिया था उसे ज़बरदस्ती पकड़कर थाने ले जाऊँगी और उसके पति का कुछ करूँगी. ठीक होने के बाद जब वैशाली आई तो उससे कहा मैने — “तू थाने क्यों नहीं जाती, तुझे मार देंगे ये लोग” बोली — “ मैडम थाने जाकर क्या होगा, रोज़ थाने वाले मुझे बचाएंगे क्या ”. मैने कहा अरे मैं हूँ ना, तू चल तो सही एक बार ” वह चुपचाप मेरा चेहरा देखने लगी. बोली — “ मैडम एक बात बोलूं ? मेरे को मन करता है किसी के साथ भाग जाऊं ” कहते कहते वह रोने लगी . मैं पहली बार उसे रोते हुए देख रही थी . कुछ समझ नहीं आया क्या बोलूं बस हाथ थाम लिया उसका . थोड़ी देर रोती रही फिर बोली — “ मुझे रोज ही बोलता है तू काम को नहीं जाती, मर्दों के साथ घूमने जाती है, मैं तो ऐसे भी बदनाम वैसे भी बदनाम क्या फ़र्क पड़ेगा, बस बच्चे हैं इसलिए कुछ नहीं करती ”. वो बानेदार बाई के घर जो रांका आता है वो कितनी बार बोलता मेरे को वैशाली तू कितनी अच्छी लगती देखने को, मेरे साथ घूमने चल. उसके पास इसकूटर भी है. पर मैं नहीं जाती ”.

उसे थाने ले जाने की बात भूल गई मैं. सोचा ये क्या बक रही है ! मैने पूछा — कौन है रांका ? क्यों बात करती है तू उससे ? बोली — मैं नई करती वो खुद ही करता . मैने उसे समझाने की कोशिश की — “ वैशाली तू समझ रही है वह क्यों ऐसा बोल रहा है, जाना मत उसके साथ, रुक मैं मिसेज़ बानेदार से बात करती हूँ . अगर तू गई उसके साथ कभी तो टाँग तोड़ दूँगी तेरी ” वह हँसने लगी , बोली — “मैडम दो ही टाँग मेरा, कितना लोग तोड़ोगे”!

मिसेज़ बानेदार चौथी मंज़िल पर रहती थीं और वैशाली उनके यहाँ भी काम करती थी . कोई ख़ास परिचय नहीं था पर एक ही बिल्डिंग में रहने की वजह से सीढ़ियाँ चढ़ते उतरते हम एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा दिया करते थे .

इसके बाद कुछ दिनों तक शांति रही, कोई मार पीट नहीं हुई उसके साथ और वह खुश खुश काम पर आती रही . उसके पति ने बोला — चुपचाप काम से घर आ जाया करे और लोगों से हंसकर बातें करने की भी ज़रूरत नहीं . हालाँकि कविता की शादी की बात नही भूले थे वह लोग और अक्सर उसे इस बात का ताना दिया जाता की उसने अपनी ही तरह कविता को भी आवारा बना दिया .

इन्हीं दिनों गणपति उत्सव की धूमधाम हुई, कॉलोनी में खूब उत्साह का माहौल रहा, पूजा आरती होती रही दस दिनों तक . मैं वैसे भी पूजा पाठ में कोई ख़ास रूचि नहीं रखती थी और गणपति का उत्सव एक त्योहार की तरह दर्ज़ होना बाकी था मेरे भीतर . त्योहार तो तब भी दशहरा और दीवाली ही थे मेरे लिए, गणपति तो बस छोटी सी पूजा , तो मेरी दिनचर्या सामान्य ही चलती रही ऑफीस घर की . वैशाली को ये कैसे हजम होता जब सारी दुनिया उत्सव और सिंगार में डूबी हुई है तो मैं अपनी सामान्य दिनचर्या में व्यस्त रहूं ? रोज़ मेरी आलमारी खोलती और कहती — “ मैडम आज साड़ी पहनके ऑफीस जाने का. और दूसरा बाई लोग को देखो कैसा चूड़ी बिंदी पहन के रहता, ऐसा रहने का. कैसा है तुम नेल पोलिस भी नई लगाता ”. अक्सर ड्रेसिंग टेबल से नेल पोलिश लेकर मेरे हाथों और पैरों में नेल पोलिश लगा देती. “ ये कैसा कपड़ा पहनता तुम ? दुपट्टा लेने का, सुंदर लगता है, और ये कैसा लड़का लोग के माफिक पैंट पननने का ! बाई लोग को साड़ी सुंदर दिखता ”.

उसे लगता क्या पता कपड़े और नेल पोलिश की रंगीनी मेरे मन पर भी उतर आएगी !

मैं मन ही मन आश्चर्य करती उसके माद्दे पर. जीवन की कुरूपताओं को इस तरह हंसते हंसते सह जाना क्या इतना ही आसान होता है? या सहने की एक सीमा होती है और उसके बाद हमारी संवेदनाएँ भोथरा जाती हैं और हम वही ज़िंदगी जीने लगते हैं जो हम जीना चाहते हैं. क्या दुख ऐसे भी लिबरेट करता है?

गणपति के बाद दशहरा का त्योहार आया . कोई धूम धाम नहीं कोई उत्सव जैसा माहौल नहीं . मनु और मैं दोनो ही निरूत्साहित हो गए . मैने कहाँ — वैशाली पूना एकदम फालतू जगह है तुम लोग दशहरा नहीं मनाते”, बोली ‘अरे मैडम, ऐसा कैसा — चलो मैं चतुशृंगी ले के जाती तुमको, उधर पूजा करते हैं. अपन लोग चल के जाएँगे मदिर” . ये तो आ बैल मुझे मार वाली बात हो गई . मैने कहा “ अरे नहीं मंदिर वन्दिर नहीं जाना मुझे, पूजा नहीं करती मैं “. अब ये तो मैने बहुत ही ग़लत बात कर दी. वैशाली पर जैसे साक्षात दुर्गा आ गईं — “मैडम भगवान को ऐसा नई बोलने का, हम लोग को उसने इस धरती पर भेजा, सब कुछ वही देता”. मैने छेड़ दिया — ‘हाँ तेरा मरद भी भगवान ने ही तुझे दिया”. ‘नहीं मैडम, मेरे बाप ने ढूँढा इसको, भगवान का क्या ग़लती”. दूसरे दिन सुबह आकर सबसे पहला काम जो उसने किया वो मंदिर ले जाने का किया ‘ ‘मैडम सबकुछ ठीक हो जाएगा तुम्हारा चलो ना. पता नहीं किस विश्वास से मैं भी उसके साथ चल दी. पूरे रास्ते मेरी गाइड बनी मेरे साथ चलती रही सारी दुकानों के नाम बताती, कौन सी दुकान की कौन सी चीज़ अच्छी है. कौन सी दुकान महँगी है सब ब्योरे थे उसके पास !

कॉलोनी में आए दिन उसके बारे अफवाहें उड़ा करतीं . उसकी हँसी उसकी सबसे बड़ी दुश्मन थी . जितनी भी मार खाती घर पर, उसकी हँसी की खनक बरकरार रहती. लोगों को दुख से मुरझाए चहरे ज़्यादा पसंद आते हैं, एक जवान लड़की के खिल खिल करते रहने के पीछे एक मर्द तो होना ही चाहिए! एक दिन मैं और मिसेज़ पांडे उनकी बाल्कनी में खड़े बातें कर रहे थे, कोई छुट्टी, शायद शनिवार का दिन था. वैशाली मिसेज़ बानेदार के यहाँ से काम करके निकली और बाल्कनी में हमें खड़ा देखकर दूर से हाथ हिलाया. मैं भी मुस्कुरा दी. मिसेज़ पांडे ने कहा — “यही वैशाली है न “? मैने कहा — हाँ, क्यों? वो हंस पड़ीं, बोलीं रहने दो कुछ नहीं. मैने ज़ोर देकर पूछा तो कहा —” इसका चरित्र ठीक नही है ”! मैने कहा क्यों भाभी ऐसा क्यों कह रहीं हैं ? वह बोलीं सुना है बानेदार के यहाँ कोई आता है यह उसके साथ घूमती फिरती है”. मुझे तुरंत रांका की याद हो आई . कुछ कहाँ नहीं उनसे, अपने घर आ गई . दूसरे दिन वैशाली आई तो मैने पूछा —” वैशाली तू रांका के साथ घूम फिर रही है ?” उसे ऐसे सवाल की आशा नहीं थी सुबह सुबह . बोली —” किसने बोला आपको ये सब ? लोग तो कुछ भी बोलते हैं “. मैने फिर से उससे पूछा — “ वैशाली सच सच बता क्या चल रहा है ? तुझे पता है न तेरे दो बच्चे हैं ? वो रांका तेरे साथ शादी भी नहीं करेगा . वह ठीक तरह का इंसान नहीं है .” थोड़ी देर वह मेरा चेहरा देखती रही, फिर बोली — “ क्या करने का मैडम, घर का तो तुमको पता है, उसके साथ थोड़ा घूम फिर लेती हूँ तो बाकी सब ठीक लगने लगता है . नई तो क्या है मेरी ज़िंदगी में ? मार खाओ और काम करो”. मैने कहा — “ बुला ला रांका को मेरे पास, मैं ज़रा बात करूँ उससे देखूं कितना प्यार करता है तुझे ! वह बोली — हाँ मैडम, वो आपका नंबर भी माँगता है, बोलता वो तुम्हारी मैडम से मेरे को मिलवाओ ! गुस्से से मेरी माथे की नसें फड़कने लगीं . मैने कहाँ ला दे मुझे उसका नंबर ज़रा बताती हूँ उसे .” बोली — कल लाकर देती हूँ . आज नहीं है मेरे पास .

दूसरे दिन व्यस्तता में नंबर वाली बात आई गई हो गई और वैशाली ने भी कुछ नहीं कहा . बीच बीच में उसे कहती रहती — “ वैशाली मत जा उस नालायक रांका के पास”, वह सुनती मुझे दिलासा देती —” नहीं जाती मैडम अब उसके साथ, मेरे को भी ठीक नहीं लगता . जब देखो दूसरी बाई लोग के बारे बात करता . मेरे को बोलता डब्बा की बिज्नीस करने को पैसे देगा, फिर मेरे को घर मैं बर्तन झाड़ू नई करना पड़ेगा . मेरा मरद से भी बात किएला उसने. मेरा मरद बोलता ठीक बोलता रांका . डब्बा बनाने के काम में ज़्यादा पैसा मिलेगा .”

तो यहाँ एक नहीं दो ठेकेदार थे जो उसका सौदा करने को बेचैन थे .

इस बीच मनु का एडमिशन दूसरे स्कूल में हो गया और कॉलोनी उस स्कूल से दूर पड़ने लगी . मनु स्कूल से आता तो थका हुआ रहता, बिना कुछ खाए सो जाता . मैने स्कूल के पास घर लेने का निश्चय किया और कॉलोनी वाला घर छोड़ने का मन बना लिया . वैशाली को बताया तो उसका चेहरा मुरझा गया . बोली —” मैडम मत जाओ, इधर ही रहो . मेरे को बिल्कुल अच्छा नहीं लगेगा” मैने कहा —” तू उधर आ जाया करना और हाँ, उस रांका का चक्कर छोड़ दे वह ठीक इंसान नहीं” वह ही ही कर हँसती रही, बोली — “ भाग जाऊंगी उसके साथ”! मैने कहा “ पिटेगी मुझसे याद रख”. उसे फिर से समझाने की कोशिश की वह हाँ हाँ करती रही . मुझे तेज़ गुस्सा आया और मन ही मन मैने सोच लिया अब कोई बात नहीं करूँगी इस बारे .

कई बार हम उन हाथों को ठीक उसी समय छोड़ देते हैं जब उन्हें थामे रखने की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है . शायद यही किया मैने वैशाली के साथ .

मैं नए फ्लॅट में शिफ्ट हो गई .

इसके बाद जो कुछ हुआ वह स्मृति में हल्की सी धुन्ध के साथ दर्ज़ है. एक सुबह भाभी का फोन आया कि वैशाली बुरी तरह जली अवस्था में अस्पताल में भर्ती है . ८०% बर्न इंजुरी है, बचेगी नहीं शायद . मैं सन्न रह गई, अभी दो तीन दिनों पहले ही तो फोन आया था उसका . ऑफीस से छुट्टी लेकर हॉस्पिटल भागी, वहाँ मिसेज़ बानेदार मिलीं . उन्होंने बताया वैशाली गर्भवती थी और उसके पति को शक़ था बच्चा उसका नहीं, इसी बात पर दोनो झगड़ रहे थे पिछले कई दिनों से . वैशाली पैसे चाहती थी ताकि इस मुसीबत से छुटकारा पा ले . मुझे फोन पर हुई मेरी और उसकी बातचीत याद आ गई .

इसी झगड़े में उसके पति ने फिर से मारा था उसे , गुस्से में वैशाली ने कहा मैं आग लगाकर मर जाऊँगी — उसका पति नशे की हालत में किरासीन की बोतल उसके हाथ में थमा गया, वैशाली ने तेल अपने ऊपर डाला और आग लगा ली . पूरी बस्ती खड़ी तमाशा देखती रही, पति पत्नी का झगड़ा समझ कोई आगे नहीं आया, बस आग लगने के बाद दौड़ धूप शुरू हुई पर तबतक देर हो चुकी थी .

मरते समय वैशाली ने यही कहा क़ि उसकी मौत के लिए कोई ज़िम्मेदार नहीं है, आग उसने अपनी मर्ज़ी से लगाई है .

*****

हर अस्वाभाविक मौत एक सवाल होती है जिसकी जवाबदेही किसी की नहीं होती , जिसे हम अपनी सुविधा और अपने तरीके से परिभाषित कर लेते हैं. वैशाली की मौत किसी अख़बार की सुर्खी नहीं बनी . किसी की ज़िंदगी में कोई ख़ास फ़र्क नहीं आया . बच्चे उसकी सास ने पाल लिए . उसकी माँ कुछ दिन रोकर फिर अपने काम धाम में लग गई होगी, ग़रीबी दुख मनाने की सहूलियत कहाँ देती है ! जिन घरों में वैशाली काम करती थी, उन्हें भी दूसरी बाइयाँ मिल गई होंगी .

मैं और मिसेज़ बानेदार अपनी अपनी दुनिया में मशगूल है, कभी कभार एक दूसरे को फोन करते हैं. अक्सर मैं फोन नहीं उठाती हूँ . रह रह एक कील चुभती रहती है मेरे भीतर . जिंदगी का सफ़र बदस्तूर जारी है . रही वैशाली, तो उसे क्या पता था शास्त्र कहते हैं मनुष्य जन्म चौरासी लाख योनियों के बाद मिलता है . उसे तो इस एक ज़िंदगी ने लील लिया .

कभी कभी मैं खुद को उस बस्ती के खामोश खड़े लोगों में पाती हूँ जिन्होने वैशाली को आग लगाते देखा और एक कदम भी आगे नहीं बढ़े.

वैशाली ने हम सब को बरी कर दिया.

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