मैं गाँधी को नहीं जानता

Manish Gupta
IndiaMag
Published in
4 min readOct 2, 2016

सौ में सत्तर आदमी, फिलहाल जब नाशाद हैं,
दिल पे रखकर हाथ कहिए, देश क्या आजाद है?

यह लिखने वाले साहब हैं — अदम गोंडवी। इन्होने ज्यादातर आम आदमी के दर्द और हक़ को कविताओं में ढाला और बड़ी आसान भाषा में अपनी बात रखी।अदम गोंडवी आम आदमी के कवि रहे हैं (और अगर लोग उन्हें नहीं जानते और चेतन भगत को जानते हैं, तो यह उनकी बदनसीबी है और हमारे सामाजिक ढांचे का ऐब है). बहरहाल, जब गोंडवी जी की ये पंक्तियां पढ़ीं तो समझ में नहीं आईं:

लगी है होड़-सी देखो अमीरी औ’ ग़रीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है

अमीरी और गरीबी में भला कौन-सी होड़ है? और यह ‘गांधीवादी ढांचा’ क्या होता है? गांधीजी गए, आजादी मिल गई। अब जो भी बहस है, क्या वह महज औपचारिक है? आज के भारत में जहां मीडिया की बचकानी उत्तेजना-भक्ति, रेटकार्ड वाले अख़बार, खुलेआम अश्लील राजनीति, दक्षिणी फ़िल्मों के बेवकूफाना रीमेक, किसानों की आत्महत्या, हनी सिंह और सनी लिओनी जैसे उम्दा आइकॉनों की अनुगामी हमारी स्मार्ट-फ़ोन में डूबी हुई, फ़ेसबुक और व्हाट्सऐप के ज़रिए फ़लसफ़ों, साहित्य, इतिहास और समाजशास्त्र की गंगा में छलांगें मारती हुई हमारी युवा पीढ़ी में क्या गांधीवाद का और गांधी का कहीं कोई स्थान है?

‘गांधी’ एक बहुत बड़ा ब्रैंड हैं। उनके नाम पर चुनाव जीते जा सकते हैं। पहले यह ब्रैंड कांग्रेस को विरासत में मिला-सा लगता था, आज मोदी जी ने भी बड़ी कुशलता से इसे अपना बना लिया है। इस ब्रैंड ने बड़ी-बड़ी हिट फिल्में भी दीं। इसी ब्रैंड की प्रतिक्रियावश हमारे देश में क्रांतिकारी सोच फल-फूल रही है। कई लोग गांधी को गोडसे की आंखों से जानते हैं, कुछ राजू हिरानी की। कुछ लोग कहते हैं कि उनकी वजह से देश का बंटवारा हुआ, कोई निर्वस्त्रता के साथ उनके प्रयोग की बात करते नहीं थकता।

लोग गांधी की अहिंसावादी लड़ाई के मुरीद हैं, वहीं ये कहने वाले भी हैं कि उनके किए आजादी नहीं मिलती और लड़ कर मिलती तो आज हमारा समाज नपुंसक नहीं होता। यानी मोहनदास करमचंद गांधी आज भी हमारे बीच उपस्थित हैं और किसी-न-किसी रूप में बहुधा हम उनसे टकराते रहते हैं।

अल्बर्ट आइंस्टीन का भी एक हवाला पढ़ने में आया था जहां उन्होंने कहा कि ‘एक दिन आने वाली पीढ़ी इस बात पर विश्वास नहीं कर पाएगी कि हाड़-मांस का एक ऐसा आदमी दुनिया में जन्मा था।’ उस जमाने में लड़ाई सिर्फ अंग्रेज़ों से नहीं थी- जात-पात के मुद्दे बहुत बड़े थे और नारी के घर और समाज में स्थान का सवाल भी था। कितनी ही कुरीतियां थीं, कितनी नपुंसकता थी, कुरूपता थी। सदियों पुरानी परंपराओं को चुनौती देना था। भारत को नए विश्व के साथ, नई सोच के साथ मुख्य धारा में लाना था। इसके अलावा शिक्षा, स्वच्छता, आम आदमी में आत्मविश्वास जगाना, पर्यावरण, कला का जीवन और समाज में स्थान, नैतिकता और चारित्रिक दृढ़ता की आवश्यकता पर बल, सांप्रदायिक एकता, सभी का आर्थिक विकास… व्यक्तिगत और राष्ट्रीय स्तर पर शायद ही कोई आयाम होगा जिस पर गांधीजी ने दखल नहीं रखा।

लेकिन उनके होते देश कैसे सांप्रदायिक हो गया? हिंदू-मुस्लिम कितनी ही सदियों से घुल-मिल कर रह रहे थे। स्वतंत्रता की पहली लड़ाई बहादुरशाह ज़फ़र के नेतृत्व में लक्ष्मीबाई-तात्या टोपे और सभी ने एक साथ लड़ी थी। दोनों संप्रदायों ने कंधे से कंधा मिला कर स्वतंत्रता की लड़ाई में काम किया था। क्या जिन्ना-नेहरू के मतभेदों के चलते देश के टुकड़े हुए? क्या गांधीजी कहीं असफ़ल रहे? क्या वे कहीं गलत रहे? क्या आज़ादी के पहले कांग्रेस दल के चुनावों में डेमोक्रेसी को दरकिनार किया गया था? क्या अपनी डॉक्टर और नाती की पत्नी के साथ निर्वस्त्र सोने के प्रयोग की बात आम किया जाना एक मासूम समाज की मनःस्थिति के साथ खिलवाड़ था? क्या एक नेता को इंसान होने का हक नहीं है?

जो भी हो, हमारी धरती पर इतना बड़ा इंसान न हुआ है, न शायद कभी हो पाएगा। लिखा हुआ और आज लिखा जा रहा इतिहास थोड़ा मुड़ा-तुड़ा या एकपक्षीय लगता है। मीडिया में गांधी को नमन करने का रिवाज है, ड्राइंग रूम में उनकी बुराई करने का। अब मैं उनकी बातें दूसरों से सुन कर तंग आ गया हूं। सुलझे हुए महात्माओं की तरह वे सबकुछ जानते नहीं थे, बल्कि ढूंढ रहे थे और समझने की कोशिश कर रहे थे। इसीलिए उन्होंने अपनी जीवनी का नाम ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ (My Experiments with the Truth) रखा। यह किताब मैंने खरीदी कई बार है, पर पूरी कभी नहीं पढ़ी — तो (शर्मिंदगी भरा) सच यह है भई कि सभी की तरह गांधीजी के बारे में मैं बातें तो बहुत करता हूं, पर (सभी की तरह) उन्हें जानता नहीं हूं!

क्या आप उन्हें जानते हैं?

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