Sanjeev Sathe
IndiaMag
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8 min readApr 18, 2017

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विस्थापन… जिजीविषा… और एक कथा ……..

कुछ दिनों पहले एक नए शहर को पहली बार देखने का मौका मिला — चेन्नई। वैसे तो मैं काम के सिलसिले में भटकता ही रहता हूँ लेकिन चेन्नई में कोई ऐसा मिला, जिसने मुझे विस्थापन के मुद्दे पर नए सिरे से सोचने की दिशा दी।
चेन्नई में एक सैलून में दाढ़ी बनाने गया, तो नाई ने मुझे पक्के साउथ इंडियन लहज़े से अंग्रेज़ी में पूछा, ‘वाट डू यु वांट ? शेव, हैय्यरकट् , मस्साज?’
मैंने कहा ‘शेव’
वह मेरी दाढ़ी बनाने लगा और तभी उसका फ़ोन आ गया। वह फ़ोन पर एकदम बांग्ला में बोलने लगा।
उसका फ़ोन ख़त्म होते ही मैंने पूछा, ‘ फ्रॉम बंगाल ?’
‘नहीं सर, त्रिपुरा ’ वह हिन्दी पर उतर आया।
मैंने उस से कहा, ‘इतना मद्रासी टोन में क्यों बोलता है फिर ? तमिल भी ठीक से बोलता है ?’
वह बोला, ‘बहुत दिनों बाद हिन्दी बोला सर ! यहाँ तमिल नहीं बोलो, तो लोग अलग नज़र से देखतें हैं। इन लोगों में इन्हीं जैसा होकर रहना पड़ता है।’

मैं चुप हो गया। मुझे बहुत पहले पढ़ी हुई एक किताब याद आ गई।

जॉन स्टीनबेक की एक मास्टरपीस किताब है ‘Grapes of Wrath’

यह किताब मेरे मन में चिरस्थाई जगह बना गई । आगे लिखे शब्द इस किताब की समीक्षा करने का प्रयास नहीं । समीक्षा में मेरी कोई ख़ास श्रद्धा भी नहीं है। किसी ईमारत की ईंट-ईंट अलग करने से उसका सौन्दर्य लोगों तक पहुँचाया जा सकता है, ऐसा मैं कदापि नहीं मानता। कथा के सौन्दर्य की अनुभूति निर्भर करती है उन बिम्बों पर; जो किताब पढ़कर पाठक के मन में बनते हैं। यद्यपि, पढ़ते समय पाठक की मनस्थिति कैसी है, यह भी इस बिम्ब को प्रभावित करता है। और कई बार पाठक की मनःस्थिति लेखक की मनःस्थिति से कहाँ साम्य स्थापित कर लेती है वह भी उस किताब के बिम्ब को विविध आयाम देती है जो पढ़ने की अनुभूति को नई उँचाइयों तक ले जाती है। सबसे मुश्किल है, किसी दूसरे इंसान की अनुभूतियोंं को महसूस करना। किसी मानक का प्रयोग करते हुए अलग अलग व्यक्तियों की सौन्दर्यानुभूति का परीक्षण और समीक्षा कर पाना तो अनुचित ही नहीं असंभव भी है। किसी किताब ने किसी भाषा को क्या दिया, यह सोचना तो पार्लियामेंट की बिल्डिंग बनने से देश को क्या फायदा हुआ, यह सोचने के बराबर है l

कहना बस इतना चाहता हूँ कि Grapes of Wrath के सौन्दर्य की समीक्षा करना इस लेख का उद्देश्य नहीं है, बस एक पृष्ठभूमि बनाना चाहता हूँ, जिस से पाठक इस किताब का आनंद ले सकें।

प्रतीकात्मक दृष्टि से देखा जाए, तो यह किताब एक अमरीकी किसान परिवार की कहानी है। किसान परिवार, जो १९३० के दशक में खेती का यांत्रिकीकरण होने की वजह से अपनी पट्टे वाली उपजाऊ ज़मीन छोड़कर दूर कैलिफ़ोर्निया में मजदूरी की तलाश में जाने को मजबूर हो जाता है। इस कालखंड में, कई अमरीकी परिवार विस्थापन की इस त्रासदी से गुज़रे और बड़ी मात्रा में एरिज़ोना और टेक्सास के किसान घर से बेघर हो गए । कमोबेश आज भी अपने देश में हम इसे देख सकते हैं ।चेन्नई में मिले त्रिपुरा वाले मित्र की तरह कई लोग रोज़ ब रोज़ इसी त्रासदी से गुज़रते हैं । बहरहाल, एक प्रतीकात्मक कहानी की ही तरह इस किताब को देखना उचित नहीं, ऐसा मुझे लगता है। यह किताब हर उस विस्थापित इंसान, उसके सुख दुख, उसकी जिजीविषा की कहानी है, जिसे या तो भूख ने, या किसी आक्रमण ने अपने वतन से उखाड़कर कहीं दूर, अज्ञात प्रदेश में फेंक दिया है।

स्टीनबेक ने इस उपन्यास का ताना बाना बड़ी कोमलता से बुना है, फिर भी वह बिलकुल निष्पक्ष है। मानो अमरीका के अलग अलग कोनों के आकाश से कोई इन बेघर किसानों के काफिलों को देख रहा हो। वे काफिले, उनके रात के जनाकीर्ण पड़ाव, उनके झगड़े, उनके बीच अंकुरित होने वाला प्रेम, उनके सुख-दुःख, क्षोभ, टूटकर बिखरना, फिर उठकर खड़ा होना, और धीरे धीरे एक विशाल, वैश्विक दुःख से जुड़ना।

किसी जगह पर लेखक इनकी असहायता को चित्रित करता है, लेकिन तुरंत ही, इस असहायता के रहते हुए भी जूझते रहने की प्रवृत्ति को भी रेखांकित करता है। लेखक की शैली कुछ ऐसी है कि एक खंड में वह एक micro-view चित्रित करता है, और उसके बाद वाले खंड में एक macro-view। ऐसे micro और macro views की बुनावट से बंधे ‘ जोड ’ परिवार की कहानी है ‘Grapes of Wrath’। परिस्थितियों द्वारा कुचले जाते रहने पर भी उस से जूझकर खड़ा होने की अथक कोशिश में रहनेवाले अमर मानवीय आशावाद की कहानी। एक दूसरे को संभालते हुए, जीवित रहने की कोशिश करनेवाले ख़ालिस इंसानों की कथा है यह। इसमें दांव पर लगी हुई चीज़ें इतनी भव्यतर है, कि पाठक व्याकुल हो उठता है, पूरी तरह अभिभूत हो जाता है! कहानी की इमारत का ज़र्रा-ज़र्रा स्टीनबेक ने बहुत ही जीवंत कर रखा है। बड़े बड़े वाक्य और आतिशबाज़ भाषा किताब में कहीं नज़र नहीं आती। किताब की शुरुआत में, ‘ टॉम जोड ’ और एक कछुए के बीच हुए प्रसंग का वर्णन तो बड़ा ही रोचक है। कछुए और टॉम की एक-एक गतिविधि को लेखक ने ब्योरेवार लिखा है, लेकिन वह कहीं भी उबाऊ नहीं होती। यही ब्योरेवार, अचूक, फ़िर भी दिलचस्प लेखनशैली लेखक ने मानवीय भावनाओं का वर्णन करने में भी कायम रखी है।

मनुष्य समूह के दो स्तर होते है, ‘ मैं ’ और ‘ हम ’। ये दोनों एक दूसरे से कहाँ, और कितनी सघनता के साथ जुड़े होंगे, यह बताना बहुत ही मुश्किल है। एरिस्टोटल की उक्ति अनुसार,
‘It is difficult to be a man and a citizen at the same time.’

मेरा मानना यह है, कि कोई भी मैग्नम ओपस कलाकृति, इस ‘मैं’ और ‘हम’ के बीच के संघर्ष की ही कहानी होती है। इंसान का अंतिम यश, ‘मैं’ बने रहने में है, या अंततः इस ‘मैं’ को ‘हम’ में विलीन करने में है, इस की तलाश हर कोई ज़िन्दगी भर करता रहता है।

समाज के विचारक ‘हम ‘ के कई कृत्रिम चित्र अपनी-अपनी कल्पना (और कई बार स्वार्थ ) के अनुसार बनाते है, और अंततः यह सारे चित्र ‘मैं’ (यानि स्वार्थ) के संभ्रम में धुल जाते हैं। Cannery Rows, In Dubious Battle इन किताबों में भी स्टीनबेक ने इन्ही अंतर्विरोधों की चर्चा की है। ‘Grapes of Wrath’ में स्टीनबेक इसका विमर्श करने के लिए टॉम जोड, और उसकी माँ’ को माध्यम बनाते हैं। इस तलाश के अंत में भी, कोई शाश्वत सत्य नहीं, बल्कि परस्पर विरोधी, वेदनामय, फिर भी सुन्दर अनुभूतियां हाथ आएँगी, इस बात का पता शायद स्टीनबेक को भी उपन्यास लिखते समय नहीं होगा ! टॉम चार साल की जेल काट कर जब घर लौटता है, तो पाता है, कि घर के सारे लोग सामान बांधकर कैलिफ़ोर्निया जाने की तैयारी में हैं। यहाँ तक टॉम के मन में कहीं भी ‘हम ’ का विचार नहीं है। जब रास्ते में वह ऐसे हजारों परिवारों को देखता है जो अपने सुखी जीवन का सपना साकार करने के लिए इस अज्ञात प्रदेश की कठिन यात्रा कर रहे हैं और इस यात्रा के दौरान टूट रहे हैं, जुड़ रहे हैं, बिखर रहे हैं, चल रहे हैं, तब उसके अन्दर का ‘मैं’ ‘ सोचने लगता है।

उपन्यास के आखिरी पन्नों में, ऐसे परिवारों को संगठित करके परिस्थितियों के साथ जूझने के लिए वह घर छोड़कर निकल जाता है। ‘माँ’ के मन में कहीं ‘मैं’ नहीं दिखता। बस एक प्रसंग को छोड़कर, जब वह अपने मायके से मिली एक संदूक को देखती है, और उसका त्याग करने की कल्पना से विह्वल हो उठती है। मगर फिर भी वह उस संदूक को वही छोड़ देती है, और फिर ‘माँ’ बन जाती है। पूरी यात्रा में वही एक है, जो परिवार को बांधे रखने की हर मुमकिन (और कुछ नामुमकिन भी) कोशिशें करती ही रहती है। उसके सास, ससुर की मृत्यु हो जाती है, एक मनोरुग्ण बेटा किसी नदी के किनारे रहने का फैसला कर लेता है, दामाद गर्भवती बेटी को छोड़कर भाग जाता है, देवर पागल हो जाता है, छोटा बेटा घरजमाई बनने का फैसला करता है, खाना नहीं मिलता, पैसा ख़त्म होने के कारण पति हौसला खो बैठता है, और टॉम भी निकल जाता है। बाढ़, रोजगार के सारे साधन भी बहा ले जाती है। मगर ‘ माँ ‘ जो एक सामान्य गृहिणी है, वह ‘ हम ’, यानि ‘ we are fambly (family का स्लैंग उच्चारण)’ इस एक विचार को आत्मसात किये कैसे इन सारे प्रसंगों से गुजरती है, यह पढ़कर पाठक अवाक हो जाता है।

इस कथा में कई मील के पत्थर हैं। जब-जब ख़ुशी होती है, तब-तब वह क्षण भन्गुर है, इस बात को स्टीनबेक हमें भूलने नहीं देते। ज़िन्दगी, इस उपन्यास के सारे पात्रों के लिए कई मर्तबा नरक से बदतर हो जाती है, लेकिन ज़िन्दगी से घृणा न करते हुए, वे उसे बेहतर बनाने का अथक प्रयास करते रहते हैं। जैसे ही मौका मिले, वे गाते हैं, नाचते हैं, गिरते हुए लोगों की सहारा देते हैं, कभी खुद भी टूटकर बिखर जाते हैं, लेकिन अपने आप को फिर जोड़कर खड़े भी हो जाते हैं, जिंदगी को फिर से जीने लायक बनाने के लिए।

इस उपन्यास का मेरा पसंदीदा हिस्सा आप की नज़र करता हूँ, और यह लेख समाप्त करता हूँ।

“ … and always, if he could have little money, a man could get drunk. The hard edges gone and the warmth. then there was no loneliness, for a man could people his brain with friends, and he could find his enemies and destroy them. sitting in a ditch, the earth grow soft under him. Failure dulled and there was no threat. And hunger did not skulk about, but the world was soft and easy, and a man could reach a place he started for. The star came down wonderfully close and the sky was soft. Death was a friend, and sleep was death’s brother. The old times came back, a girl with pretty feet, who danced one time at home- a horse- a long time ago. A horse and a saddle. And the leather was carved. When was that? Ought to find a girl to talk to. that’s nice. Might lay her with too. But warm here. And stars down so close, a sadness and pleasure so closed together, really the same thing. Like to stay drunk all the time. Who says its bad? Who dares says its bad? Preachers- but they got their own kinda drunkenness. Thin, barren woman, they are too miserable to know. Reformers- but they don’t hit deep into the living to know. no-the stars are close and dear and I have joined the brotherhood of the worlds. And everything is holy-everything, even me.”

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Sanjeev Sathe
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Explorer of life, a small time writer,nearly ex- cricketer, and a salesman by profession. Intellectually Backward. :) Cricket and Reading is my lifeblood.