शहर-ए-मौसिकी: ग्वालियर …

Shraddha Upadhyay
IndiaMag
Published in
4 min readJan 14, 2017

साहित्य की बात हो और संगीत का ज़िक्र न छिड़े, ऐसा होना कुछ मुश्किल है। साहित्य को जीवंत करने में संगीत का बहुत बड़ा योगदान है। एक ही शब्द को अलग-अलग तरह से गाने से उसमें हर बार नए अर्थ भर जाते हैं। संगीत और साहित्य का ऐसा रिश्ता है जैसा वर्क और मिठाई का। सुरों के माध्यम से टेढ़ी-मेढ़ी बातें आसानी से समझ आ जाती हैं। कई बार निःशब्द धुनों में भी साहित्य होता है। कई बार कोरे शब्दों से भी धुनें निकलती हैं। कई बार सुर भाव जगाते हैं, कई बार भाव सुर बन जाते हैं। इस लेख में हम संगीत के एक ऐसे ही संस्थान की बात करते हैं, जिसने हमें संगीत की दिव्यता और विशालता से परिचित करवाया।

बात जब संगीत की होती है तो हमारे मन में सहसा ही संगीत सम्राट तानसेन का नाम आ जाता है। वही तानसेन जिनके गायन से दीप जलने लगते थे, जिनको अपने दरबार में लाने के लिए अकबर ने युद्ध लड़ा था, ये तब की बात है जब संगीत डिमांड-सप्लाई के ग्राफ में सीमित नहीं था और लफ़्ज़ों का कारोबार नहीं होता था। यूँ तो संगीत को उन्होंने कई श्रृंगारों से सजाया पर उनका एक बहुत बड़ा योगदान एक शहर के नाम है, एक शहर जिसको संगीत ने एक पहचान पहनाई और जिसने संगीत को कई रत्न-आभूषण दिए। आज उस शहर को कई बार संगीत की गंगोत्री कहा जाता है। मानो उसकी रगों में सुर दौड़ते हों। ग्वालियर के जैसे हर व्यंजन में भी सुर है, हर अक्षर अलग-अलग रागों में गूँजता है।

ग्वालियर महानगर की महत्ता का बोझ नहीं चाहता, वो इतना बड़ा नहीं होता कि लोगों के सिर पर टूटे। संगीत के कई महान कलाकारों को जन्म देने वाले इस नगर ने, उन्हें कभी सीमित नहीं किया। शहर बस इमारतें तो नहीं होते, हर शहर अपने इतिहास और संस्कृति का बयान होता है। यहाँ का हर कलाकार इस शहर का सांस्कृतिक एम्बेसडर है। छोटे-बड़े शहर की कश्मकश में फँसा ग्वालियर सरकारी किताबों में स्मार्ट हो रहा है। कुछ पुरानी स्मृतियों को सहेजता और कुछ नए ख़्वाबों के बीच में कैद ग्वालियर जानता है कि मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता। और अपनी अपूर्णताओं से परिपूर्ण ये शहर अपनी सुरीली विरासतों को बड़े जतनों से सँवार रहा है।

हर साल जाड़ों में ये शहर अपने उस मकीं का अभिवादन करता है जिसके ज़िक्र से ग्वालियर अमर हो गया। दिसंबर के महीने में तानसेन संगीत समारोह आयोजित किया जाता है और ग्वालियर जैसे एक तरन्नुम में बंध जाता है। देश-विदेश से कलाकारों को बुलाया जाता है। संगीतज्ञों और संगीत-प्रेमियों का जमावड़ा लग जाता है। हर कलाकर इसी उम्मीद से गाता है कि अपने उस्ताद मुहम्मद गौस के पास आराम फरमा रहे मियाँ के चरणों में उनके श्रद्धा पुष्प अर्पित हो जाएँ। एक सभा ग्वालियर से कुछ कि.मी. दूर तानसेन की जन्मस्थली बेहट पर होती है। यहीं वो शिवलिंग स्थित है हो तानसेन के अलाप से टेढ़ा हो गया था।

तानसेन की समाधि के पास एक इमली का पेड़ हुआ करता था। मान्यता कुछ ऐसी थी कि उस पेड़ की पत्तियाँ खाकर गला सुरीला हो जाता है, लोगों की हसरतों के बोझ को न सह पाने के कारण उसने दम तोड़ दिया। और उसकी उम्र से लंबी उसकी याद हो गई। तानसेन यूँ तो उम्रभर अकबर के दरबार की शोभा रहे पर मरणोपरांत वे अपनी अंतिम इच्छा के अनुसार अपने आध्यात्मिक गुरु सूफ़ी संत मुहम्मद गौस के पास दफ़न कर दिए गए। जन्मभूमि से इंसान कभी अलग नहीं होता, उसका मोह और ऋण कभी ख़त्म नहीं होता। तानसेन ने संगीत की दीक्षा वृन्दावन के स्वामी हरिदास से प्राप्त की थी। दो अलग-अलग आध्यात्मिक पंथों का प्रतिनिधित्व करते तानसेन धार्मिक सौहार्द्र का भी एक प्रतीक हैं।

तानसेन की ये नगरी कुछ कलाकारों के लिए घर है, कुछ के लिए घराना, कुछ के लिए गुरुकुल और कुछ के लिए तीर्थस्थान। ग्वालियर के सुरीले इतिहास में राजा मान सिंह और पीर बक्श से लेकर कृष्णराव शंकर पण्डित, शरतचंद्र अरोलकर, पण्डित भीमसेन जोशी, उस्ताद अमजद अली खां इत्यादि सम्मिलित हैं। यहाँ का ग्वालियर घराना हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के सबसे पुराने घरानों में से एक है और गायन में विशुद्धि के लिए जाना जाता है। संगीत के जगत में ग्वालियर की ख्याति अद्वितीय है।

ग्वालियर अब अपने फैलाव तक सीमित नहीं रहा। वो संगीत की ही तरह हर सीमा लाँघता सर्वव्यापी हो गया है। ढूँढेंगे तो कहीं भी मिल जाएगा, हिन्दुस्तान के दिल में, किसी के साज़ में, किसी की आवाज़ में, किसी की ग़ज़ल में, और इस शहर के अनगिनत एम्बेसडरों में। अपने मुफ़स्सलों से मुहब्बत कीजिए, हसरतों के बोझ तले दबे, महानता की दौड़ में भागते महानगर खोखले हो गए हैं। समय मिले तो एक बार कोई ध्रुपद या राग मियाँ की मल्हार या ग्वालियर घराने की कोई बंदिश सुन लीजिएगा, मेरा लिखना सफल हो जाएगा।

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