हरामखोर :

Shubham Dixit
IndiaMag
Published in
4 min readFeb 13, 2017

फ़िल्में समाज का दर्पण होती हैं ये तो हमेशा से ही कहा-सुना जाता रहा है पर जब-जब फ़िल्मों ने असल मायने में समाज का दर्पण बनने की कोशिश की तब-तब निवेशकों को मुँह की खानी पड़ी है । इस फेहरिस्त में वाटर(2005), सिन्स(2005), फायर(1996) और भी जाने कितनी ही फिल्में हैं जो या तो रिलीज़ ही नहीं हुईं या उनको लंबी चौड़ी काँट-छाँट के बाद बमुश्किल यू/ए सर्टिफिकेट दे दिया गया । हरामखोर भी कुछ इसी तरह रिलीज़ हुई । इस फिल्म को श्वेता त्रिपाठी की पहली फिल्म कहा जा रहा है, सच भी है । पर सेंसर बोर्ड का सर्टिफिकेट लेते-लेते इतनी देर हो गई कि नीरज घयवान के निर्देशन में श्वेता त्रिपाठी की इसके बाद बनी फिल्म ‘मसान’ 2015 में ही रिलीज़ हो गई और श्लोक शर्मा इंतज़ार ही करते रह गए । जबकि मज़ेदार बात ये है कि इस फिल्म की शूटिंग 2015 में ही पूरी हो गई थी । यहाँ पर बताता चलूँ कि हरामखोर की तरह एक फिल्म पेड्लर्स भी है जो 2012 से अपने रिलीज़ की बाट जोह रही है ।

हरामखोर के ट्रेलर ने शुरू में तो कुछ हद तक निराश ही किया पर क्योंकि श्लोक शर्मा के काम को पहली बार बॉम्बे मिरर में देखा था तो विश्वास था कि फिल्म कुछ तो खास होगी ही । दक्षिण भारत में रहने का एक नुकसान ये भी है कि छोटे बजट की फिल्में यहाँ तक पहुँच ही नहीं पाती हैं सो कल जैसे-तैसे करके फिल्म देख पाया, पर फिल्म ने जरा भी निराश नहीं किया । अब क्योंकि फिल्म को बने हुए काफी वक्त बीत चुका था सो इसके बारे में काफी कुछ तो पहले से भी पता ही था, जिसने इसे देखने कि ललक को और बढ़ाया ही ।

फिल्म में कई पहलू एक साथ इस तरह गुंथें हैं जो दर्शक को कहीं पर भी कुर्सी से उठने का मौका नहीं देते । एक लव स्टोरी है जो तमाम बॉलीवुड की चमक दमक भरी स्टोरियों से अलहदा है, इसका हीरो श्याम टेकचंद ( नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी) किसी महंगी गाड़ी पर चलने वाला सपनों का राजकुमार नहीं है बल्कि साइकिल पर चलने वाला एक शादीशुदा आदमी है । और हिरोइन संध्या (श्वेता त्रिपाठी) लूना पर चलने वाली 15 साल की लड़की है जिसने रूमानियत की दुनिया में बस कदम रखा भर ही है । श्याम की क्लास में संध्या भी पढ़ती है । कमल, शक्तिमान, मिंटू के साथ संध्या भी श्याम के घर ट्यूशन पढ़ने भी जाती है, और जिस पर श्याम की खास नजर है, या कहें तो वो ऐन-केन-प्रकारेण उसे भोग लेना चाहता है और अपने मनसूबों में कामयाब भी होता है । घर में बीवी के होने के बावजूद श्याम नाबालिग संध्या के साथ संबंध बनाता है । फिल्म में संध्या और टेकचंद को साथ देखने में मन कुछ अचकचाता तो है पर ऐसा भी नहीं है कि ये फिल्म कोई अनोखा राग अलापती है, इसी पृष्ठभूमि से जुड़ी कई फिल्में पहले भी आ चुकी हैं अब चाहें वो ‘फुकरे’ का लाली हो जो मैडम की हर छोटी मोटी बात को उनका खुद के लिए प्यार समझ बैठता है या ‘मैं हूँ ना’ के मेजर राम प्रसाद जिन्हें हर मर्तबा टीचर उनके लिए गाना गाती दिखाई देती हैं । ऐसे दृश्यों ने हमें खूब हँसाया, लेकिन वहाँ पर ये विषय गौण ही रहा था, इसलिए हम उन्हें आसानी से हज़म कर गए, पर यहाँ फिल्म की सेंट्रल थीम यही है शायद इसीलिए इसे पचाने में सेंसर बोर्ड को भी थोड़ा वक्त लग गया । टीचर के प्रति स्टूडेंस का झुकाव या आकर्षित होना स्वाभाविक ही है पर उसमें टीचर की ज़िम्मेदारी पर फिल्म गहरा सवाल उठाती है । एक किशोर मन की ऊहापोह और जल्द से जल्द सब जी लेने की चाह को फिल्म काफी संजीदगी से उकेरती है । हम कितनी ही नाक भौं क्यूँ न सिकोड़ लें पर इस तरह के किस्सों से हमारा समाज अटा पड़ा है । एक ओर आप ये सोच सकते हैं कि एक मास्टर और स्टूडेंट (जो अडल्ट नहीं है) के बीच में वो सब कुछ क्यूँ नहीं हो सकता ? तब जबकि स्टूडेंट की मर्ज़ी हो । मगर जब आप उस सीक्वेंस को देखेंगे तो आपको सारे जवाब खुद ही मिल जाएँगे । वहीं कमल भी संध्या से प्यार करने लगता है जो कहानी का एक छोटा सा लव ट्रेंगल भी है और संध्या को पाने के लिए कमल द्वारा किए गए सारे जतन हँसने का अच्छा मौका देते हैं ।

फिल्म में नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने वैसा ही काम किया है जैसा वो हमेशा करते हैं । फिल्म शुरू होते ही कम से कम 15-20 साल पीछे, स्कूल के दिनों में ले जाती है जहाँ लड़की के मुस्कुरा कर देख लेने भर से उसे पूरे ग्रुप में सर्व सहमति से भाभी घोषित कर दिया जाना, या ट्यूशन में मुर्गा बने लड़के, या फिर मास्टर को अपनी बीवी से झगड़ा करते हुए छुपकर देखते बच्चे, या फिर कि मास्टर की साइकिल की हवा निकालते बच्चे बचपन की यादों से धूल की चादर उतारने का अच्छा मौका देते हैं । फिल्म के लिए चुनी लोकेशंस हों या कपड़े पहने का सलीका या फिर सरसों का तेल चुपड़े बाल हर जगह बारीक से बारीक बात का ध्यान रखा गया है । यही वज़ह है कि फिल्म की कहानी कहीं से भी बाहरी दुनिया की नहीं लगती है। और दर्शक आसानी से इस फिल्म से खुद को कनेक्ट कर पाते हैं। एक 15 साल की लड़की के मन का द्वंद और वासना लोलुप अधेड़ की मक्कारी समझने में फिल्म काफी मदद करती है । फिल्म में सारे सीन्स का बैकग्राउंड एकदम नॉर्मल है जो इसे सबसे ख़ास बनाते हैं और यही सारी वज़हें हैं जो हरामखोर को एक ‘आपत्तिजनक’ टाइटल के बावजूद देखने लायक फ़िल्म बनाती हैं ।

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