हिन्दी आजकल

Manas Mishra
IndiaMag
Published in
7 min readMar 29, 2017

आपका जो चाल-चलन अपनी भाषा के लिये होता है, उससे आप और आपकी समझ के चाल-चलन का पता चलता है। एक पूरा युग बीत गया यह बात करते कि हिन्दी का भविष्य क्या है आधुनिक समाज और उस परिप्रेक्ष्य में। हवादार कमरों और चाय की चुस्कियों के बीच फैली फिक्र यह थी कि कैसे हिन्दी को आम जनमानस में लोकप्रिय बनाया जाए, कैसे रोजगार की भाषा बनाया जाये और कैसे उस स्तर पर ले जाया जा सके जहाँ उसे होना चाहिए। कहाँ होना चाहिए, वह उन्ही हवादार कमरों और बहसों के बीच निर्धारित हुआ।

विडम्बना यह रही कि आपस में भरपूर गाली-गलौज के बाद जो असहमति बनी उसमे हिन्दी को वहाँ पहुँचा देने की बात हुई जहाँ वह प्रबल असुरक्षा की भावना का शिकार हो गयी। यह तो पुरानी बात हो गयी, गए दिनों की। हालाकिं कुछ लोग तब भी अपने सनातन तरीकों से काम में लगे रहे। प्रयास चलते रहे कि अँग्रेजी बोलें तो अँग्रेजी सीख कर बोलें और हिन्दी बोलें तो हिन्दी भी सीख कर बोलें। बहुत सारे शब्दों को अँग्रेजी से हिन्दी में लाने का काम किया गया। यदि इंडेक्स को अनुक्रमाणिका, बेस को आधार और नक़्शे को मानचित्र कहा गया तो हिन्दी को सुचारू बनाने के लिए ही कहा गया। यह मेहनत की गयी इसीलिए कि हिन्दी के पास भी अपने तकनीकी शब्द रहें। और हम हिन्दी बोलते या प्रयोग करते समय अँग्रेजी के शब्दों में न उलझें।

और आज कहीं और न देख कर अपने आप को ही देखें। गलत अँग्रेजी बोलना यदि अँग्रेजों के सामने मानहानि है तो किसी भारतीय के सामने बोलना सामाजिक अपराध। हिन्दी पर आयें तो या तो यह एक मजाक है और या फिर अँग्रेजी के शब्दों के बीच से झाँकती एक भाषा। अँग्रेजी का शब्द ‘हॉस्पिटल’ यदि हिन्दी में ‘अस्पताल’ है तो उसे अस्पताल बनाया गया है। यदि हिन्दी में बात करते समय आप ‘दिल्ली’ से नहीं होकर ‘डेल्ही’ से हैं तो आपके पूर्वज शायद इंग्लैण्ड से रहे होंगे। अरबी से आये ‘फ़स्ल’ को अगर ‘फ़सल’ कहा गया तो अरबी को सम्मान देते हुए हिन्दी में शामिल करने की यह एक लचीली प्रक्रिया थी। यदि हम संस्कृत के ‘जन्म’ को ‘जनम’ बनाकर हिन्दी में ले सकते हैं तो अरबी से क्यों नहीं? हिन्दी भाषा को बनाने में न कभी भेदभाव किया गया और न ही कभी किसी भाषा के आधिपत्य को स्वीकार किया गया। यह एक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया थी जिसमे एक भाषा दूसरी भाषा के शब्दों को गोद ले रही थी और उन्हें अपने घर के अधिकार दे रही थी अपनी शर्तों पर।

फ़सल को फ़सल ही बोलना है क्योंकि अरबी नहीं आती पर अस्पताल को हॉस्पिटल बोलना है क्योंकि अँग्रेजी आती है। हिन्दी के तो शब्द दिमाग में आते नहीं क्योंकि कभी पढ़ते नहीं और व्यवहारिक नहीं हैं और क्योंकि ये दोगलेपन का एक बड़ा अच्छा उदाहरण है। अज्ञान अज्ञानी का दूर होता है, ज्ञानी का नहीं।

हिन्दी को हम गलत भी लिख देंगे तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता। अँग्रेजी तो लिखते ही आ रहे हैं गलत। फिर हिन्दी को एक नयी दिशा में ले जायेंगे जहाँ वह सब को समझ आ सके और उसे हिंग्लिश बना देंगे। भूमंडलीकरण के नाम पर अपनी बेशर्मी का तमाशा करेंगे।

हम मामा, चाचा, ताऊ सबको ‘अंकल’ बना देंगे और फिर अलग से समझायेंगे कि ये मेरी मदर के ब्रदर हैं या मेरे फादर के ब्रदर हैं। और हिन्दी के ‘अंकल’ अपने महलों में बैठ कर देश की राजनीती के ‘महाकाव्य’ कह रहे होंगे क्योंकि वह स्वयं को ही ‘मनु’ और ‘श्रध्दा’ दोनों समझेंगे। इस संसार के सारे अनुभव उन्होंने ही लिए बातें कर-कर के और अब शेष अनुभवहीन दुनिया कीड़े-मकोड़ों से ज्यादा और कुछ नहीं। ये ‘लेखक’ लिखने से ज़्यादा बोलने में विश्वास रखते हैं और एक बंद कमरे में ही बोल-बोल कर इस देश की धुरी बदल रहे हैं। इनके पास बहुत ‘मेधा’ है पर ये उसका प्रयोग नहीं कर रहे हैं। मैं भी गुरुदत्त बन सकता था पर फिर कभी।

और ‘मेधा’ की बात करें तो नए जमाने के ‘लेखक’ भी हैं। ये लेखक जो कुर्ता पहनते हैं और चश्मा लगाकर हिन्दी को आज के युवाओं में ‘पॉपुलर’ बनाने की बात करते हैं। ये ‘प्यार’, ‘इश्क़’ और ‘कॉफी’ की बातें करते भी हैं और लिखते भी हैं। होली हो या दीवाली, ‘रोमांस’ और ‘नॉस्टाल्जिया’ ही इनका त्योहार होता है। कभी-कभी ये ट्रेन या बस-स्टैंड पर मिलने वाली लड़की या किसी जोड़े या फिर भिखारियों की भी बातें कह देंगे। पर इससे आगे की कुछ बात करने पर आपको ‘ब्लॉक’ कर देते हैं। क्योंकि सहलाने के अतिरिक्त कोई भी काम इनके जीवन में नकारात्मकता लेकर आता है।

और हाँ, ‘वरिष्ठ लेखकों’ और ‘युवा लेखकों’ में एक और बड़ा ही अच्छा विरोधाभास देखने को मिलता है जब आता है ‘हिन्दी दिवस’। ‘वरिष्ठ लेखक’ के लिए आता है यह दिवस लेकर कुछ ‘सम्मान समारोह’ और ‘गोष्ठियाँ’। अपनी किसी एकमात्र मूल रचना का वार्षिक ब्याज लेने का दिन। ‘युवा लेखक’ के लिए आता है यह दिन व्यंग लिखने का क्योंकि उसे एक दिन हिन्दी के लिए समर्पित करना हास्य का विषय लगता है। और इसीलिए वह पूरे वर्ष में उसी एक दिन हिन्दी दिवस के आयोजन का मजाक उड़ाकर वापस अपने घोंसले में जाकर बैठ जाता है। (हालांकि वैलेंटाइन वाले दिन यही लोग एक कविता और एक फोटो के साथ फिर से दिखाई पड़तें हैं।)

‘वरिष्ठ लेखक’ फिर से लिखने के अतिरिक्त सब कुछ करने में लग जाते हैं। और ‘युवा लेखक’ तर्कहीन तुकबंदी वाली कवितायें लिख-लिख कर, ट्रेन-बस-कैफ़े में फैले ‘रोमांस’ को खरोंच-खरोंच कर कहानियों में चिपका-चिपका कर किताबों का विमोचन करते रहते हैं। फिर इन किताबों को साथ में लेकर वह अवसर खोजकर पढ़ कर सुनाने में और फिर फेसबुक पर सीधा प्रसारण कर उस पर मिली वाह-वाही पर अपने जीवन की सबसे बड़ी सफलता को ओढ़कर सो जाते हैं।

यदि आप इसे पढ़ रहें हैं तो यह अपने आप में मेरे लिए आश्चर्य है क्योंकि मैं न तो लेखक हूँ और न ही लोग मुझे जानते हैं। न मैं भाषण देने का काम करता हूँ और न ही मैं किसी को जानता हूँ। तो यदि आप उपरोक्त लेखकों की प्रजाति में शामिल हैं और फिर भी यह पढ़ रहे हैं तो मैं समझता हूँ कि यह लेख काफी लोगों तक पहुँच चुका है। हालाँकि उसकी संभावना बहुत ही कम है क्योंकि इस आपसी सौहार्द्य के माहौल में कोई भी किसी को नाराज़ नहीं करना चाहता। हर कोई लिखने वाले को वाह-वाह ही देना चाहता है। तो अगर आप लेखक नहीं हैं, तो फिर उस वाह-वाह वाली भीड़ का हिस्सा होंगे जिसे ‘हास्य’, ‘रोमांस’ और ‘दर्द’ के आगे कुछ नहीं पता।

वैसे भी आजकल बहुत सारी परिभाषायें टूट रही हैं। अब फेसबुक पर पढ़ने वाला पाठक, ट्विटर पर लिखने वाला लेखक होता है। काफ्का भले ज़िन्दगी भर लिख-लिख कर मर गया हो लेकिन आजकल लोग ब्लॉग लिखकर भी अपने नाम के आगे लेखक लिखने में पीछे नहीं हैं। और कुछ युगान्तकारी लोगों की तो एक पुस्तक भी प्रकाशित हो गयी है, जिसे वे अगर मर गए तो भी देवलोक में उसका प्रचार करने के लिए साथ में ले जाना नहीं भूलेंगे।

कल रात मैं भी जेब में मोबाईल फ़ोन रखते समय कैमरा बंद करना भूल गया। घर पहुँचने पर देखा तो जेब के अंदर की असाधारण दुनिया का एक घंटे का वीडियो बन चुका था। सोचता हूँ घर फ़ोन करके बता ही दूँ कि अब चिंता मत करो। इस घर के बेटे ने क्रांतिकारी चलचित्र बन लिया है।

ऐसी बातें करने का असल में कोई मतलब भी नहीं हैं क्योंकि इन बातों को सुन कर आने वाली प्रतिक्रियाओं का स्वाद मैं पहले भी चख चुका हूँ।

वरिष्ठ लेखक- “बेटा, तुम आजकल के बच्चों की यही समस्या है। जल्दीबाजी। अरे पढ़ो, पढ़ो और पढ़ते रहो। लिखने की मत सोचो। वो अलग बात है कि तुम्हारी उम्र में मैं अपने ज़िन्दगी की एकमात्र रचना लिखकर औरतों के पीछे भाग रहा था और आज भी उसी रचना की कमाई खा रहा हूँ। लिखने में मेरी कोई रूचि है नहीं और पढ़ने लायक अब कोई लिखता नहीं।”

युवा लेखक- “अबे, तुम पहले ये मैनेजमेंट को समझो। सोशल मीडिया के इंजीनियरिंग को समझो। कुरता पहनो, दाढ़ी बढ़ सके तो बढ़ा लो। रोमांस, नशे या दर्द पर कुछ लिखकर संडे को बांद्रा में जाकर पढ़ के अपना वीडियो बनवाओ। खुद से भी वीडियो बनवाओ और ये सब करके अपने फॉलोवर बढ़ाओ। तब फिर मेरे पास आना तो मैं बताऊँगा क्या करना होता है लेखक बनने के लिए।”

मुझे तो ऐसी कोई उम्मीद पहले भी नहीं थी क्योंकि आजकल तो लेखक के लिए लिखने से ज़्यादा उसे बोलना आना चाहिए। लिखना तो कभी-कभी ही होता है, बोलना तो रोज ही है कहीं न कहीं।

खैर, नास्त्रेदमस का नाम तो सुना ही होगा। अकबर इलाहाबादी का भी सुना ही होना चाहिए। इन दोनों में कोई समानता नहीं है। नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी घटना के होने के बाद पता चलती है, अकबर इलाहाबादी की भविष्यवाणी घटना के होने के पहले ही समझ में आ गयी थी और आज भी जब यह सब हो रहा है तो हम उनकी लिखी इन पंक्तियों को देख कर समझ सकते हैं कि उन्होंने क्या कहा था,

“हमारी इस्तलाहों से ज़बां नाआशना होगी, लुग़ाते-मग़रिबी बाज़ार की भाखा से जम होंगे।”

(हमारी ज़बान अपने खुद के दस्तावेजों से गायब रहेगी और हमारे शब्दकोश पश्चिमी भाषाओं के होंगे जो बाज़ार की भाषा से भरे पड़े होंगे।)

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