हिन्दी पखवाड़े का पाखण्ड

Manish Gupta
IndiaMag
Published in
3 min readSep 9, 2016

उर्फ़: Oh my! The Hindi day is here!

यकायक वातावरण में नयी हलचल है, दफ़्तरों में बंदनवार टाँगे जा रहे हैं, पान की पीकों के बीच से ‘गुड-mourning* मैडम!’ की जगह “नमश्कार” लाल बूँदड़ियों के साथ फूट रहा है और कार्यालयों की आबो-हवा को महका रहा है. (नमस्कार होता है). कर्तव्यनिष्ठ ‘हिन्दी ऑफिसरों’ ने नयी कमीज़ें ख़रीदी हैं. कंप्यूटर विभाग के कर्मचारी सुबह से शाम तक तकनीकी शब्दों का हिन्दी में तर्जुमा कर एक-एक मज़ाक पर बीसियों बार किलकारियाँ मार-मार के हँस रहे हैं.

नए फंड्स आये हैं.
आँखों में चमक,
दिमाग में नए ‘आइडियाज़’,
दिल में हिन्दी-प्रेम का जज़्बा लाये हैं.

मैनेजर के फ़ूफ़ाजी, जिन्होंने पिछले साल अपनी लिखी हुई एक किताब सभी, पढ़े-अनपढ़ रिश्तेदारों में बिना भेदभाव के बाँटी थी. हाँ वही फ़ूफ़ाजी जो अन्य लेखकों, मौजूदा सरकार और रिश्तेदारों की बे-वक़ूफ़ियों पर अनवरत टिप्पणी करते हैं; को कॉलिज के हिन्दी प्राध्यापक के साथ में ‘चीफ़-गेस्ट’ बना कर बुलाया गया है. समोसे, जलेबियाँ होंगी ही. एक-दम शादी का माहौल है — हिन्दी पखवाड़ा एक साल का इंतज़ार करवा कर आख़िरकार आ ही गया है.

हिन्दी अखबारों के सम्पादक जो साल भर अपने पत्रकारों को अंग्रेज़ी शब्द ‘ऐड’ करना, और ‘अनुभव’, ‘विस्तार’ जैसे अतिजटिल शब्दों को हटाने की सीख देते रहे हैं, भाषा पर संपादकीय लिख रहे हैं और भाषा के पतन का दर्द लोगों से ‘शेयर’ कर रहे हैं.

कुछ अभिनेता, जिनकी फ़िल्म रिलीज़ होने वाली है, फिर से Tweet करने की सोच रहे हैं कि लोगों को हिन्दी पखवाड़े की शुभकामनायें प्रेषित की जाएँ. और साथ ही किसी तरह से ये जोड़ा जाय कि वे सिर्फ़ हिन्दी में ही लिखी हुई स्क्रिप्ट पढ़ते हैं. जनता ‘हिन्दी में ही स्क्रिप्ट पढ़ने’ की प्रतापी भाषा-सेवा देख कर बौरा जायेगी और पिक्चर चल निकलेगी. उधर नेतागण — रामधारीसिंह दिनकर की कुछ पंक्तियों का रट्टा मार रहे हैं. दिए जाने वाले भाषण पक रहे हैं और सलाहकार सुधार कर रहे हैं कि सर बचपन से आपके अत्यंत प्रिय कवि जो हैं वो ‘मैथिलीशरण पन्त’ नहीं हैं — ‘मैथिलीशरण गुप्त’ हैं. अथवा ‘महादेवी शर्मा’ नहीं वर्मा हैं — हाँ सर, देखिये अपने देश की विविधता का कमाल — नॉन-ब्राह्मण भी कविता करते हैं..

ये तो तरंग में लिखा जा रहा है लेकिन ‘हिन्दी-पखवाड़े’, ‘हिन्दी-दिवस’ के पाखण्ड पर सिर्फ़ कोफ़्त, और कोफ़्त, और ज़्यादा कोफ़्त है. हम सबने ‘मदर्स डे’, ‘फादर्स डे’, ‘दोस्ती-दिवस’ के बेमानी होने पर व्हाट्सएप पर सैकड़ों लेख पढ़े हैं — वही सारी बातें यहाँ भी ‘अप्लाई’ होती हैं. इसका क्या औचित्य है — पता नहीं? तो क्या इसे नहीं मनाना चाहिए — पता नहीं। हाँ ‘उर्दू पखवाड़ा’ होता तो हम हिन्दी-भाषी अपनी ज़बान को उर्दू से समृद्ध करने की कोशिश करते और ‘संस्कृत पखवाड़े’ में प्रचलन से दूर होते चले शब्दों का शुमार करते। वैसे इंग्लैंड और अमेरिका में ‘English day’ नहीं मनाया जाता है, न ही चीन में ‘चायनीज़ डे’ (इसे तो पढ़ कर ही सोया सॉस की हुमक आती है:).

हिन्दी-कविता के यूट्यूब-चैनल की वजह से कई लोग ‘इंटरव्यू’ करना चाहते हैं. लेकिन साहबों आप फ़िल्मी सितारों की तस्वीरें डालेंगे — ‘निराला’ / ‘दिनकर’ की फ़ोटो छापने की आपकी हिम्मत नहीं होगी आपकी. और आयोजक महोदय, आप अपने आयोजन में अगर मुझे बुलाते हैं तो मैं बड़ी प्रसन्नता से चला आऊँगा लेकिन आपके दर्शकों को उस आयोजन के खोखला होने के बारे में ज़रूर बताउँगा। आप सोच लें — कुलपति जी को बाद में बुरा लग सकता है. हिन्दी को फूलमाला पहनाकर तेरहवीं के लड्डू उड़ाने की रवायतों को झेलना मेरे लिए कठिन है अभी. लेकिन, कई चतुर भाषा के पण्डे हैं हर जगह, उन्हें बुलाइये — आपके आयोजन की गूँज देर तक रहेगी उनके फ़ेसबुक पेज पर..

mourning*= दुःख मनाना

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