हिन्दी साहित्य और अनुवाद

Shubham Dixit
IndiaMag
Published in
4 min readApr 1, 2017

कार्यालयीय अनुवाद का साहित्य से मीलों का फासला है और इस बात का अंदाजा तब हुआ जब मैं ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के हिन्दी तथा अंग्रेजी दोनों अंक लेकर आया और उन्हें पढ़ा। पढ़ने पर महसूस हुआ कि दोनों पत्रिकाओं में विषय वस्तु के साथ-साथ शीर्षकों में भी काफी अंतर था। अनुवादक ने अनुवाद करते समय सम्पूर्ण वाक्य विन्यास ही बदल दिया था, इतना अंतर ? समझना मुश्किल हो रहा था कि कौन सा मूल है तथा कौन सा अनुवाद। कुछ एक और अनुवाद पढ़े तो लगा कि कई जगह अनुवाद मूल से अधिक सुंदर तथा सरल था। तब समझ आया कि कार्यालयीय अनुवाद तथा साहित्यिक अनुवाद में कितनी भिन्नता है। साहित्यिक अनुवाद जितना कलात्मक और सुंदर है, कार्यालयीय अनुवाद उतना ही नीरस और शुष्क और ऐसा शायद इस लिए भी है क्योंकि साहित्यिक अनुवाद में शब्दों की सीमा नहीं है परंतु कार्यालयीय अनुवाद की अपनी सीमाएं हैं तथा अपनी अलग भाषा शैली है, कार्यालय में प्रत्येक शब्द का एक अलग एवं अद्वितीय अर्थ है।

हिन्दी साहित्य में जितनी सरल, राजभाषा में उतनी ही बोझिल है और वजह है शब्दकोश। दरअसल ये शब्दकोश तैयार करना शब्दावली-आयोग तथा राजभाषा संबन्धित आयोगों आदि का काम था ताकि अभिव्यक्ति कर सकने के योग्य हिन्दी को एक व्यापक स्वरूप के साथ एकरूपता प्रदान की जा सके। अगर डॉ जयंती प्रसाद नौटिया जी के शब्दों में कहें तो “हिन्दी बनाम राजभाषा के अघोषित शीत युद्ध का श्रीगणेश यहीं से होता है, क्योंकि ऐसे आयोगों में भिन्न-भिन्न प्रदेशों के भाषाविदों, साहित्यकारों को नियुक्त किया गया ताकि परस्पर सहयोग से व्यावहारिक नजरिया अपना कर देश की जनता के अनुकूल हिन्दी का एक सर्वग्राही शब्दकोश तैयार किया जा सके”। लेकिन इस सबके बीच शायद उनका अहम आ गया और इस टकराव में हिन्दी पिस गई और मेरा मानना है कि इसी टकराव के फल स्वरूप ऐसे ऐसे शब्दों का निर्माण हुआ, जिनके प्रयोग से हिन्दी भाषा का सहज-स्वभाविक रूप ही खो गया। यही वजह है कि हिन्दी तथा राजभाषा एक होते हुए भी भिन्न-भिन्न नज़र आती हैं।

यहाँ मैं एक घटना के माध्यम से अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करना चाहूँगा। स्वतन्त्रता प्राप्ति से पूर्व भारत में एक स्वतन्त्रता सेनानी को ब्रिटिश न्यायालय के द्वारा फांसी की सजा हुई उस समय फांसी के सजा को सिर्फ To be hanged लिखा जाता था, सजा का ऐलान हो चुका था अब कुछ भी नहीं हो सकता था, तब चितरंजन दास जी ने अपनी सूझ बूझ से सेनानी को फांसी पर लटकने के तुरंत बाद फांसी से मुक्त करा दिया और वो बच गया, इस प्रक्रिया में न्यायालय के आदेश की तो अक्षरश: पूर्ति हो ही गई। साथ ही सेनानी को भी बचा लिया गया।
दास जी का तर्क था कि एक ही गलती के लिए किसी भी दोषी को दो बार दंडित नहीं किया जा सकता यह नियमों के विरुद्ध है। अत: उनके तर्क को कोई भी नहीं काट सका और ब्रिटिश न्यायालय को उस सेनानी को मुक्त करना पड़ा। इस घटना के बाद ही जघन्य अपराध के लिए कठोरतम दंड की भाषा में परिवर्तन किया गया तथा उसे “(To be hanged) फांसी पर लटकाएँ” से बदल कर “(To be hanged till death) म्रत्यु तक फांसी पर लटकाएँ” किया गया। ठीक इसी प्रकार कार्यालयीय अनुवाद में एक शब्द का अंतर या एक शब्द की कमी अर्थ का अनर्थ कर सकती है। कार्यालयीय अनुवाद में भाषा का अपना एक अलग ही प्रवाह होता है जिसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।

जबकि इसके ठीक विपरीत साहित्यिक अनुवाद सिर्फ अर्थ के अंतरण का कार्य नहीं करता बल्कि यह तो पाठ का रूपांतरण करता है और इसी प्रक्रिया में अर्थ भी रूपांतरित हो जाता है। देरिदा ने अनुवाद को एक ‘सुव्यवस्थित रूपांतरण’ कहा है । इसके साथ एक महत्वपूर्ण बिंदु यह भी है कि साहित्यिक अनुवाद अपनी प्रक्रिया में शामिल भाषाओं को एक समान स्तर पर लाने का प्रयास भी करता है, और ऐसा करते हुए यह किसी भाषा विशेष की प्रभुता को भी समाप्त करने का प्रयास करता है। इसको समझने के लिए मैं यहाँ पर एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहूँगा:

“I think man ought to have faith or ought to seek a faith or else his life is empty, empty…”

“मुझे लगता है कि मनुष्य के पास एक आस्था होनी चाहिए, और कुछ नहीं तो उसे कोई विश्वास और आस्था खोज लेनी चाहिए वरना उसकी ज़िंदगी सूनी और खोखली हो जाएगी”।

इस अवतरण में जो बातें ध्यान देने योग्य हैं, वे हैं ‘man’ का अनुवाद यहाँ ‘मनुष्य’ किया गया और इस तरह से इसे लिंग जनित सीमा से मुक्त किया गया है जिससे अनुवाद का प्रभाव व्यापक हुआ है। अंग्रेज़ी नाट्यांश में जहाँ ‘empty’ शब्द का ही दो बार प्रयोग किया गया है, वहीं हिंदी अनुवाद में उसके लिए अनुवादक ने ‘सूनी और खोखली’ का प्रयोग कर स्थिति की मार्मिकता को बनाए रखा है।

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