ज़िन्दगी.. कुछ अपने लिए भी

Pratima Tripathi
IndiaMag
Published in
5 min readNov 16, 2016
Image: Manas Mishra

“उसकी बायीं आँख में जब तक कोई आँसू उबलता तब तक दाहिनी आँख से एक आँसू छलक चुका होता लेकिन अजीब बात ये कि इस दौरान उसका चेहरा भावविहीन ही बना रहा, उसे देख कर ऐसा लगा कि कोई पत्थर रो रहा है.. बिना अपना मुँह बिगाड़े और ये कहना ठीक भी है, आख़िर वो दुःख सहते-सहते कमोबेश पत्थर ही हो चुकी थी। वो मेरे सामने बैठी अपनी ज़िन्दगी पर बयान दे रही थी, उसके मुताबिक़ दुनिया में ऐसा कोई दुःख नहीं था जो उसने नहीं उठाया और अब जबकि उसे ज़िन्दगी पर थोड़ा ऐतबार ठहरने लगा तब इतना बड़ा धोखा हुआ उसके साथ ! ओह ईश्वर !! निष्ठुर-छली ईश्वर !!!”

खैर, बात तो शुरू से ही शुरू करनी होगी। ज़िन्दगी के सफ़र में बचपन के दौर का उसने ज़िक्र नहीं किया शायद ज़रुरी नहीं रहा होगा। बात शादी के बाद शुरू हुई, जब उसकी दो बेटियाँ हुईं और अचानक पति एक हादसे में गुज़र गए। नाते-रिश्तेदार वैसे ही निकले अमूमन जैसे की निकलते हैं। दो बच्चियों का लालन-पालन, अच्छे स्कूल में लिखाई-पढ़ाई इतना आसान नहीं था। जमापूँजी, जो भी थी उसने लगा दी लेकिन वो कितने दिन चलती यही सोचकर जो काम हाथ में आया उसने सब किया। दस-दस रूपये में साड़ियों में फ़ाल लगाना, सिलाई-बुनाई करना, दूसरों के घरों में खाना बनाना। उस घड़ी दुर्भाग्य ने उसे इतना छकाया हुआ था कि उसने भाग्य बंचवाने के लिए पंडितों, ज्योतिषियों और बाबाओं के चक्कर लगाने शुरू कर दिए। हज़ार गलत होते-होते कुछ सही तुक्के लग ही गए। किसी की सलाह पर उसने छोटे फंक्शन और पार्टियों में खाना बनाना शुरू किया। धीरे-धीरे मेहनत रंग लाई और जो काम पांच सौ रूपये से शुरू किया था कभी, वो आठ सौ हज़ार होते हुए पन्द्रह सौ तक जा पहुंचा।

ज़िन्दगी ने उसे जो सबक़ दिया था उसके चलते उसे दांतों से पैसे पकड़ना आ गया।
इधर बच्चियाँ जो स्कूल में थीं, कॉलेज पहुँच गईं। कितना आसान होता है कहना ‘कंधे से कंधा मिलाकर चलना है, बराबरी करना है’ ये सब बातें हैं साहब! कोरी बकवास बातें! लडकियाँ, लडकियाँ ही रहती हैं, कोई भी दौर हो, उम्र हो, जगह हो सम्भल कर ही चलना पड़ता है और फिर वो जिनके आसपास भाई-बाप का साया भी न हो उनके लिए तो ये ख़तरा दोगुना हो जाता है। आये दिन लडकों का पीछे-पीछे आना, फोन आना, छींटाकशी करना.. रोज़मर्रा का सरदर्द हो गया। ऐसे समय में डरते-डरते ही सही एक माँ अपनी बच्चियों के लिए ढाल बनी रही, बीच में इन्हीं सब से तंग आ कर उसने घर भी बदल लिया, लेकिन इस बार घर अपना था तो क्या हुआ कि शहर से बाहर था, पर सुरक्षित था। दोनों की पढ़ाई खत्म होते-होते नौकरी लग गई। बड़ी बेटी ने दूसरे शहर का रूख़ किया क्यूंकि माँ से उसकी कभी पटी नहीं तो उसने अकेले रहने का फ़ैसला किया जबकि छोटी ने लाख़ समझाने के बाद भी मनमर्ज़ी से शादी कर ली।

लेकिन वो औरत.. उसका क्या? उसका कौन? वो तो फिर अकेले !! फिर भी.. उसने अपने दुःख को अपने भीतर दफ्न कर लिया और सोचा कि जब मैं अकेले होकर दो बेटियों को पाल सकती हूँ, क़ाबिल बना सकती हूँ तो अपना जीवन क्यूँ नहीं निर्वाह कर सकती, बस उसके इसी आत्मविश्वास ने उसे बल दिया और वो उसी समर्पण से सधे हाथों से काम करने लगी। बच्चों ने उसके लिए कभी कुछ नहीं किया मगर उसने बच्चों की एक पुकार पे अपना सब कुछ सामने रख दिया। छोटी बेटी ससुराल के लोगों से तंग आ गई थी, अब उसे अलग अपना मकान चाहिए था, जिसके लिए उसने माँ से मदद माँगी, माँ ने जो भी बचत की थी, उसे दे दिया।

बड़ी बेटी ने सवाल उठाया-

‘मेरा हिस्सा कहाँ है?’

माँ हतप्रभ थी, बस इतना ही कह सकी-

‘ज़िंदा हूँ अभी, तुम्हारे लिए भी कर के ही जाऊँगी।’

आज जब वो मेरे सामने बैठी थी, उसको देख कर मैं हैरान थी। अगर उसने अपना नाम न बताया होता तो मैं उसे पहचान भी न पाती। जब मैं उससे पहली बार मिली थी तो मेरी नज़र में वो एक खूबसूरत, सभ्य, हंसमुख और मिलनसार महिला थी, जिसके हाथों स्वाद का जादू जगता था और आज लगभग साल भर बाद उसकी पलकों और भवों के बाल झरे हुए, सर पे बाल की जगह एक दुपट्टा माथे तक, चेहरे पे रौनक की जगह दाग़ और धब्बे। हाथ-पैर की उँगलियाँ कुछ टेढ़ी और सूजी हुई।

आगे उसने कहा- “जब मैंने सोचा कि अब सब ठीक है, अब मैं अपनी नातिन के लिए पैसे बचाऊँगी कि तभी ईश्वर ने मुझे कैंसर जैसी बीमारी दे दी। मेरे बचाये सारे पैसे अब इलाज में खर्च हो रहे हैं। डाक्टर कहता है कि आप ५०% तक ठीक हैं जबकि पंडित ने कहा है मेरे पास सिर्फ ढाई साल हैं। मैं अभी मरना नहीं चाहती, मुझे अभी बड़ी बेटी को सेटल करना है, छोटी बेटी की बच्ची सिर्फ सात महीने की है और मैं ही उसे सम्भालती हूँ, बेटी-दामाद दोनों जॉब करते हैं और ढाई साल में तो वो स्कूल भी जाना नहीं शुरू करेगी! कितना सारा काम है अभी, मेरे बिना कैसे होगा?”

ओह! ये जीवन के मोहपाश.. वो अभी भी अपने बच्चों के लिए परेशान है, उन बच्चों के लिए जो उसके ये पूछने पर कि..

‘बेटा आज अनार नहीं लाई? डाक्टर ने कहा है रोज अनार का जूस जरूरी है।’

‘मन्थएंड है माँ, पैसे कहाँ हैं अनार के लिए?’

(हालँकि ये बताते हुए उसकी आँख से फिर एक आँसू लुढक गया और लगभग बुदबुदाते हुए उसने कहा- ‘मेरे लिए उसके पास डेढ़ सौ रूपये नहीं थे’)

‘माँ मेरी ट्रेनिंग है, बंगलोर जाना है डेढ़ महीने के लिए। आप बच्ची को देख लेना।’

‘पर शनिवार को कौन देखेगा, मेरी कीमोथेरेपी है बेटा!’

‘उस दिन सास आ जाएगी मेरी, आप तो जानती हो उनके तरीके मुझे पसंद नहीं, इसलिए उनको नहीं बुलाती। एक दिन की बात और है, मुझे तो आप पर ही भरोसा है।’

और माँ अपनी सेहत को अपनी बेटी के भरोसे पर कुर्बान देती है। इस हालत में उनके बारे में ही सोच रही है, उनके बच्चे पाल रही है।

अपनी बच्चियों के जीवन में सौतेला शब्द वो नहीं चाहती थी इसलिए उसने दुबारा शादी नहीं की।(चलिए माना कि ये उसका कर्तव्य था) प्यार जैसी कोई फुहार पड़ी तो थी मन पर मगर उसे ख़ुद उसने धकिया कर मन के बाहर फेंक दिया ये सोचकर कि आख़िर चार लोग क्या कहेंगे। (उफ़ ! ये चार लोग)

“ईश्वर ने ज़िन्दगी हमें हमारे लिए भी जीने को दी है। ज़िन्दगी केवल साँसों का जोड़-तोड़ नहीं कि हम सारी उम्र जिम्मेदारियों से लदे हुए बस काम-काम-काम करते रहें। अपने शौक, अपनी इच्छा, अपना मन सब कुर्बान करके हमने क्या पाया? कब कहा हमने कि जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ लीजिये मगर उन सबके साथ ही अपनी ज़िन्दगी से, अपने आप से भी मिलते रहिये। यहाँ कौन बसने आया है.. जो आया है, वो जाएगा भी। ये एहसास केवल आपको ही नहीं है उस ज़िन्दगी को भी है इसलिए उसे भी प्यार करिये, सराहिये, निबाहिये, उसके साथ वक्त बिताइए। ज़िन्दगी चाहती है कि आप उसे भरपूर जियें। जिस शिद्दत से आप अपने ग़म जीते हैं ठीक उसी शिद्दत के साथ छोटी-छोटी ख़ुशी भी जियें।”

उन्हें मेरी बातों से कुछ सहारा हुआ या नहीं, मैं नहीं जानती मगर मैंने उनसे एक बड़ा सबक़ लिया और वो ये कि मैं कह सकूँ-

“शुक्रिया ज़िन्दगी कि तुम मुझे मिली, अब तुम जितनी भी हो, जैसी भी हो.. मैं तुम्हें पूरी शिद्दत से जियूँगी।” 

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