फ़ातिहा

Shraddha Upadhyay
IndiaMag
Published in
6 min readDec 1, 2016
Image : Manish Gupta

सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है

‘पैदा तो इंसान हुए थे, मुसलमान तो बना दिये गए। छुटपन में बस एकाध बार टोपी लगा ली होगी। खैर, टोपी तो हुकूमतों के सौदागरों ने पहनाई है।बाँट-बाँटकर मानो हमें ख़त्म कर दिया है। पोशाक और भाषा से लेकर जुर्म तक सब बँट गए हैं। हम तो इस मिट्टी से जो निकले, वही बोली बोलते हैं। हिंदी और उर्दू का फ़र्क़ कभी समझ ही नहीं आया कि उर्दूदाँ बनने का कोई ख़्वाब रखते। ज़ुबान भी तो इतनी साफ़ नहीं थी कि किसी भाषा के पक्के बन पाते।नमाज़ तक तो मार खा-खाकर रटी थी। अरबी भी इतनी नहीं आती कि क़ुरान शरीफ़ ठीक भी से पढ़ पाएँ। कितनी बार इन्हीं कोठरियों में फातिहा पढ़ने का मौका आया, नहीं पढ़ पाया। बीबी जान, तुम तो मज़हब की बहुत पक्की हो। तुम से कितनी मुलाक़ातों में पूछना चाहा था कि फ़ातिहा पढ़ना जानती हो क्या, नहीं पूछ पाया। ऐसे कायर शौहरों को इतनी हिम्मती बीवियाँ क्यों मिल जाती हैं?

तुम विश्वास नहीं करोगी पर अपनी कोठरी में मैंने नमाज़ पढ़ना शुरू कर दिया है। जब बार-बार मज़हब के नाम की दुहाइयाँ दी जाने लगीं, तो मैंने भी मज़हब को पकड़ लिया। कमसकम जिस बात की सज़ा कट रही है, वो जुर्म तो कर लूँ। मुझे अपनी तक़दीर की कोई खबर नहीं रही। ये जो बेतरतीब-सी बातें फेंक रहा हूँ, मुझे अब आग़ाज़ करने का तरीका आता ही नहीं। मुझे कोई भी तरीका नहीं आता।अब मैं ज़ुबान की ख़ूबसूरती की फ़िक्र नहीं कर पाता और रस्म-उल-ख़त का तो कोई होश ही नहीं रहा। अब ज़ुबान अपनी भी तो नहीं रही। मलाल ये नहीं कि मैं इस जेल में अनगिनत सालों से रहता हूँ। सज़ा तो ये है कि अब इस जिस्म में क़ैद हूँ।

आमिना बेग़म! तुम्हें वो दिन याद है? अब तुम सोचोगी कि भांग खाकर तुम से ऐसे बात करते हैं। नहीं बीबी, तुम से कभी अच्छे से बात नहीं की, इस बात का दुःख समाता नहीं। मुझे यकीन है कि तुम भी रोज़ वही दिन दोहराती होंगी जिस दिन हमारी कहानी सालों के लिए थम गई। हिजरी का पहला महीना था। इमाम हुसैन की शहादत मनाने की तैयारी मुक़म्मल थी, हमने कैसी बारीकी-सी वो ताजिया बनाया था। पण्डित जी अपने शहरी नातियों को हमारे मुहल्ले की कला दिखाने लाए थे। बाबा ने उन्हें किस तरह हज़रत हुसैन की कहानी सुनाई थी। वो कहते थे कि सदियों बाद सिर्फ़ इंसान की हिम्मत ज़िन्दा रहती है और सबको तो मौत निगल लेती है। हज़रत हुसैन पर ढाए सितमों का ग़म भी ऐसा है कि आज तलक छाती पीटते हैं और जनानियाँ मजलिस में ज़ैनब हो जाया करती हैं। मैंने तुम से पूछा था कि, “ए मुनिया, जे टिसुए बहाती तो कुच्छु समझ आत है”। तुम ने आँसू भरी आँखों से मेरी ओर देखकर माथा तान दिया था। सवाल तो वाजिब था। तुम औरतों का क्या है बस किसी की बिदाई-अगुवाई का मौज़ूअ छेड़ दो, अपना झरना लिए बैठ जाओगी। अब तो तुम्हारा वो चेहरा याद ही नहीं जिस पे आँसू न हों। खैर चेहरे क्या, हमारी तो ज़िन्दगी की सूरतें बिगड़ गईं।’

फिर घर से निकले थे हज़रत को शान से सुपुर्द-ए-खाक़ करने और वापस कभी आए ही नहीं। उस दिन से हमारे लिए वो शहर कर्बला बन गया।

घर की ओर लौट ही रहे थे कि गाड़ियों के एक कारवाँ ने हमें घेर लिया। इतनी लालबत्तियाँ देखकर मेरा सिर चकरा गया। एक साहब निकले और उन्होंने गाड़ी में बैठने को कहा। सलीम भाई ने पूछा था कि माजरा क्या है, मैं तो डर से चुपचाप खड़ा रहा। साहब ने बोला कि कोई पूछताछ में मदद चाहिए, इसलिए हमें स्टेशन तक आना होगा। हम बैठ गए। हम अपनी बर्बादी के सफ़र पर अपनी मर्ज़ी से ही चल पड़े।

स्टेशन पर पहुँचते ही हमें अलग-अलग कर दिया। हम तीन लोगों को आला अफ़सरों के सामने पेश किया। इशारों में उन्होंने कुछ बात की और फिर हमें मुँह बाँधकर बाहर ले जाया गया। वहाँ पत्रकारों का भारी जमावड़ा था। हमें स्टेज पर ले जाया गया और एलान कर दिया कि आतंकवादी पकड़े गए। मैं सिहर उठा था। आतंकवादी करार हमारी ज़िंदगियाँ आतंकित कर दीं गईं। पता नहीं अपराध संहिता में ऐसा कोई जुर्म है कि नहीं?

मैंने उन्हें कितना समझाया कि भाई मैं आतंकवादी नहीं हूँ। मैं तो एक छोटी-सी परचून की दुकान करता हूँ। वो कह रहे थे कि मुझे पाकिस्तान से पैसे मिलते थे हथियार खरीदने के लिए, मैंने उन्हें समझाने की कोशिश की कि उनको ग़लतफ़हमी हुई है। बहुत देर तक समझाया। पर ग़लतफ़हमी तो मुझे हुई थी। वो सब एक सोचा-समझा षड्यंत्र था। मुझे जेल में डाल दिया और बहुत पीटा। बोलते थे कि मान लूँ कि मैंने विस्फोट किया। और कि मेरे पास से ग्रेनेड और जेलेटिन स्टिक बरामद हुई हैं।

मैं तो ये भी नहीं जानता कि ये सब क्या होता है। दिनोंदिन मुझे भूखा रखा गया, नंगा करके बर्फ़ पर डाल दिया गया, मेरे शरीर पर चिनमिनाने वाला तेल लगाया गया, कभी तेज़ रोशनी में-कभी घोर अँधेरे में रखा गया और क्या-क्या हुआ मैं बयान नहीं कर सकता। जब उन्होंने धमकाया कि तुम्हें और बिटिया को थाने में लाकर गंदी हरकतें करेंगे, तो मैं टूट गया। मैंने हार मान ली। जिस इकबालिया बयान के बिना पर मुझे फाँसी की सज़ा सुनाई है न, उस पर मैंने उसी दिन दस्तख़त किए थे।

‘आमिना!! मुझे पता है कि सज़ा सिर्फ़ मेरी नहीं है। उस दिन से तुमने भी अकेले इस तंत्र का सामना किया है। एक आतंकवादी की बीवी होना शायद आतंकवादी होने से भी ज़्यादा संगीन होता है। मैंने तुम्हें अकेले कचहरियों की फेरी लगाने को छोड़ दिया। घर, दुकान, पेशियाँ सब सँभालती हो और फिर भी उम्मीद नहीं छोड़तीं। जो पर्दा डालकर रवायती मुलाक़ातें नसीब होती हैं, उनमें भी तुम नज़रों को बेइख्तियारी वक्फ़ नहीं करतीं।

शायद ख़ुदा में यक़ीन की वजह से ही इतनी आशावादी हो। जब अदालत ने फाँसी की सज़ा सुनाई थी तब तुमने धीरे से हाथ पकड़कर कहा था कि वक़ील साहब कहते हैं कि इससे भी बड़ी अदालत होती है, हम अब वहाँ जाएँगे। मुझे पता है कि ख़ानदान और समाज ने तुम्हें तनहा कर दिया था। फिर भी तुमने एक बार कहा था कि सब लोग बुरे नहीं होते, बहुत लोग हमारी मदद कर रहे हैं। तुम जैसी भली औरत के पति के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए था।’

उसके अलावा घर-परिवार की कोई फ़िक्र रही नहीं है। मेरी समझ सुन्न हो गई है। मैं अब कुछ कहने-सुनने लायक नहीं रहा। पर कभी-कभी बिटिया का वही तीन साल का चेहरा याद आता है। जब पैदा हुई थी तब बहुत दुखी हुआ था। लड़का चाहता था। तुमसे दो दिन ठीक से बात नहीं की और बिटिया को भी गोद में नहीं झुलाया। अल्लाह मियाँ ने शायद इसीलिए ये ज़ुल्म किया और दिखा दिया कि बिना ज़ुल्म की सज़ा कैसी होती है। छुटकी के ब्याह को भी इस आतंकवादी बाप को बेल न मिली। मेरी क़ैद में इतनी रिहाई कहाँ है कि अपनी बेटी को सीने से लगा सकूँ। मैं तो बस इस बात का शुक्रगुज़ार हूँ कि किसी भले मानुष ने उसका हाथ थाम लिया। आख़िरी बार देखा था तो मेंहदी लगे हाथों से मेरी मौत का फ़ैसला पढ़ रही थी।

कई बार जब आँखों को कुछ नहीं दीखता तो तुम्हारी मेंहदी के खिलते फूल याद आते हैं। तुम अब भी जश्नों में जाकर लोगों के हाथों में रोशनी बोती हो या वहाँ भी मैंने अँधेरा कर दिया। कई बार मुझे अपने जिस्म का हर घाव तुम्हारी हिना की बनावट-सा लगता है, पर इस हिना का रंग न महकता है न मिटता है।

अक्सर सोचता हूँ कि काश सलीम भाई की तरह मुझे भी किसी फर्ज़ी एनकाउंटर में मौत मिल जाती तो शायद तुम्हारी ज़िन्दगी आसान हो जाती। जानता हूँ कि तुम सुनोगी तो लाहौल विला कूवत कहकर नज़रें तेज़ कर लोगी। तुम से दूर क्या हुआ हूँ, हर बात पर मन ही मन तुम्हारे चेहरे का भाव देखता रहता हूँ। इस उन्नीस साल की सज़ा ने मुझे तुम्हारा वो रूप दिखाया जिसकी तरफ़ मैंने जानबूझकर आँखें मूँद रखी थीं।

‘आमिना बेग़म,बीबी जान, मैं बहुत दिनों से तुम्हें ये ज़हनी ख़त लिख रहा हूँ। अब कि इन हाथों ने अलिफ़-बे लिखना नहीं सीखा, उसका कोई मलाल नहीं रहा। एक नक्श खींचने को कहा था सो खींच दिया है। वो एक हर्फ़ है मौत का जो ज़िन्दगी की पूरी कहानी को बेमानी करार देता है। उसके हवाले से मुझ पर इतने सितम ढाए गए हैं कि मैंने कई क़यामतें इकट्ठी जी लीं। मैं अब कभी भी मारा जा सकता हूँ, मुझे पता है कि बहुत लोग मेरे सच के लिए लड़ते रहेंगे। मैं ज़िन्दा रहूँ या मर जाऊँ, कोई फर्क़ नहीं पड़ता। अगर मेरा सच हार गया तो तुम्हारे जैसे लोगों की उम्मीदों में बंधी इस देश की जनतांत्रिक और न्यायिक भावना की हत्या होगी और संविधान पर फ़ातिहा पढ़ा जाएगा।’

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